ecology , water and environment

My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

गुरुवार, 2 मई 2024

Negligence towards glaciers can prove costly for the earth.

 

ग्लेशियर (Glacier)के प्रति लापरवाही  महंगी पड़  सकती है धरती को

पंकज चतुर्वेदी



 बीते दिनों भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने सेटेलाइट इमेज जारी कर बताया कि किस तरह हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैंऔर इसके चलते कई ग्लेशियल झीलों का आकार दोगुने से बढ़ा है।  इस रिपोर्ट को पढ़ते ही याद आया कि इस तरह छह फरवरी 2021 की सुबह ग्लेशियर  का एक हिस्सा टूट कर तेजी से नीचे फिसल कर ऋषि गंगा नदी में गिर था।  विशाल हिम खंड के गिरने से नदी के जल-स्तर में अचानक  उछाल आया और रैणी गांव के पास चल रहे छोटे से बिजली संयत्र में देखते ही देखते तबाही थी । उसका असर वहीं पांच किलोमीटर दायरे में बहने वाली धौली गंगा पर पड़ा व वहां निर्माणाधीन एनटीपीसी का पूरा प्रोजैक्ट तबाह हो गया था ।  रास्ते के कई पूल टूट गए और कई गांवों का संपर्क समाप्त हो गया। उस  घटना ने यह स्पट कर दिया था कि हमें अभी अपने जल-प्राण कहलाने वाले ग्लेशियरों  के बारे में सतत अध्ययन और नियमित आकलन की बेहद जरूरत है।



हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों पर बर्फ के वे विशाल  पिंड जो कि कम से कम तीन फुट मोटे व दो किलोमीटर तक लंबे हों, हिमनद, हिमानी या ग्लेशियर  कहलाते हैं। ये अपने ही भार के कारण नीचे की ओर सरकते रहते हैं। जिस तरह नदी में पानी ढलान की ओर बहता है, वैसे ही हिमनद भी नीचे की ओर खिसकते हैं। इनकी  गति बेहद धीमी होती है, चौबीस घंटे में बमुश्किल  चार या पांच इंच। धरती पर जहां बर्फ पिघलने की तुलना में हिम-प्रपात ज्यादा होता है, वहीं ग्लेशियर  निर्मित होते हैं। सनद रहे कि हिमालय क्षेत्र में कोई 18065 ग्लेशियर  हैं और इनमें से कोई भी तीन किलोमीटर से कम का नहीं है। हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियर  के बारे में यह भी गौर करने वाली बात है कि यहां साल में तीन सौ दिन , हर दिन कम से कम आठ घंटे  तेज धूप रहती है। जाहिर है कि थोड़ी-बहुत गर्मी में यह हिमनद पिघलने से रहे।


 

इसरो की ताजा रिपोर्ट  देश के लिए बेहद  भयावह है क्योंकि हमारे देश की जीवन रेखा कहलाने वाली गंगा- यमुना जैसी नदियां तो यहाँ से निकलती ही हैं, धरती के तापमान को नियंत्रित रखने और मानसून को पानीदार बनाने में भी  इन हिम-खंडों की  भूमिका होती है । इसरो द्वारा जारी सेटेलाइट इमेज में हिमाचल प्रदेश में 4068 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गेपांग घाट ग्लेशियल झील में 1989 से 2022 के बीच 36.49 हेक्टेयर से 101.30 हेक्टेयर का 178 प्रतिशत विस्तार दिखाया है। यानी हर साल झील के आकार में लगभग 1.96 हेक्टेयर की वृद्धि हुई है। इसरो ने कहा कि हिमालय की 2431 झीलों में से 676 ग्लेशियल झीलों का 1984 से 2016-17 के बीच  10 हेक्टेयर से ज्यादा विस्तार हुआ है। इसरो ने कहा कि 676 झीलों में से 601 झीलें दोगुना से ज्यादा बढ़ी हैं, जबकि 10 झीलें डेढ़ से दोगुना और 65 झीलें डेढ़ गुना बड़ी हो गई हैं।

चिंता की बात यह है कि जिन 676 झीलों का विस्तार हुआ है उनमें से 130 भारत की सीमा में हैं । यह भी विचारणीय है कि  हिम खंड पिघल का बन रही 14 झीलें 4,000 से 5,000 मीटर की ऊंचाई पर हैं, जबकि 296 झीलें 5000 मीटर से भी अधिक ऊंचाई पर हैं। याद करें  कि उत्तर-पश्चिमी सिक्किम में 17,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित दक्षिण ल्होनक ग्लेशियर झील पिछले साल अक्तूबर में फट गई थी। इससे आई बाढ़ के कारण 40 लोगों की मौत हुई थी और 76 लोग लापता हो गए थे। हिमाचल भी कुछ साल पहले पराच्छू झील के फटने से ऐसे ही त्रासदी का सामना कर चुका है।

हिमालय को इतने विशाल  ग्लेशियरों और हिमाच्छादित उत्तुंग शिखाओं के कारण  तीसरे ध्रुव के रूप में जाना जाता है। यह क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के कारण प्रभावित सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्रों में से एक है ।  कोई 200 साल के दौरान जैसे -जैसे दुनिया में कल-कारखाने लगे,ग्लेशियर के पिघलने की नैसर्गिक गति प्रभावित भी हुई  जब गलेश्यिर अधिक तेजी से  पिघलते हैं तो ऊंचे पहाड़ों की घाटियों में कई नई झीलें बन जाती हैं, साथ ही  पहले से मौजूद झीलों का भी विस्तार होता है। ऐसी झीलों को हिमनद झील कहते हैं ।

ये झील नदियों के जल स्रोत होते हैं लेकिन इनका फट जाना अर्थात ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ) एक बड़ी प्राकृतिक  आपदा भी होता है । जब बर्फ से बने बांध अर्थात मोराईन के कमजोर होने पर अक्सर ऐसे हादसे होते हैं ।

हिमालय भारतीय उपमहाद्धीप के जल का मुख्य आधार है और यदि नीति आयोग के विज्ञान व प्रोद्योगिकी विभाग द्वारा सं 2018 में  तैयार जल संरक्षण पर रिपोर्ट पर भरोसा करें तो हिमालय से निकलने वाली 60 फीसदी जल धाराओं में दिनों-दिन पानी की मात्रा कम हो रही है। ग्लोबल वार्मिंग या धरती का गरम होना, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन और  शीतलीकरण का काम कर रहे ग्लेशियरों  पर आ रहे भयंकर संकट व उसके कारण समूची धरती के अस्तित्व के खतरे की बातें अब महज कुछ पर्यावरण-विषेशज्ञों तक सीमित नहीं रह गई हैं। यह सारी दुनिया की चिंता है कि यदि हिमालय के ग्लेशियर  ऐसे ही पिघले तो नदियों में पानी बढ़ेगा और उसके परिणामस्वरूप जहां एक तरफ कई नगर-गांव जल मग्न हो जाएंगे, वहीं धरती के बढ़ते तापमान को थामने वाली छतरी के नष्ट  होने से भयानक सूखा, बाढ़ व गरमी पड़ेगी।  जाहिर है कि ऐसे हालात में मानव-जीवन पर भी संकट होगा।

हिमालय पर्वत के उत्तराखंड  वाले हिस्से में छोटे-बड़े कोई 1439 ग्लेशियर  हैं। राज्य के कुल क्षेत्रफल का बीस फीसदी इन बर्फ-शिलाओं से आच्छादित है। इन ग्लेशियर  से निकलने वाला जल पूरे देश  की खेती, पेय, उद्योग, बिजली, पर्यटन  आदि के लिए जीवनदायी व एकमात्र स्त्रोत है। जाहिर है कि ग्लेशियर  के साथ हुई कोई भी छेड़छाड़ पूरे देष के पर्यावरणीय, सामाजिक , आर्थिक और सामरिक संकट का कारक बन सकता है।

कोई एक दशक पहले जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय  पैनल(आईपीसीसी) ने दावा किया कि धरती के बढ़ते तापमान के चलते संभव है कि सन 2035 तक हिमालय के ग्लेशियरों  का नामोंनिशान मिट जाए। उदाहरण के तौर पर कश्मीर  के कौलहाई हिमनद के आंकड़े दे कर बताया गया कि वह एक साल में  20 मीटर सिकुड़ गया, जबकि एक अन्य छोटा ग्लेशियर  लुप्त हो गया।

जरा गंभीरत से विचार करें तो पाएंगे कि हिमालय पर्वतमाला के उन इलाकों में ही ग्लेशियर  ज्यादा प्रभावित हुए हैं जहां मानव-दखल ज्यादा हुआ है।  सनद रहे कि 1953 के बाद अभी तक एवरेस्ट की चोटी पर 3000 से अधिक पर्वतारोही झंडे गाड़ चुके हैं। अन्य उच्च पर्वतमालाओं पर पहुंचने वालों की संख्या भी हजारों में है। ये पर्वतारोही अपने पीछे कचरे का अकूत भंडार छोड़ कर आते हैं। इंसान की बेजा चहलकदमी से ही ग्लेशियर  सहम-सिमट रहे हैं । कहा जा सकता है कि यह ग्लोबल नहीं लोकल वार्मिग का नतीजा है। जब तब ग्लेशियर  के उपरी व निचले हिस्सों के तापमान में अत्यिक फर्क होगा, उसके बड़े हिस्से में टूटने, फिसलने की संभावना होती है। कई बार चलायमान दो बड़े हिम पिंड आपस में टकरा कर भी टूट जाते हैं।

हालांकि यह बात स्वीकार करना होगा कि ग्लेशियर  के करीब बन रही जल विद्युत परियोजना के लिए हो रहे धमाकों व तोड़ फोड़ से शांत - धीर गंभीर रहने वाले जीवित हिम- पर्वत नाखुश  हैं। हिमालय भू विज्ञान संस्थान का एक अध्ययन बताता है कि गंगा नदी का मुख्य स्त्रोत गंगोत्री हिंम खंड भी औसतन 10 मीटर के बनिस्पत 22 मीटर सालाना की गति से पीछे खिसका हैं। सूखती जल धाराओं के मूल में ग्लेशियर  क्षेत्र के नैसर्गिक स्वरूप में हो रही तोड़फोड है।

 

 

सोमवार, 22 अप्रैल 2024

Do not burn dry leaves

 

न जलाएं सूखी पत्तियां

पंकज चतुर्वेदी


जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जलाने के लिए कोस रहा था, वह अब खुद अपने हाथों से अपनी तकदीर को आग लगा रहा है । दिल्ली का विस्तार कहलाने वाला गाजियाबाद जिला भले ही आबादी के लिहाज से हर साल विस्तार पा रहा है लेकिन जान कर आश्चर्य होगा कि अभी तक यहाँ के नगर निगम  के पास कूड़ा  निस्तारण का कोई स्थान है नहीं । चूंकि महानगर के बड़े हिस्से में अभी भी खुलापन, पेड़, हरियाली और बगीचे जिंदा हैं  तो जगह-जगह  सूखे पत्तों का ढेर लगा है । हर कॉलोनी में इनके निस्तारण के लिए आग लगाना आम बात है ।  गाजियाबाद केवल एक  उदाहरण है , दिल्ली से जितनी दूरी बढ़ती जाएगी सूखे पत्तों को फूंकने की लापरवाही भी बढ़ेगी । कुछ लोगों के लिए यह झड़ते पत्ते महज कचरा हैं और वे इसे समेट कर जलाने को परंपरामजबूरीमच्छर मारने का तरीका व ऐसे ही नाम देते हैं। असल में यह ना केवल गैरकानूनी हैबल्कि अपनी प्रकृति के साथ अत्याचार भी है। 


नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने तो सन 2016 में बड़े सख्त लहजे में कहा था  कि पेड़ों से गिरने वाली पत्तियों को जलाना दंडनीय अपराध है व प्रशासनिक अमले यह सुनिश्चित करें कि  आगे से ऐसा ना हो।  इस बारे में समय-समय पर कई अदालतें व महकमे आदेश देते रहे हैंलेकिन कानून के पालन को सुनिश्चित करने वाली संस्थाओं के पास इतने लोग व संसाधन हैं ही नहीं कि हरित न्यायाधिकरण के निर्देश का शत-प्रतिशत पालन करवा सके। कुछ  साल पहले लुटियन दिल्ली में एक सांसद की सरकारी कोठी में ही पत्ती जलाने पर मुकदमा कायम हुआ था , उसके बाद दिल्ली में तो इस विषय में जागरूकता और सतर्कता है । लेकिन कई जगह तो नगर को साफ रखने का जिम्मा निभाने वाले स्थानीय निकाय खुद ही कूड़े के रूप में पेड़ से गिरी पत्तियों को जला देते हैं। असल में पत्तियों को जलाने से उत्पन्न प्रदूषण तो खतरनाक है ही ,सूखी पत्तियां कई मानों में बेशकीमती हैं व प्रकृति के विभिन्न तत्वों का संतुलन बनाए रखने में उनकी महति भूमिका है।


सूखी पत्तियां जलाने से इंसान खुद ही कई  बीमारियों को न्योता देता है । यह अस्थमाब्रोंकाइटिसआंखों में खुजलीसिरदर्द और नाक बहना और यहां तक कि जीवन के लिए खतरा पैदा करने वाली फैनफड़ों जटिलताएं भी हो सकती हैं। गिरी हुई पत्तियों को जलाने के अल्पकालिक और दीर्घकालिक संपर्क से अस्थमा के दौरेदिल के दौरे और कार्बन मोनोऑक्साइड विषाक्तता का खतरा भी बढ़ सकता है। 


दिल्ली हाई कोर्ट  दिसंबर-1997 में ही आदेश पारित कर चुकी थी कि चूंकि पत्तियों को जलाने से गंभीर पर्यावरणीय संकट पैदा हो रहा है अतः इस पर पूरी तरह पाबंदी लगाई जाए। सन 2012 में दिल्ल्ी सरकार ने  पत्ते जलाने पर एक लाख रूपए जुर्माने व पांच साल तक की कैद का प्रावधान किया था।। ठीक ऐसे ही मिलते-जुलते कानून व आदेश  हरयाणा व उ.प्र सरकार समय-समय पर जारी करती रहती है। एक तो ऐसे मामलों की कोई शिकायत  नहीं करतादूसरा पुलिस भी ऐसे पचड़ों में फंसती नहीं व स्थानीय निकाय के लोग खुद ऐसी हरकतें करते हैंसो जाने-अनजाने पूरा समाज वातावरण में जहर घोलने की शव- यात्रा का सहयात्री बनता है। ऐसे विभागीय या अदालती आदेश कहीं ठंडे बस्तें में गुम हो गए हैं और दिल्ली एनसीआर की आवोहवा इतनी दूषित हो चुकी है कि पांच साल के बच्चे तो इसमें जी नहीं सकते हैं। दस लाख से अधिक बच्चे हर साल सांस की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। प्रदूषण कम करने के विभिन्न कदमों में हरित न्यायाधिकरण ने पाया कि महानगर में बढ़ रहे पीएम यानि पार्टीकुलेट मैटर का 29.4 फीसदी कूड़ा व उसके साथ पत्तियों को जलाने से उत्पन्न हो रहा है।


पेड़ की हरी पत्तियों में मौजूद क्लोरोफिल यानि हरा पदार्थ , वातावरण में मौजूद जल-कणों या आर्द्रता हाईड्रोजन व आक्सीजन में विभाजित कर देता है। हाईड्रोजन वातावरण में मौजूद जहरीली गैस कार्बड डाय आक्साईड के साथ मिल कर पत्तियों के लिए शर्करायुक्त भोजन उपजाता है। जबकि आक्सीजन तो प्राण वायु है ही। जब पत्तियों का क्लोरोफिल चुक जाता है तो उसका हरापन समाप्त हो जाता है व वह पीली या भूरी पड़ जाती हैं। हालांकि यह पत्ती पेड़ के लिए भोजन  बनाने के लायक नहीं रह जाती है हैं लेकिन उसमें नाईट्रोजनप्रोटिनविटामिनस्टार्च व शर्करा आदि का खजाना होता है। ऐसी पत्तियों को जब जलाया जाता है तो कार्बनहाईड्रोजननाईट्रोजन व कई बार सल्फर से बने रसायन उत्सर्जित होते हैं। इसके कारण वायुमंडल की नमी और आक्सीजन तो नष्ट होती ही हैकार्बन मोनो आक्साईडनाईट्रोजन आक्साईडहाईड्रोजन सायनाईडअमोनियासल्फर डाय आक्साईड जैसी दम घोटने वाली गैस वातावरण को जहरीला बना देती हैं।  इन दिनों अर्जुननीमपीपलइमलीजामुनढाकअमलतासगुलमोहर,शीशम जैसे पेड़ से पत्ते गिर रहे हैं और यह मई तक चलेगा। अनुमान है कि दिल्ली एनसीआर में दो  हजार हैक्टर से ज्यादा इलाके में हरियाली है व इससे हर रोज 200 से 250 टन पत्ते गिरते हैं और इसका बड़ा हिस्सा जलाया जाता है।

एक बात और पत्तों के तेज जलाने की तुलना में उनके धीरे-धीरे सुलगने पर ज्यादा प्रदूषण फैलता है। एक अनुमान है कि दिल्ली एनसीआर इलाके में जलने वाले पत्तों से पचास हजार वाहनों से निकलने वाले जहरीले धुएं के बराबर जहर फैलता है। यानि चाहे जितना प्रयास कर लें पतझड़ के दो महीने में  ही  सालभर का  जहर हवा में घुल जाता है। सनद रहे पत्ते जलने से निकलने वाली सल्फर डाई आक्साईडकार्बन मोनो व डय आक्साईड आदि गैसे दमघोटूं होती हैं।  शेष बची राख भी वातावरण में कार्बन की मात्रा तो बढ़ती ही हैजमीन की उर्वरा क्षमता भी प्रभावित होती है।

अमेरिका और यूरोप के देशों में पेड़ से गिरी पट्टी को वहाँ से उठाने पर भी पाबंदी है क्योंकि वे जानते हैं कि यह पट्टी सूख कर धरती को संरड़ध कर रही है । यदि केवल एनसीआर की हरियाली से गिरे पत्तों को धरती पर यूं ही पड़ा रहने दें तो जमीन  की गर्मी कम होगीमिट्टी की नमी घनघोर गर्मी में भी बरकरार रहेगी। यदि इन पत्तियों को महज खंती में दबा कर कंपोस्ट खाद में बदल लें तों लगभग 100 टन रासायनिक खाद का  इस्तेमाल कम किया जा सकता है। इस बात का इंतजार करना बेमानी है कि पत्ती जलाने वालों को कानून पकड़े व सजा दे। इससे बेहतर होगा कि समाज  तक यह संदेश भली भांति पहुंचाया जाए कि सूखी पत्तियां पर्यावरण-मित्र हैं और उनके महत्व को समझनासंरक्षित करना सामाजिक जिम्मेदारी है। इसके लिए स्कूल स्तर पर बच्चों  को जागरूक करने, आर डब्लू ए स्तर पर जागरूकता और प्रशासन के स्तर पर निगरानी अनिवार्य है । 

 

Big rivers are drying up due to the indifference of small rivers.

 

छोटी नदियों की बेपरवाही से सूख रही हैं बड़ी नदियां

पंकज चतुर्वेदी



केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) की ओर से जारी आंकड़ों के विश्लेषण के बाद यह बात सामने रही है कि हमारी नदियां   मौसम से पहले तेजी से सूख रही हैं । अभी तो चैत शुरू हुआ है , सावन से पहले नदी में जल भरने लायक बरसात होने में अभी कम से कम सौ दिन हैं । चिंता की बात यह है कि बर्फ से ढंके  हिमालय से निकलने वाली नदियों- गंगा-यमुना के जल - विस्तार क्षेत्र में सूखा अधिक गहराता जा रहा है । यह सरकार की भी चिंता है कि गंगा बेसिन के 11 राज्यों के लगभग 2,86,000 गांवों में पानी की उपलब्धता धीरे-धीरे घट रही है। एक तो यह समझना होगा कि नदियों में घटता बहाव कोई अचानक इस साल नहीं आ  गया – यह साल दर  साल घाट रहा है और दूसरी बात नदी धार के कम होने का सारा दोष प्रकृति या जलवायु परिवर्तन पर डालना ईमानदारी  नहीं होगा .

हमारे देश  में 13 बड़े, 45 मध्यम और 55 लघु जलग्रहण क्षेत्र हैं। जलग्रहण क्षेत्र उस संपूर्ण इलाके को कहा जाता है, जहां से पानी बह कर नदियों में आता है। इसमें हिंमखंड, सहायक नदियां, नाले आदि षामिल होते हैं। जिन नदियों का जलग्रहण क्षेत्र 20 हजार वर्ग किलोमीटर से बड़ा होता है , उन्हें बड़ा-नदी जलग्रहण क्षेत्र कहते हैं। 20 हजार से दो हजार वर्ग किजरेमीटर वाले को मध्यम, दो हजार से  कम वाले को लघु जल ग्रहण क्षेत्र कहा जाता है। इस मापदंड के अनुसार गंगा, सिंधु, गोदावरी, कृष्णा , ब्रह्मपुत्र, नर्मदा, तापी, कावेरी, पेन्नार, माही, ब्रह्मणी, महानदी, और साबरमति बड़े जल ग्रहण क्षेत्र वाली नदियां हैं। इनमें से तीन नदियां - गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र हिमालय के हिमखंडों के पिघलने से अवतरित होती हैं। इन सदानीरा नदियों को ‘हिमालयी नदी’ कहा जाता है। शेष  दस को पठारी नदी कहते हैं, जो मूलतः बरसात  पर निर्भर होती हैं।

यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32। 80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों को सम्मिलत जलग्रहण क्षेत्र 30। 50 लाख वर्ग किलोमीटर है। भारतीय नदियों के माग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4। 445 प्रतिशत है।  आंकडों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विशय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं। जब छोटी नदियाँ थीं तो इस पानी के बड़े हिस्से को अपने आँचल में संभल कर रख लेती थीं.

नदियों के सामने खड़े हो रहे संकट ने मानवता के लिए भी चेतावनी का बिगुल बजा दिया है, जाहिर है कि बगैर जल के जीवन की कल्पना संभव नहीं है। हमारी नदियों के सामने मूलरूप से तीन तरह के संकट हैं - पानी की कमी, मिट्टी का आधिक्य और प्रदूशण।

 धरती के तापमान में हो रही बढ़ौतरी के चलते मौसम में बदलाव  हो रहा है और इसी का परिणाम है कि या तो बारिश अनियमित हो रही है या फिर बेहद कम।  मानसून के तीन महीनों में बामुश्किल चालीस दिन पानी बरसना या फिर एक सप्ताह में ही अंधाधुंध बारिश हो जाना या फिर बेहद कम बरसना, ये सभी परिस्थितियां नदियों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर रही हैं। बड़ी नदियों में ब्रह्मपुत्र, गंगा, महानदी और ब्राह्मणी के रास्तों में पानी खूब बरसता है और इनमें न्यूनतम बहाव 4। 7 लाख घनमीटर प्रति वर्गकिलोमीटर होता है। वहीं कृष्णा , सिंधु, तापी, नर्मदा और गोदावरी का पथ कम वर्षा  वाला है सो इसमें जल बहाव 2। 6 लख घनमीटर प्रति वर्ग किमी  ही रहता है। कावेरी, पेन्नार, माही और साबरमति में तो बहाव 0। 6 लख घनमीटर ही रह जाता है। सिंचाई व अन्य कार्यों के लिए नदियों के अधिक दोहन, बांध आदि के कारण नदियों के प्राकृतिक स्वरूपों के साथ भी छेड़छाड़ hui  व इसके चलते नदियों में पानी कम हो रहा है।

यदि उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊँ मंडलों की  गैर हिमानी नदियों की दुर्गति पर गौर करें तो समझ या जाएगा कि आखिर गंगा बेसिन में जल संकट क्यों है ? अल्मोड़ा के जागेश्वर में जाता गंगा का प्रवाह कभी 500 लीटर प्रति सेकेंड था जो आज महज 18 लीटर रहा गया। ऐसे ही कोसी की 30 सहायक नदियाँ लगभग लुप्त ही हो गई हैं कोसी की सहायक कुंजगढ़ नदी में अब आठ लीटर प्रति सेकंड का भाव है । सनद रहे गैर हिमानी नदियां प्रायः झरनों या भूमिगत जल स्रोतों से उपजती हैं और सालभर इनमें जल रहता है । जान कर आश्चर्य होगा कि जो विशाल गंगा मैदानी इलाकों में आती है, उसमें 80 फीसदी जल गैर-हिमानी नदियों से आता है । हिमनद से सीधे मिलने वाला जल तो महज बीस फीसदी ही होता है ।

एक मोटा अनुमान है कि आज भी देश में कोई 12 हज़ार छोटी ऐसी नदियाँ हैं , जो उपेक्षित है , उनके अस्तित्व पर खतरा है ।  उन्नीसवीं सदी तक बिहार(आज के झारखंड को मिला कर ) कोई छः हज़ार  नदियाँ हिमालय से उतर कर आती थी, आज  इनमें से महज 400  से 600 का ही अस्तित्व बचा है ।  मधुबनी, सुपौल  में बहने वाली  तिलयुगा नदी कभी  कौसी से भी विशाल हुआ करती  थी, आज उसकी जल धरा सिमट कर  कोसी की सहायक नदी के रूप में रह गई है ।  सीतामढ़ी की लखनदेई  नदी को तो सरकारी इमारतें ही चाट गई।  नदियों के इस तरह रूठने और उससे बाढ़ और सुखाड के दर्द साथ –साथ चलने की कहानी  देश के हर जिले और कसबे की है ।  लोग पानी के लिए पाताल का सीना चीर रहे हैं और निराशा हाथ लगती है , उन्हें यह समझने में दिक्कत हो रही हैं कि धरती की कोख में जल भण्डार  तभी लबा-लब रहता है, जब पास बहने वाली नदिया हंसती खेलती हो । 

इन दिनों बिहार के 23 जिलों में बहने वाली 24 नदियां सूख कर सपाट मैदान हो गई। इनमें से  उत्तर बिहार की 16 और दक्षिण बिहार की आठ नदियां हैं । इन सभी नदियों की कुल लंबाई 2986 किलोमीटर है। इसमें लगभग 670 किलोमीटर क्षेत्र में गाद भर गया है।

उत्तरी बिहार के समस्तीपुर व बेगूसराय में बैती, मुजफ्फरपुर में बलान, सीतामढ़ी और दरभंगा में बूढ़, पश्चिमी चंपारण में चंद्रावत (कोढ़ा सिकरहना), खगड़िया और समस्तीपुर में चान्हो, गोपालगंज और सारण में दाहा नदी जल-हीन हो गई  तो पूर्वी चंपारण में डोरवा, मुजफ्फरपुर और समस्तीपुर में जमुआरी, रोहतास में काव, भागलपुर में खलखलिया, मुजफ्फरपुर व समस्तीपुर में लखनदेई, सारण में माही, गोपालगंज और सीवान में तेल, कटिहार और किशनगंज में रामदान (रमजान), दरभंगा व मधुबनी में पुरानी कमला तथा अररिया में नूना नदी का नामों निशान मीट गया ।  दक्षिण बिहार के गया में बंधिया, जहानाबाद, नालंदा व पटना में फल्गु, नालंदा में गोइठवा, गया और जहानाबाद में मोहड़ा (मोहरर), कैमूर में सुआरा, नालंदा और पटना में सकरी, नालंदा और नवादा में पंचाने तथा गया में पैमार नदी सूख गई ।

अंधाधुंध रेत खनन , जमीन  पर कब्जा, नदी के बाढ़ क्षेत्र में स्थाई निर्माण , ही  छोटी नदी के सबसे बड़े दुश्मन हैं – दुर्भाग्य से जिला स्तर पर कई छोटी नदियों का राजस्व रिकार्ड नहीं हैं, उनको  शातिर तरीके से  नाला बता दिया जाता है ।  जिस साहबी  नदी पर  शहर बसाने से हर साल गुरुग्राम डूबता है, उसका बहुत सा रिकार्ड ही नहीं हैं।  झारखण्ड- बिहार में बीते चालीस साल के दौरान हज़ार से ज्यादा छोटी नदी गुम हो गई । हम यमुना में पैसा लगाते हैं लेकिन उसमें जहर ला रही  सखा-सहेली हिंडन, काली को और गंदा करते हैं – कुल  मिला कर यह  नल खुला छोड़ कर पोंछा लगाने का श्रम करना जैसा है ।

वैसे तो हर नदी  समाज, देश और धरती के लिए बहुत जरुरी है , लेकिन छोटी  नदियों  पर ध्यान देना अधिक  जरुरी है ।  गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियों को स्वच्छ रखने पर तो बहुत काम हो रहा है , पर ये नदियाँ बड़ी इसी लिए बनती है  क्योंकि इनमें बहुत सी छोटी नदियाँ आ कर मिलती हैं, यदि छोटी नदियों में पानी कम होगा तो बड़ी नदी भी सूखी रहेंगी , यदि छोटी नदी में गंदगी या प्रदूषण होगा तो वह बड़ी नदी को प्रभावित करेगा ।

 

 

 

शनिवार, 20 अप्रैल 2024

The path to school is very difficult!

 

बहुत कठिन है स्कूल तक की राह !

पंकज चतुर्वेदी



 

दिल्ली के करीब हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले के कनीना में उन्हानी के पास सड़क हादसे में 6 बच्चों की मौत हो गई। 15 से अधिक बच्चे  गंभीर रूप से घायल हैं । चूंकि माहौल चुनाव का है सो प्रधानमंत्री से ले कर विधायक तक सक्रिय हो गये । कुछ कार्यवाही होती भी दिख रही है । जरा सोचें- सारे देश में ईद के चलते सरकारी छुट्टी लेकिन हरियाणा का जी एल  स्कूल खुला रहा।  जो बस सड़क पर चल रही थी , उसका अनफ़ित होने के कारण एक महीने पहले भी 15 हजार का चालान हुआ था।  बच्चे भी जानते थे और पालक भी कि बस चलाने वाला शराब पिए है और उसकी ड्राइविंग बेलगाम थी, इसके बावजूद बस सड़क पर चलती रही । अभी इस दुर्घटना के बाद सड़कों पर बसों की जांच और  चालान की औपचारिकता चल ही रहीथी कि यमुना नगर  में स्कूली बच्चों से भरा एक तिपहिया पलट गया जिसमें एक बच्ची की मौत हो गई। सात बच्चे अस्पताल में भर्ती है । जो वाहन महज तीन सवारी के लिए परमिट प्राप्त है, उसमें 12 से अधिक बच्चे भरे थे । सड़क पर चलने  के लिए नाकाबिल वाहन , क्षमता  से अधिक बच्चे , बेतहाशा गति ,  अकुशल चालक – स्कूल जाने वाले बच्चों को लाने ले जाने में लिप्त वाहनों के मामले में सारे देश की यही एक सी तस्वीर है।  

दिल्ली के वजीराबाद पल पर लुडलो केसल स्कूल की बस के दुर्घटनाग्रस्त होने पर 28 बच्चों की मौत के बाद सन 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने स्कूली बसों के लिए दिशा निर्देश जारी किए थे । इसके अनुसार स्कूल बस पीले कलर की होनी चाहिए। इसके साथ ही उस पर स्कूल बस जरूर लिखा होना चाहिए। बस में फर्स्ट-एड- बॉक्स होना जरूरी है और बस की खिड़की में ग्रिल लगी होनी चाहिए। इसके साथ ही बस में आग बुझाने वाला यंत्र भी लगा होना चाहिए। स्कूल बस पर स्कूल का नाम और टेलीफोन नंबर भी होना चाहिए। यही नहीं दरवाजों पर ताले लगे हों और बस में एक अटेंडेंट भी हो । सबसे बड़ी बात  कि अधिकतम स्पीड 40 किलोमीटर प्रति घंटा होनी चाहिए। यह निर्देश दिल्ली में ही हवा-हवाई हैं ।

और अब तो स्कूल पहुँचने की राह में बड़ा खतरा  ओमनी वेन  हैं जिसमें अतिरिक्त सीटें लगा कर क्षमता से दोगुने नहीं तीन गुण अधिक बच्चे बैठना, उनकी अंधाधुंध स्पीड और सबसे अधिक उसके चालकों का संदिग्ध  व्यवहार नए किस्म का खतरा है । देश में आए रोज बच्चों के यौन शोषण में ऐसे वाहन चालकों की संलिप्तता सामने आती है । बसों के मामलों में तो स्कूल को जिम्मेदार बना दिया जा सकता है लेकिन वेन में ओवर लोडिंग, दुर्व्यवहार और दुर्घटना  होने पर स्कूल हाथ झटक कर अलग हो जाते हैं । बीते कुछ सालों में बैटरी चालित रिक्शा स्कूल की राह का एक खतरनाक साथी बना है। इसमें बेशुमार संख्या में बच्चों को भरना, प्रतिबंधित या तेज गति के वाहनों वाली सड़क पर संचालन करना और अनाड़ी चालक होने के कारण इनके खूब एक्सीडेंट हो रहे हैं ।  यह बानगी है कि बच्चों के स्कूल पहुंचने का मार्ग कितना खतरनाक और आशंकाओं से भरा है।

बीते कुछ सालों के दौरान आम आदमी शिक्षा के प्रति जागरूक हुआ है, विध्यालयों में बच्चों का पंजीकरण बढ़ा है। स्कूल में ब्लेक बोर्ड, शौचालय , बिजली, पुस्तकालय जैसे मसलों से लोगों के सरोकार बढ़े हैं, लेकिन जो सबसे गंभीर मसला है कि बच्चे स्कूल तक सुरक्षित कैसे पहुंचें? इस पर ना तो सरकारी और ना ही सामाजिक स्तर पर कोई विचार हो पा रहा है। इसी की परिणति है कि आए रोज देशभर से स्कूल आ-जा रहे बच्चों की जान जोखिम में पड़ने के दर्दनाक वाकिए सुनाई देते रहते हैं। परिवहन को प्रायः पुलिस की ही तरह खाकी वर्दी पहनने वाले परिवहन विभाग का मसला मान कर उससे मुंह मोड़ लिया जाता है। असली सवाल तो यह है कि क्या दिल्ली ही नहीं देशभर के बच्चों को स्कूल आने-जाने के सुरक्षित साधन मिले हुए हैं । भोपाल, जयपुर जैसे राजधानी वाले शहर ही नहीं, मेरठ, भागलपुर या इंदौर जैसे हजारों शहरों से ले कर कस्बों तक स्कूलों में बच्चों की आमद जिस तरह से बढ़ी है, उसको देखते हुए बच्चों के सुरक्षित, सहज और सस्ते आवागमन पर जिस तरह की नीति की जरूरत है, वह नदारद है ।

दिल्ली का वसंत कुंज धनवान लोगों की बस्ती है और यहाँ कोई डेढ़ किलोमीटर दायरे में 35 बड़े स्कूल हैं । इनके खुलने और बंद होने का समय लगभग समान है । सुबह के समय यहाँ की सड़कों पर महंगी गाड़ियों की रेस देखी जा सकती है, ये गाड़ियां बच्चों को समय अपर स्कूल छोड़ने के लिए घर से देर से निकलने वाले धनाढ्य लोगों की होती हैं । सुबह स्कूल खुलने और दिन में छुट्टी के समय सारा वसंत कुंज जाम रहता है और गाड़ियों, बसों के बीच धींगा मुष्टि चलती है । यही हाल दिलशाद गार्डन के है,  यहाँ से सटे साहिबाबाद के हैं और जयपुर और भोपाल के भी हैं । यहां निजी स्कूलों में हजारों बच्चे पढ़ते हैं , स्कूलों की अपनी बसों की संख्या बामुश्किल 20 हैं , यानी 1000-1500 बच्चे इनसे स्कूल आते हैं । शेष का क्या होता है ? यह देखना रोंगेटे खड़े कर देने वाला होता हैं । सभी स्कूलों का समय लगभग एक ही हैं , सुबह साढ़े सात से आठ बजे के बीच । यहां की सड़कें हर सुबह मारूती वेन, निजी दुपहिया वाहनों और रिक्शों से भरी होती हैं और महीने में तीन-चार बार  यहां घंटों जाम लगा होता हैं । पांच लोगों के बैठने के लिए परिवहन विभाग से लाईसेंस पाए वेन में 12 से 15 बच्चे ठुंसे होते हैं । बैटरी रिक्शे में दस बच्चे ‘‘आराम’’ से घुसते हैं। दुपहिया पर बगैर हैलमेट लगाए अभिभावक तीन-तीन बच्चों को बैठाए रफ्तार से सरपट होते दिख जाते हैं । आए रोज एक्सीडेंट होते हैं, क्योंकि ठीक यही समय कालोनी के लोगों का अपने काम पर जाने का होता हैं । ऐसा नहीं है कि स्कूल की बसें निरापद हैं , वे भी 52 सीटर बसों में 80 तक बच्चे बैठा लेते हैं । यहां यह भी गौर करना जरूरी है कि अधिकांश  स्कूलों के लिए निजी बसों को किराए पर ले कर बच्चों की ढुलाई करवाना एक अच्छा मुनाफे का सौदा है। ऐसी बसें स्कूल करने के बाद किसी रूट पर चार्टेड की तरह चलती हैं। तभी बच्चों को उतारना और फिर जल्दी-जल्दी अपनी अगली ट्रिप करने की फिराक में ये बस वाले यह ध्यान रखते ही नहीं है कि बच्चों का परिवहन कितना संवेदनषील मसला होता है ।

इस दिशा में सबसे पहले तो विधीयले से बच्चे के घर की दूरी अधिकतम तीन से पाँच किमी का फार्मूला लागू करना चाहिए । स्कूल का समय सुबह 10 बजे से करना, बच्चों के आवागमन  के लिए सुरक्षित परिवहन की व्यवस्था करना, स्कूली बच्चों के लिए  प्रयुक्त वाहनों में ओवरलोडिंग या अधिक रफ्तार से चलाने पर कड़ी सजा का प्रावधान करना, रिक्शा जैसे असुरक्षित साधनों पर या तो रोक लगाना या फिर उसके लिए कड़े मानदंड तय करना समय की मंाग हैं । सरकार में बैठे लोगों को इस बात को आभास होना आवश्यक है कि बच्चे राष्ट्र की धरोहर हैं तथा उन्हें पलने-बढ़ने-पढ़ने और खेलने का अनुकूल वातावरण देना समाज और सरकार दोनों की  नैतिक व विधायी जिम्मेदारी हैं । नेता अपने आवागमन और सुरक्षा के लिए जितना धन व्यय करते हैं, उसके कुछ ही प्रतिशत धन से बच्चों को किलकारी के साथ स्कूल भेजने की व्यवस्था की जा सकती हैं ।

 

पंकज चतुर्वेदी

 

बुधवार, 17 अप्रैल 2024

After all, why should there not be talks with Naxalites?

 

आखिर क्यों ना हो नक्सलियों से बातचीत ?

पंकज चतुर्वेदी




गर्मी और चुनाव की तपन शुरू हुई  और  नक्सलियों ने धुंआधार हमले शुरू कर दिए , हालांकि सरकार की कार्यवाही में बीते दो महीनों में 52 नक्सली मारे गए और कई बड़े  नाम आत्मसमर्पण कर चुके हैं । 29 तो अकेले एक ही मुठभेड़ में 16  अप्रेल को कांकेर जिले में मारे गए. छत्तीसगढ़ में नई सरकार बनते ही उपमुख्यमंत्री विजय शर्मा ने दो बार मंशा जाहिर की कि सरकार बातचीत के जरिए नक्सली समस्या का निदान चाहती है । अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर  नक्सलियों के गढ़ दँतेवाड़ा में मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने नक्सलियों से हिंसा छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने की अपील करते हुए आश्वासन दिया था  कि उनकी सरकार उनके साथ बातचीत के लिए तैयार हैऔर वह हर जायज मांग को मानेगी । इसके बाद 21 मार्च को  दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के प्रवक्ता विकल्प ने पत्र जारी कर कहा कि हम सरकार से बातचीत को तैयार हैं लेकिन सरकार पहले हमारी शर्तों को माने. शर्तों में सुरक्षा बलों के हमले बंद करना, गरीब आदिवासियों को झूठे मामलों में फँसने से रोकने जैसी बाते हैं । इधर बातचीत की तयारी चल रही थी और दूसरी तरफ  बस्तर की सीमा से लगे गढ़चिरोली में एक साथ कई कथित नक्सली मार दिए गये . उसके बाद 10 अप्रैल  को नक्सलियों ने पर्चा जारी कर  इसे सरकार की बातचीत की आड़  में धोखाधड़ी बताया . 16 अप्रैल की घटना को भी नक्सली धोखे से फंसा कर की गई फर्जी मुठभेड़ कह रहे हैं और इससे बातचीत का प्रस्ताव फिर से पटरी से नीचे उतरता दिख रहा है .


समझना होगा कि नक्सली कई कारणों से दवाब में हैं ।  सरकार की स्थानीय आदिवासियों को फोर्स मे भर्ती करने की योजना भी कारगर रही है ।  एक तो स्थानीय लोगों को रेाजगार मिला, दूसरा स्थनीय जंगल  के जानकार जब सुरक्षा बलों से जुड़ै तो अबुझमाड़ का रास्ता इतना अबुझ नहीं रहा। तीसरा जब स्थानीय जवान नक्सली के हाथों मारा गया और उसकी लाश  गांव-टोले  में पहुंची तो ग्रामीणें का रोष  नक्सलियों पर बढ़ा। एक बात जान लें कि दंडकारण्य में नक्सलवाद महज फेंटेसी, गुंडागिर्दी या फैशन नहीं है । वहां  खनज और विकास के लिए जंगल उजाड़ने व पारंपरिक जनजाति संस्कारों पर खतरे तो हैं और नक्सली अनपढ़- गरीब आदिवासियों में यह भरोसा भरने में समर्थ रहे है। कि उनके अस्तित्व को बचाने की लड़ाई के लिए ही उन्होंने हथियार उठाए हैं। यह भी कड़वा सच है कि नक्सलविरोधी कार्यवाही में बड़ी संख्या में निर्दोष लोग भी जेल में हैं व कई मारे भी गए, इसी के चलते अभी सुरक्षा बल आम लोगों का भरोसा जीत नहीं पाए हैं। लेकिन यह सटीक समय है जब नक्सलियों को बातचीत के लिए झुका कर इस हिंसा का सदा के लिए अंत कर दिया जाए।


बस्तर में लाल-आतंक का इतिहास महज चालीस साल पुराना है। बीते बीस सालों में यहां लगभग 15 हजार लोग मारे गए जिनमें 3500 से अधिक सुरक्षा बल के लोग हैं। बस्तर से सटे महाराष्ट्र , तेलंगाना, उड़ीसा, झारखंड और मध्यप्रदेश  में इनका सशक्त नेटवर्क है । समय-समय पर विभिन्न अदालतों में यह भी सिद्ध होता रहा है कि प्रायः सुरक्षा बल बेकसूर ग्रामीणों को नक्सली बता कर मार देते है।। वहीं घात लगा कर सुरक्षा बलों पर हमले करना, उनके हथियार छीनना भी यहां की सुखिर्यों में है। दोनो पक्षों के पास अपनी कहानियां हैं- कुछ सच्ची और बहुत सी झूठी।

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि नक्सलियों का पुराना नेतृत्व अब कमजोर पड़ रहा है और नया कैडर अपेक्षाकृत कर आ रहा है। ऐसे में यह खतरा बना रहता है कि कहीं जन मिलिशिया  छोटे-छोटे गुटों में निरंकुश  ना हो जाएं  । असंगठित या छोटे समूहों का नेटवर्क तलाशना बेहद कठिन होगा। बस्तर अंचल का क्षेत्रफल केरल राज्य के बराबर है और उसके बड़े इलाके में अभी भी मूलभूत सुविधांए या सरकारी मशीनरी  दूर-दूर तक नहीं है।


नक्सली कमजोर तो हुए हैं लेकिन अपनी हिंसा से बाज नहीं आ रहे। कई बार वे अपने अशक्त  होते हालात पर पर्दा डालने के लिए कुछ ना कुछ ऐसा करते हैं जिससे उनका आतंक कायम रहे। याद करें 21 अक्तूबर 2016 को न्यायमुर्ति मदन लौकुर और एके गोयल की पीठ ने फर्जी मुठभेड़ के मामले में राज्य सरकार के वकील को सख्त आदेष दिया था कि पुलिस कार्यवाही तात्कालिक राहत तो है लेकिन स्थाई समाधान के लिए राज्य सरकार को नागालैंड व मिजोरम में आतंकवादियों से बातचीत की ही तरह बस्तर में भी बातचीत कर हिंसा का स्थाई हल निकालना चाहिए। हालांकि सरकारी वकील ने अदालत को आश्वस्त  किया था  कि वे सुप्रीम कोर्ट की मंशा  उच्चतम स्तर तक पहुंचा देंगे। लेकिन तत्कालीन  सरकार के स्तर पर ऐसे कोई प्रयास नहीं हुए जिनसे नक्सल समस्या के शांतिपूर्ण  समाधान का कोई रास्ता निकलता दिखे। दोनो तरफ से खून यथावत बह रहा है और सुप्रीम  कोर्ट के निर्देश किसी लाल बस्ते में कराह रहे हैं ।

बस्तर से भी समय-समय पर यह आवाज उठती रही है कि नक्सली सुलभ हैं, वे विदेश  में नहीं बैठे हैं तो उनसे बातचीत का तार क्यों नहीं जोड़ा जाए। हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित दक्षिण बस्तर के दंतेवाड़ा में सर्व आदिवासी समाज चिंता जताता रहा है कि अरण्य मे लगातार हो रहे खूनखराबे से आदिवासियों में पलायन बढ़ा है और इसकी परिणति है कि आदिवासियों की बोली, संस्कार , त्योहार, भोजन सभी कुछ खतरे में हैं। यदि ईमानदार कोशिश की जाए तो नक्सलियों से बातचीत कर उन्हें हथियार डाल कर देश  की लोकतांत्रिक मुख्य धारा में शामिल होने के लिए राजी किया जा सकता है ।

अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की 18  साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही झाड़ देते हैं - सन 2006 की ‘‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’’ विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है - राजनीतिक गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों - ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययाोजना का कहीं अता पता नहीं है।

भारत सरकार मिजोरम और नगालैंड जैसे छोटे राज्यों में शांति के लिए हाथ में क्लाषनेव रायफल ले कर सरेआम बैठे उग्रवादियों से ना केवल बातचीत करती है, बल्कि लिखित में युद्ध विराम जैसे समझौते करती है। प्रधानमंत्री निवास पर उन अलगाववादियों को बाकायदा बुलाया  जाता है और उनके साथ हुए समझौतों को गोपनीय रखा जाता है जो दूर देश  में बैठ कर भारत में जमकर वसूली, सरकारी फंड से चौथ  वसूलने और गाहे-बगाहे सुरक्षा बलों पर हमला कर उनके हथियार लूटने का काम करते हैं। फिर नक्सलियों मे ऐसी कौन सी दिक्कत है कि उनसे टेबल पर बैठ कर बात नहीं की जा सकती- वे ना तो मुल्क से अलग होने की बात करते हैं और ना ही वे किसी दूसरे देश  से आए हुए है। कभी विचार करें कि सरकार व प्रशासन में बैठे वे कौन लोग है जो हर हाल में जंगल में माओवादियों को सक्रिय रखना चाहते हैं। जब नेपाल में वार्ता के जरिये उनके हथियार रखवाए जा सकते थे तो हमारे यहां इऐसे प्रयास क्यों नहीं हुए ? 

हालांकि पूर्व में एक -दो बार बातचीत की कोशिश  हुई लेकिन कहा जाता है कि इसके लिए जमीन तैयार करने वाले लोगों को ही दूसरे राज्य की पुलिस ने मार गिराया। कई बार लगता है कि कतिपय लोगों के ऐसे स्वार्थ निहित हैं जिनसे वे चाहते नहीं कि जंगल में शांति  हो। लेकिन यह भी सच है कि दुनिया की हर हिंसा  का निदान अंत में एकसाथ बैठ कर शांति से ही निकला है। वाकई नक्सली भी अब देश-विरोधी खून खराबे से तौबा करना चाहते हैं तो उन्हें भी हथियार पड़े रखने की पहल करनी होगी ।

 

Negligence towards glaciers can prove costly for the earth.

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