ecology , water and environment

My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 26 मार्च 2024

Have to get into the habit of holding water

 

पानी को पकडने की आदत डालना होगी

पंकज चतुर्वेदी



इस बार भी अनुमान है कि मानसून की कृपा देश  पर बनी रहेगी, ऐसा बीते दो साल भी हुआ उसके बावजूद बरसात के विदा होते ही देश  के बड़ै हिस्से में बूंद-बूंद के लिए मारामारी शुरू  हो जाती है। जानना जरूरी है कि नदी-तालाब- बावड़ी-जोहड़ आदि जल स्त्रोत नहीं है, ये केवल जल को सहेज रखने के खजाने हैं, जल स्त्रोत तो बारिश  ही है और जलवायु परिर्तन के कारण साल दर साल बारिश  का अनयिमित होना, बेसमय होना और अचानक तेज  गति से होना घटित होगा ही। आंकडों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विषय  यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश  के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं।


यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ‘‘औसत से कम’’ पानी बरसा या बरसेगा, अब क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि  करती है। असल में इस बात को लेाग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबंधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है।

जरा देश  की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिषत है। हमें हर साल औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यह बात दीगर है कि हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित हो पाता है। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जा कर मिल जाता है और बेकार हो जाता है। जाहिर है कि बारिश  का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिश  में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य केश  क्राप ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिश  पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थेाड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान रोता दिखता है।

यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश  का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों को सम्मिलत जलग्रहण क्षेत्र 30.50 लाख वर्ग किलोमीटर है। भारतीय नदियों के माग से हर साल 1645 घन किलोलीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिषत है।  देश  के उत्तरी हिस्से में नदियो में पानी  का अस्सी फीसदी जून से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में  यह आंकडा 90 प्रतिषत का है। जाहिर है कि शेष  आठ महीनों में पानी की जुगाड़ ना तो बारिश  से होती है और ना ही नदियों से।

दुखद है कि बरसात की हर बूंद को सारे साल जमा करने वाली गांव-कस्बे की छोटी नदियां बढ़ती गरमी, घटती बरसात और जल संसाधनों की नैसर्गिकता से लगातार छेड़छाड़ के चलते या तो लुप्त हो गई या गंदे पानी के निस्तार का नाला बना दी गईं। देश  के चप्पे-चप्पे पर छितरे तालाब तो हमारा समाज पहले ही चट कर चुका है। कुएं तो बिसुरी बात हो गए । बाढ़-सुखाड़ के लिए बदनाम बिहार जैसे सूबे की 90 प्रतिषत नदियों में पानी नहीं बचा। गत तीन दषक के दौरान राज्य की 250 नदियों के लुप्त हो जाने की बात सरकारी महकमे स्वीकार करते हैं। सनद रहे बिहार में पानी के लिए हत्या का आंकड़ा देश  में सर्वाधिक हैं। अभी कुछ दषक पहले तक राज्य की बड़ी नदियां- कमला, बलान, फल्गू, घाघरा आदि कई-कई धाराओं में बहती थीं जो आज नदारद हैं। झारखंड के हालात कुछ अलग नहीं हैं, यहां भी 141 नदियों के गुम हो जाने की बात फाईलों में तो दर्ज हैं लेकिन  उनकी चिंता किसी को नहीं । राज्य की राजधानी  रंाची में करमा नदी देखते ही देखते अतिक्रमण के घेर में मर गई। हरमू और जुमार नदियों को नाला तो बना ही दिया है। यहां चतरा, देवघर, पाकुड़, पूर्वी सिंहभूम जैसे घने जंगल वाले जिलों में कुछ ही सालों में सात से 12 तक नदियों की जल धारा मर गई। नदियों की जीवनस्थल कहा जाने वाला उत्तराखंड हो या फिर दुनिया की सबसे ज्यादा बरसात के लिए मशहूर  मेघालय छोटी नदियों के साल-दर-साल लुप्त होने का सिलसिला जारी है।

 प्रकृति तो हर साल कम या ज्यादा , पानी से धरती को सींचती ही है लेकिन असल में हमने पानी को ले कर अपनी आदतें खराब कीं। जब कुंए से रस्सी डाल कर पानी खंीचना होता था या चापाकल चला कर पानी भरना होता था तो जितनी जरूरत होती थी, उतना ही जल उलींचा जाता था। घर में टोंटी वाले नल लगने और उसके बाद बिजली या डीजल पंप से चलने वाले ट्यूब वेल लगने के बाद तो एक गिलास पानी के लिए बटन दबाते ही दो बाल्टी पानी बर्बाद करने में हमारी आत्मा नहीं कांपती है। हमारी परंपरा पानी की हर बूंद को स्थानीय स्तर पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बांध, रेत निकालने, मलवा डालने, कूडा मिलाने जैसी गतिविधियों से बच कर, पारंपरिक जल स्त्रोतों- तालाब, कुएं, बावड़ी आदि के हालात सुधार कर, एक महीने की बारिश  के साथ सालभर के पानी की कमी से जूझने की रही है । अब कस्बाई लोग बीस रूपए में एक लीटर पानी खरीद कर पीने में संकोच नहीं करते हैं तो समाज का बड़ा वर्ग पानी के अभाव मंे कई बार षौच व स्नान से भी वंचित रह जाता है।

हम यह भूल जाते हैं कि प्रकृति जीवनदायी संपदा यानी पानी हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है और इस चक्र को गतिमान रखना हमारी जिम्मेदारी है। इस चक्र के थमने का अर्थ है हमारी जिंदगी का थम जाना। प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं उसे वापस भी हमें ही लौटाना होता है। इसके लिए जरूरी है कि विरासत में हमें जल को सहेजने के जो साधन मिले हैं उनको मूल रूप में जीवंत रखें। केवल बरसात ही जल संकट का निदान है। 

 

 

 

 

 

गुरुवार, 21 मार्च 2024

Burhanpur's water reservoirs are in danger

        खतरे में है बुरहानपुर के जल-भंडारे
                        पंकज चतुर्वेदी 

सतपुड़ा की सघन जंगलों वाली पहाड़ियों के भूगभ में धीरे-धरे पानी रिसता है, फिर यह पानी प्राकृतिक रूप से चूने से निर्मित नालियों के माध्यम से सूरंगनुमा नहरों में आता है और यह जल कुईयों में एकत्र हो जाता है, आम लेागों के उपयोग के लिए। अभी दो दषक पहले तक इस संरचना के माध्यम से लगभग चालीस हजार घरों तक बगैर किसी मोटर पंप के पाईप के जरिये पानी पहुंचा करता था। कुछ आधुनिकता की हवा, कुछ कोताही और कुछ पारंपरिक तकनीकी ज्ञान के बारे में अल्प सूचना; अपने तरीके की विष्व की एकमात्र ऐसी जल-प्रणली को अब अपने अस्तित्व के लिए जूझना पड़ रहा है। उस समाज से जूझना पड़ रहा है जोकि खुद पानी की एक-एक बूंद के लिए प्रकृति से जूझ रहा है। मुग़लकाल की बेहतरीन इंजीनियरिंग का यह नमूना मध्य प्रदेश में ताप्ती नदी के किनारे बसे बुरहानपुर शहर में है। पिछले साल इस संरचना का नाम विष्व विरासत के लिए भी यूनेस्को को भेजा गया था। उल्लेखनीय है कि ठीक इसी तरह की एक जल-प्रणाली कभी इरान में हुआ करती थी जो लापरवाही के कारण बीते दिनों की बात हो गई है। 



बुरहानपुर उन दिनों मुगलों की बड़ी छावनी था , ताप्ती नदी के पानी में पूरी  तरह  निर्भरता को तब के सूबेदार अब्दुल रहीम खान ने असुरक्षित माना और उनकी निगाह इस प्राकृतिक जल-स्त्रोत पर पड़ी। सन 1615 में फ़ारसी भूतत्ववेत्ता तबक़ुतुल अर्ज़ ने ताप्ती के मैदानी इलाक़े, जो सत्पदा पहाड़ियों के बीच स्थित है, के भूज़ल स्रोतों का अध्ययन किया और शहर में जलापूर्ति के लिए भूमिगत सुरंगें बिछाने का इंतज़ाम किया। कुल मिला कर ऐसी आठ प्रणालियां बनाई गई। आज इनमें से दो तो पूरी तरह समाप्त हो चुकी हैं। षेश रह गई प्रणालियों में से तीन से बुरहानपुर षहर और बकाया तीन का पानी पास के बहादुरपुर गाँव और राव रतन महल को जाता है। बुरहानपुर में अपनाई गई तकनीक मूलतः सतपुड़ा पहाड़ियों से भूमिगत रास्ते से ताप्ती तक जाने वाली पानी को भंडाराओं में जमा करने की थी। बुरहानपुर शहर से उत्तर-पश्चिम में चार जगहों पर इस पानी को रोकने का इंतज़ाम किया गया था। इनका नाम था मूल भंडारा, सुख भंडारा, चिंताहरण भंडारा और कुंडी या ख़ूनी भंडारा। इनसे पानी ज़मीन के अंदर बनी नालिकाओं/सुरंगों से भूमिगत भंडार, जिसे जाली करंज कहते हैं, में जमा होता है और फिर वहाँ से यह शहर तक पहुँचता है। मूल भंडारा और चिंताहरण का पानी बीच में एक जगह मिलता है और फिर ख़ूनी भंडारा की तरफ़ बढ़ जाता है। ख़ूनी भंडारा से आने वाला पानी जाली करंज में जाता है। ख़ूनी भंडारा से आने वाला पानी जब जाली करंज में आए, इससे ठीक पहले सुख भंडारा का पानी भी उससे आकर मिलता है। मुग़लकाल में जाली करंज का पानी मिट्टी की बनी पाइपों से शहर तक जाता था। जब अंग्रेज़ों का षासन आया तो उन्होंने  मिट्टी की जगह लोहे के पाइप लगवा दिए।

If we do not stop wastage of water, the country will become waterless.

 

22 मार्च विश्व जल दिवस

पानी की बर्बादी ना रोकी तो बेपानी हो जायगा देश

पंकज चतुर्वेदी



दिल्ली एनसीआर के कई  इलाकों को इस बात के लिए गर्व से प्रचारित किया जाता है कि वहां घरों में गंगा-वाटर आता है। ऐसे इलाकों में फ्लेट के दाम इस कारण अधिक होते हैं। जिस गंगा जल को घरों में एक बोतल में पवित्र निशानी के तौर पर पूजा-स्थान पर रखा जाता है, वह गंगा जल लाखों घरों में शौचालय  से ले कर  कपड़े धोने तक में इस्तेमाल होता है। “हर घर जल” जैसी यजनाओं के बावजूद सरकारी  दस्तावेज यह मानते हैं कि अब  भारत के कोई 360 जिलों में पानी की मारामारी  स्थाई डेरा  डाल चुकी है । एक तरफ बढ़ती गर्मी और दूसरी तरफ बढ़ती प्यास और खेतों के लिए अधिक पानी की जरूरत, इसके साथ ही साल-दर -साल  बरसात के दिनों में कमी अ जाहीर है कि पानी किसी कारखाने में बन नहीं सकता और हमारी जिम्मेदारी बन गई है कि पानी को किफायत से खर्च करें और झा मौका मिले इसे सहेज कर रखें।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का एक शोध चार साल पहले ही चेतावनी दे चुका था  कि सन 2030 तक हमारे धरती के तापमान में 0.5 से 1.2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि अवष्यंभावी है। साल-दर-साल बढ़ते तापमान का प्रभाव सन 2050 में 0.80 से 3.16 और सन 2080 तक 1.56 से 5.44 डिग्री हो सकता है। जान लें कि तापमान में एक डिग्री बढ़ौतरी का अर्थ है कि खेत में 360 किलो फसल प्रति हैक्टेयर की कमी आ जाना। इस तरह जलवायु परिवर्तन के चलते खेती के लिहाज से 310 जिलों को संवेदनशील  माना गया है।  इनमें से 109 जिले बेहद संवेदनशील हैं जहां आने वाले एक दशक में ही उपज घटने, पशु  धन से ले कर मुर्गी पालन व मछली उत्पाद तक कमी आने की संभावना है।

सामने दिख रहा है कि संकट अकेले पानी का ही नहीं है, असल संकट है पानी के प्रबंधन का। अलग-अलग किस्म का पानी, अलग-अलग इस्तेमाल के लिए कैसे छांटा जाए, इस बारे में तंत्र विकसित करना और सबसे बड़ी बात इसके लिए जागरूकता फैलाना अनिवाय है। खासकर ग्रामीण अञ्चल में यह बात समझाना जरूरी है कि भू गर्भ से उलीच कर निकाला जा रहा पानी अनंत नहीं हैं और यह एक बार समाप्त हुआ तो लौट कर आने वाला नहीं। भूजल की संपती का अर्थ है- बंजर और रेगिस्तान का विस्तार, साथ में भूकंप जैसी आपदा की संभावना का विस्तार । 

भारत में जिस साल कम बरसात  होती है, उस साल भी इतनी कृपा बरसती है कि सारे देश  की जरूरत पूरी हो सकती है , लेकिन हमारी असली समस्या बरसात की हर बूंद को रोक रखने के लिए हमारे पुरखों द्वारा बनाए तालाब-बावड़ी या नदियों की दुर्गति करना है। बारिश  का कुछ हिस्सा तो भाप बनकर उड़ जाता है और कुछ समुद्र में चला जाता है। हम यह भूल जाते हैं कि प्रकृति जीवनदायी संपदा यानी पानी हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है और इस चक्र को गतिमान रखना हमारी जिम्मेदारी है। इस चक्र के थमने का अर्थ है हमारी जिंदगी का थम जाना। प्रकृति के खजाने से हम जितना पानी लेते हैं उसे वापस भी हमें ही लौटाना होता है।

पानी के दुरुपयोग के बारे में एक नहीं, कई चौंकाने वाले तथ्य हैं जिसे जानकर लगेगा कि सचमुच अब हममें थोड़ा सा भी पानी नहीं बचा है। कुछ तथ्य इस प्रकार हैं-मुंबई में रोज गाड़ियां धोने में ही 50 लाख लीटर पानी खर्च हो जाता है। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में पाइपलाइनों के वॉल्व की खराबी के कारण 17 से 44 प्रतिशत पानी प्रतिदिन बेकार बह जाता है। ब्रह्मपुत्र नदी का प्रतिदिन 2.16 घन मीटर पानी बंगाल की खाड़ी में चला जाता है। भारत में हर वर्ष बाढ़ के कारण करीब हजारों मौतें व अरबों का नुकसान होता है। इजरायल में औसत बारिश  10 सेंटीमीटर है , इसके बावजूद वह इतना अनाज पैदा कर लेता है कि वह उसका निर्यात करता है। दूसरी ओर भारत में औसतन 50 सेंटीमीटर से भी अधिक वर्षा होने के बावजूद सिंचाई के लिए जरूरी जल की कमी बनी रहती है।

 

यह भी कडवा सच है कि हमारे देश  में महिलाओं को  पीने के पानी की जुगाड़ के लिए हर रोज ही औसतन साढ़े पाँच किलोमीटर पैदल चलन पड़ता  हैं। पानीजन्य रोगों से विश्व में हर वर्ष 22 लाख लोगों की मौत हो जाती है। पूरी पृथ्वी पर एक अरब 40 घन किलोलीटर पानी है। इसमें से 97.5 प्रतिशत पानी समुद्र में है जोकि खारा है, शेष 1.5 प्रतिशत पानी बर्फ के रूप में ध्रुवीय क्षेत्रों में है। बचा एक प्रतिशत पानी नदी, सरोवर, कुआं, झरना और झीलों में है जो पीने के लायक है। इस एक प्रतिशत पानी का 60वां हिस्सा खेती और उद्योगों में खपत होता है। बाकी का 40वां हिस्सा हम पीने, भोजन बनाने, नहाने, कपड़े धोने एवं साफ-सफाई में खर्च करते हैं।

यदि ब्रश करते समय नल खुला रह गया है तो पांच मिनट में करीब 25 से 30 लीटर पानी बरबाद होता है। बॉथ टब में नहाते समय धनिक वर्ग 300 से 500 लीटर पानी गटर में बहा देते हैं। मध्यम वर्ग भी इस मामले में पीछे नहीं हैं जो नहाते समय 100 से 150 पानी लीटर बरबाद कर देता है। हमारे समाज में पानी बरबाद करने की राजसी प्रवृत्ति है जिस पर अभी तक अंकुश लगाने की कोई कोशिश नहीं हुई है।

यदि अभी पानी को सहेजने और किफायती इस्तेमाल पर काम नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब सरकार की हर घर नल जैसी योजनाएं जल-स्त्रोत ना होने के कारण रीती दिखेंगी। चप्पे-चप्पे पर झेल-तालाबों के लिए मशहूर बैंगलुरु का उदाहरण सामने हैं जहां गर्मी शुरू होने से पहले ही पानी की राशनिंग  हो रही है ।  जान लें, पानी की कमी, मांग में वृद्धि तो साल-दर-साल ऐसी ही रहेगी। अब मानव को ही बरसात की हर बूंद को सहेजने और उसे किफायत से खर्च करने पर विचार करना होगा। इसमें अन्न की बर्बादी सबसे बड़ा मसला है- जितना अन्न बर्बाद होता है, उतना ही पानी जाया होता है।

 

बुधवार, 20 मार्च 2024

22 March Save the Traditional water recourses

 

22 मार्च विश्व  जल दिवस पर विषेश
                                पानी बचाना है तो बचांए पारंपरिक जल-प्रणालियां
                                                पंकज चतुर्वेदी

कोई साल बारिश का रूठ जाना तो कभी ज्यादा ही बरस जाना हमारे देश  के लिए नियति है। थोड़ा ज्यादा बरसात हो जाए तो उसके समेटने के साधन नहीं बचते और कम बरस जाए तो ऐसा रिजर्व स्टॉक नहीं दिखता जिससे काम चलाया जा सके। अनुभवों से यह तो स्पष्ट है कि भारीभरकम बजट, राहत, नलकूप जैसे षब्द जल संकट का निदान नहीं है। करोड़ों-अरबों की लागत से बने बंाध सौ साल भी नहीं चलते, जबकि हमारे पारंपरिक ज्ञान से बनी जल संरचनांए  ढेर सारी उपेक्षा, बेपतवाही के बावजूद आज भी पानीदार हैं। जलवायु परिवर्तन के खतरे के सामने आधुनिक इंजीनियरिंग  बेबस है । यदि भारत का ग्रामीण जीवन और खेती बचाना है तो बारिष की हर बूंद को सहेजने के अलावा और कोई चारा नहीं है। यही हमारे पुरखों की रीत भी थी।

बुंदेलखंड में करोड़ों के राहत पैकेज के बाद भी पानी की किल्लत के चलते निराशा , पलायन व बेबसी का आलम है। देश के बहुत बड़े हिस्से के लिए अल्प वर्शा नई बात नही है और ना ही वहां के समाज के लिए कम पानी में गुजारा करना, लेकिन बीते पांच दषक के दौरान आधुनिकता की आंधी में दफन हो गए हजारों चंदेल-बुंदेला कालीन  तालाबों  और पारंपरिक जल प्रणालियों के चलते यह हालात बने।

मप्र के बुरहानपुर शहर की आबादी तीन लाख के आसपास है। निमाड़ का यह इलाका पानी की कमी के कारण कुख्यात है , लेकिन आज भी शहर में कोई अठारह लाख लीट पानी प्रतिदिन एक ऐसी प्रणाली के माध्यम से वितरित होता है जिसका निर्माण सन 1615 में किया गया था। यह प्रणाली जल संरक्षण और वितरण की दुनिया की अजूबी मिसाल है, जिसे ‘भंडारा’ कहा जाता है। सतपुड़ पहाड़ियों से एक-एक बूंद जल जमा करना और उसे नहरों के माध्यम से लोगों के घ्एरों तक पहुंचाने की यह व्यवस्था मुगल काल में फारसी जल-वैज्ञानिक तबकुतुल अर्ज ने तैयार की थी। समय की मार के चलते दो भंडारे पूरी तरह नष्ट हो गए हैं। सनद रहे कि हमारे पूर्वजांे ने देश -काल परिस्थिति के अनुसार बारिष को समेट कर रखने की कई प्रणालियां विकसित व संरक्षित की थीं, जिसमें तालाब सबसे लोकप्रिय थे। घरों की जरूरत यानि पेयजल व खाना बनाने के लिए मीठे पानी का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था। धनवान लोग सार्वजनिक कुएं बनवाते थे। हरियाणा से मालवा तक जोहड़ या खाल जमीन की नमी बरकरार रखने की प्राकृतिक संरचना हैं। ये आमतौर पर वर्शा-जल के बहाव क्षेत्र में पानी रोकने के प्राकृतिक या कृत्रिम बांध के साथ छोटा तालाब की मानिंद होता है। तेज ढलान पर तेज गति से पानी के बह जाने वाले भूस्थल में पानी की धारा को काटकर रोकने की पद्धति ‘‘पाट’’ पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय रही है। एक नहर या नाली के जरिये किसी पक्के बांध तक पानी ले जाने की प्रणाली ‘‘नाड़ा या बंधा’’ अब देखने को नहीं मिल रही है। कुंड और बावड़िया महज जल संरक्षण के साधन नहीं,बल्कि हमारी स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना रहे हैं।  आज जरूरत है कि ऐसी ही पारंपरिक प्रणालियों को पुनर्जीवित करने के लिए खास योजना बनाई जाए व इसकी जिम्मेदारी स्थानीय समाज की ही हो।

यह देश -दुनिया जब से है तब से पानी एक अनिवार्य जरूरत रही है और अल्प वर्शा, मरूस्थल, जैसी विशमताएं प्रकृति में विद्यमान रही हैं- यह तो बीते दो सौ साल में ही हुआ कि लोग भूख या पानी के कारण अपने पुष्तैनी घरों- पिंडों से पलायन कर गए। उसके पहले का समाज तो हर तरह की जल-विपदा का हल रखता था। अभी हमारे देखते-देखते ही घरों के आंगन, गांव के पनघट व कस्बों के सार्वजनिक स्थानों से कुएं गायब हुए हैं। बावड़ियों को हजम करने का काम भी आजादी के बाद ही हुआ।  हमारा आदि-समाज गर्मी के चार महीनों के लिए पानी जमा करना व उसे किफायत से खर्च करने को अपनी संस्कृति मानता था। वह अपने इलाके के मौसम, जलवायु चक्र, भूगर्भ, धरती-संरचना, पानी की मांग व आपूर्ति का गणित भी जानता थ। उसे पता था कि कब खेत को पानी चाहिए और कितना मवेशी  को और कितने में कंठ तर हो जाएगा। वह अपनी गाड़ी को साफ करने के लिए पाईप से पानी बहाने या हजामत के लिए चालीस लीटर पानी बहा देने वाली टोंटी का आदी नहीं था। भले ही आज उसे बीते जमाने की तकनीक कहा जाए, लेकिन आज भी देश  के कस्बे-षहर में बनने वाली जन योजनाओं में पानी की खपत व आवक का वह गणित कोई नहीं आंक पाता है जो हमारा पुराना समाज जानता था।

राजस्थान में तालाब, बावड़ियां, कुई और झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नगालेंड में जोबो तो लेह-लद्दाक में जिंग, महाराष्ट्र  में पैट, उत्तराखंड में गुल, हिमाचल प्रदेश  में कुल और और जम्मू में कुहाल कुछ ऐसे पारंपरिक जल-संवर्धन के सलीके थे जो आधुनिकता की आंधी में कहीं गुम हो गए और अब आज जब पाताल का पानी निकालने व नदियों पर बांध बनाने की जुगत अनुतीर्ण होती दिख रही हैं तो फिर उनकी याद आ रही है। गुजरात के कच्छ के रण में पारंपरिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिष की बूंदों के मीठे पानी को ‘विरदा’ के प्रयोग से संरक्षित करने की कला जानते थे। सनद रहे कि उस इलाके में बारिष भी बहुत कम होती है। हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाक में सुबह बरफ रहती है और दिन में धूप के कारण कुछ पानी बनता है जो षाम को बहता है। वहां के लोग जानते थे कि षाम को मिल रहे पानी को सुबह कैसे इस्तेमाल किया जाए।

तमिलनाडु में एक जल सरिता या धारा को कई कई तालाबों की श्रंखला में मोड़कर हर बूंद को बड़ी नदी व वहां से समुद्र में बेजा होने से रोकने की अनूठी परंपरा थी। उत्तरी अराकोट व चेंगलपेट जिले में पलार एनीकेट के जरिए इस ‘‘पद्धति तालाब’’ प्रणाली में 317 तालाब जुड़े हैं। रामनाथपुरम में तालाबों की अंतर्श्रखला भी विस्मयकारी है। पानी के कारण पलायन के लिए बदनाम बंुदेलखंड में भी पहाडी के नीचे तालाब, पहाडी पर हरियाली वाला जंगल और एक  तालाब के ‘‘ओने’’(अतिरिक्त जी की निकासी का मुंह) से नाली निकाल कर उसे उसके नीेचे धरातल पर बने दूसरे तालाब से जोड़ने व ऐसे पांच-पांच तालाबों की कतार बनाके की परंपरा 900वीं सदी में चंदेल राजाओं के काल से रही है। वहां तालाबों के आंतरिक जुड़ावों को तोड़ा गया, तालाब के बंधान फोड़े गए, तालाबों पर कालोनी या खेत के लिए कब्जे हुए, पहाड़ी फोड़ी गई, पेड़ उजाड़ दिए गए। इसके कारण जब जल देवता रूठे तो  पहले नल, फिर नलकूप के टोटके किए गए। सभी उपाय जब हताष रहे तो आज फिर तालाबों की याद आ रही है।

कागजों पर आंकडों में देखें तो हर जगह पानी दिखता है लेकिन हकीकत में पानी की एक-एक बूंद के लिए लोग पानी-पानी हो रहे हैं। जहां पानी है, वह इस्तेमाल के काबिल नहीं है। आज जलनिधि को बढ़ता खतरा बढ़ती आबादी से कतई नहीं है । खतरा है आबादी में बढ़ोतरी के साथ बढ़ रहे औद्योगिकप्रदुषण , दैनिक जीवन में बढ़ रहे रसायनों के प्रयोग और मौजूद जल संसाधनों के अनियोजित उपयोग से । यह दुखद है कि जिस जल के बगैर एक दिन भी रहना मुश्किल  है, उसे गंदा करने में हम-हमारा समाज बड़ा बेरहम है। यह जान लेना जरूरी है कि धरती पर इंसान का अस्तित्व बनाए रखने के लिए पानी जरूरी है तो पानी को बचाए रखने के लिए बारिष का संरक्षण ही एकमात्र उपाय है।  यदि देश  की महज पांच प्रतिषत जमीन पर पांच मीटर औसत गहराई में  बारिष का पानी जमा किया जाए तो पांच सौ लाख हैक्टर पानी की खेती की जा सकती है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति पूरे देश  में दिया जा सकता है।  और इस तरह पानी जुटाने के लिए जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारंपरिक जल प्रणालियों को खेाजा जाए, उन्हें सहेजने वाले, संचालित करने वाले समाज को सम्मान दिया जाए और एक बार फिर समाज को ‘‘पानीदार’’ बनाया जाए। यहां ध्यान रखना जरूरी है कि आंचलिक क्षेत्र की पारंपरिक प्रणालियों को आज के इंजीनियर शायद स्वीकार ही नहीं पाएं सो जरूरी है कि इसके लिए समाज को ही आगे किया जाए।

सन 1944 में गठित ‘फेमिन इनक्वायरी कमीशन’ ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे । कमीशन की रिर्पाट तो लाल बस्ते में कहीं दब गई  और देश  की आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा करना शुरू कर दिया । यदि देश  की महज पांच प्रतिशत जमीन पर पांच मीटर औसत गहराई में  बारिष का पानी जमा किया जाए तो पांच सौ लाख हैक्टर पानी की खेती की जा सकती है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति पूरे देश  में दिया जा सकता है।  और इस तरह पानी जुटाने के लिए जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारंपरिक जल प्रणालियों को खेाजा जाए, उन्हें सहेजने वाले, संचालित करने वाले समाज को सम्मान दिया जाए और एक बार फिर समाज को ‘‘पानीदार’’ बनाया जाए।

सनद रहे कि हमारे पूर्वजांे ने देश -काल परिस्थिति के अनुसार बारिश  को समेट कर रखने की कई प्रणालियां विकसित व संरक्षित की थीं, जिसमें तालाब सबसे लोकप्रिय थे। घरों की जरूरत यानि पेयजल व खाना बनाने के लिए मीठे पानी का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था। धनवान लोग सार्वजनिक कुएं बनवाते थे। जल संचयन के स्थानीय व छोटे प्रयोगों से जल संरक्षण में स्थानीय लोगों की भूमिका व जागरूकता दोनों बढे़गेी, साथ ही इससे भूजल का रिचार्ज तो होगा ही जो खेत व कारखानों में पानी की आपूर्ति को सुनिश्चित  करेगा।

 

 

 

शनिवार, 16 मार्च 2024

Why was the elephant not a companion?

 

 

हाथी क्यों न रहा साथी ?

                                                                   पंकज चतुर्वेदी



 

हाथियों और मानव के बीच बढ़ते संघर्ष को देखते हुए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय , प्रोजेक्ट एलीफैंट के तहत 22 राज्यों में जंगल से सटे गांवों को “अर्ली अलर्ट सिस्टम” से जोड़ने जा रहा है ताकि गांव के आसपास हाथियों की हलचल बढ़ने पर उन्हें सतर्क किया जा सके । उधर केरल सरकार ने वायनाड़ के आसपास हिंसक हाथियों के विरुद्ध जन आक्रोश को देखते हुए जानवरों के हमले को “राज्य विशेष आपदा” घोषित का दिया है । फिलहाल सरकार जो भी कदम उठा रही है , वह हाथियों के हिंसक होने के बाद मानवीय जिंदगी बचाने पर अधिक है लेकिन सोचना तो यह पड़ेगा कि आखिर घर-घर में पूजनीय हाथी की इंसान के प्रति नाराजी बढ़ क्यों रही है ?



 बीते एक महीने के दौरान में झारखंड और उससे सटे छत्तीसगढ़, बिहार और मध्य प्रदेश में कई ऐसी घटनाएँ हो चुकी हैं जब गुस्सैल हाथियों के झुण्ड ने गाँव या खेत पर हमला कर नुकसान किया और इनमें कम से कम दस लोग मारे जा चुके हैं .   यह स्थापित तथ्य है कि जब जंगल में हाथी का पेट नहीं भर पाता तो वह बस्ती की तरफ आता है. समझना होगा कि किसी भी वन के पर्यावरणीय तंत्र में हाथी एक अहम् कड़ी है और उसके बैचेन रहने का असर  समूचे परिवेश पर पड़ता है, फिर वह हरियाली हो या जल निधियां या फिर बाघ या तेंदुए .  बीते कुछ सालों में हाथी के पैरों टेल कुचल कर मरने वाले इंसानों की संख्या बढती जा रही है . सन 2018 -19 में 457 लोगों की मौत हाथी के गुस्से से हुई तो  सन 19-20 में यह आंकडा 586 हो गया . वर्ष 2020-21 में मरने वालों की संख्या 464, 21-22 में 545 और बीते साल 22-23 में 605 लोग मारे गए . केरल के वायनाड जिले, जहां 36 फ़ीसदी जंगल है , पिछले साल हाथी- इंसान  के टकराव की 4193 घटनाएं हुई और इनमें 27 लोग मारे गए .  देश में उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, असं, केरल, कर्णाटक सही 16 राज्यों में बिगडैल हाथियों के कारण इन्सान से टकराव बढ़ रहा है. इस झगड़े में हाथी भी मारे जाते हैं .

पिछले  तीन सालों के दौरान लगभग  300 हाथी मारे गए हैं. कहने को और भले ही हम कहें कि हाथी उनके गांव-घर में घुस रहा है, हकीकत यही है कि प्राकृतिक संसाधनों के सिमटने के चलते भूखा-प्यासा हाथी अपने ही पारंपरिक इलाकों में जाता है. दुखद है कि वहां अब बस्ती, सड़क  का जंजाल है. ‘द क्रिटिकल नीड आफ एलेफेंट ’ उब्लूडब्लूएफ-इंडिया की  रिपोर्ट बताती है कि  दुनिया में इस समय कोई 50 हजार हाथी बचे हैं इनमें से साठ फीसदी का आसरा  भारत है.  देश  के 14 राज्यों में 32 स्थान हाथियों के लिए संरक्षित हैं. यह समझना जरूरी है कि धरती पर इंसान का अस्तित्व तभी तक है जब तक जंगल हैं और जंगल में जितना जरूरी बाघ है उससे अधिक अनिवार्यता हाथी की है.

दुनियाभर में हाथियों को संरक्षित करने के लिए गठित आठ देशों के समूह में भारत शामिल हो गया है. भारत में इसे ‘राष्ट्रीय धरोहर पशु’ घोषित किया गया है. इसके बावजूद भारत में बीते दो दशकों के दौरान हाथियों की संख्या स्थिर हो गई हे. जिस देश में हाथी के सिर वाले गणेश को प्रत्येक शुभ कार्य से पहले पूजने की परंपरा है , वहां की बड़ी आबादी हाथियों से छुटकारा चाहती है . 

पिछले एक दशक के दौरान मध्य भारत में हाथी का प्राकृतिक पर्यावास कहलाने वाले झारखंड, छत्तीसगड़, उड़िया राज्यों में हाथियों के बेकाबू झुण्ड  के हाथों कई सौ इंसान मारे जा चुके हैं. धीरे-धीरे इंसान और हाथी के बीच के रण का दायरा विस्तार पाता जा रहा है. कभी हाथियों का सुरक्षित क्षेत्र कहलाने वाले असम में पिछले सात सालों में हाथी व इंसान के टकराव में 467 लोग मारे जा चुके हैं. झारखंड की ही तरह बंगाल व अन्य राज्यों में आए रोज हाथी को गुस्सा आ जाता है और वह खड़े खेत, घर, इंसान; जो भी रास्ते में आए कुचल कर रख देता है . दक्षिणी राज्यों  के जंगलों में गर्मी के मौसम में हर साल 20 से 30 हाथियों के निर्जीव शरीर संदिग्ध हालात में मिल रहे हैं .

जानना जरूरी है कि हाथियों केा 100 लीटर पानी और 200 किलो पत्ते, पेड़ की छाल आदि की खुराक जुटाने के लिए हर रोज 18 घंटेां तक भटकना पड़ता है . गौरतलब है कि हाथी दिखने में भले ही भारीभरकम हैं, लेकिन उसका मिजाज नाजुक और संवेदनशील होता है . थेाड़ी थकान या भूख उसे तोड़ कर रख देती है . ऐसे में थके जानवर के प्राकृतिक घर यानि जंगल को जब नुकसान पहुँचाया  जाता है तो मनुष्य से उसकी भिडंत  होती है . साल 2018 में पेरियार टाइगर कन्जर्वेशन फाउंडेशन  ने केरल में हाथियों के हिंसक होने पर एक अध्ययन किया था . रिपोर्ट में  पता चला कि जंगल में पारंपरिक पेड़ों को कट कर उनकी जगह नीलगिरी और बाबुल बोने से हाथियों का भोजन समाप्त हुआ और यही उनके गुस्से का कारण बना . पेड़ों की ये किस्म जमीन का पानी भी सोखती हैं सो हाथी के लिए पानी की कमी भी हुई .

वन पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता को सहेज कर रखने में गजराज की  महत्वपूर्ण भूमिका हैं.  पयार्वरण-मित्र पर्यटन और और प्राकृतिक आपदाओं के बारे में पूर्वानुमान में भी हाथी बेजोड़ हैं. अधिकांश संरक्षित क्षेत्रों में, आबादी हाथियों के आवास के पास रहते हैं और वन संसाधनों पर निर्भर हैं. तभी जंगल में मानव अतिक्रमण और खेतों में हाथियों की आवाजाही ने संघर्ष की स्थिति बनाई और तभी यह विशाल जानवर  खतरे है.

एक बात जान लें किसी भी जंगल के विस्तार में हाथी सबसे बड़ा ‘बीज-वाहक होता है. वह वनस्पति खाता है और उसकी लदी  भोजन करने के 60 किलोमीटर दूर तक जा कर करता है और उसकी लीद में उसके द्वारा खाई गई वनस्पति के बीज होते हैं.  हाथी की लीद  एक समृद्ध खाद होती है और उसमें  बीज भली-भांति  प्रस्फुटित होता है. जान लेें जगल का विस्तार और ारंपरिक वृक्षों का उन्नयन इसी तरह जीव-जंतुओं द्वारा  नैसर्गिक वाहन से ही होता हैं.

यही नहीं हाथी की लीद , कई तरह के पर्यावरण मित्र कीट-भृगों का भोजन भी होता है. ये कीट ना केवल  लीद को खाते हैं बल्कि उसे जमीन के नीचे दबा भी देते हैं जहां उनके लार्वा उसे खाते हैं. इस तरह से  कीट  कठोर जमीन को मुलायम कर देते है. और इस तरह वहां जंगल उपजने का अनुकूल परिवेष तैयार होता हैं.

घने जंगलों में जब हाथी ऊंचे पेड़ों से पत्ती तोड़ कर खाता है तो वह एक प्रकार से  सूरज की रोशनी नीचे तक आने का रास्ता भी बनाता है. फिर उसके चलने से जगह-जगह जमीन कोमल होती है और उस तरह जंगल की जैव विविधता को फलने-फूलने का मौका मिलता हैं.

हाथी भूमिगत या सूख चुके जल-साधनों को अपनी सूंड, भारीभरकम पैर व दांतों की मदद के खोदते हैं. इससे उन्हें तो पानी मिलता ही है, जंगल के अन्य जानवरों की भी प्यास बुझती हैं. कहना गलत ना होगा कि हाथी जंगल का पारिस्थितिकी तंत्र इंजीनियर है. उसके पद चिन्हों से कई छोटे जानवरों को सुरक्षित रास्ता मिलता है. हाथी कि विषाल पद चिन्हों में यदि पानी भर जाता है तो वहां मेंढक साहित कई छोटे जल-जीवों को आसरा मिल जाता हैं.

यह वैज्ञानिक तथ्य है कि जिस जंगल में यह विषालकाय शाकाहारी जीव का वास होता है वहां आमतौर पर शिकारी या जंगल कटाई करने वाले घुसने का साहस नहीं करते और तभी वहां हरियाली सुरक्षित रहती है और साथ में बाघ, तेंदुए, भालू जैसे जानवर भी  निरापद रहते हैं.

कई-कई सदियों से यह हाथी अपनी जरूरत के अनुरूप अपना स्थान बदला करता था . गजराज के आवागमन के इन रास्तों को ‘‘गज-गलियारा ’’ कहा गया . जब कभी पानी या भोजन का संकट होता है गजराज ऐसे रास्तों से दूसरे जंगलों की ओर जाता है जिनमें मानव बस्ती ना हो. देश  में हाथी के सुरक्षित कोरिडोर या गलियारे  की संख्या 88 हैं, इसमें 22 पूर्वोत्तर राज्यों , 20 केंद्रीय भारत और 20 दक्षिणी भारत में हैं. दरअसल, गजराज की सबसे बड़ी खूबी है उनकी याददाश्त. आवागमन के लिए वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी परंपरागत रास्तों का इस्तेमाल करते आए हैं.

बढ़ती आबादी के भोजन और आवास की कमी को पूरा करने के लिए जमकर जंगल काटे जा रहे हैं. उसे जब भूख लगती है और जंगल में कुछ मिलता नहीं या फिर जल-स्त्रोत सूखे मिलते हैं तो वे खेत या बस्ती की ओर आ जाते हैं . नदी-तालाबों में शुद्ध पानी के लिए यदि मछलियों की मौजूदगी जरूरी है तो वनों के पर्यांवरण को बचाने के लिए वहां हाथी अत्यावश्यक हैं . मानव आबादी के विस्तार, हाथियों के प्राकृतिक वास में कमी, जंगलों की कटाई और बेशकीमती दांतों का लालच; कुछ ऐसे कारण हैं जिनके कारण हाथी को निर्ममता से मारा जा रहा है . हाथी का जंगल में रहना कई  लुप्त हो रहे पेड़-पौधों, सुक्ष्म जीव, जंगली जानवरों और पंक्षियों के संरक्षण को सुनिश्चित  करता है.

कैसी विडंबना है कि हम तस्वीर वाले हाथी को  कमरों में सजावट के लिए इस्तेमाल करते हैं. हाथी  के मुंह वाले गणपति को  मांगलिक कार्यों मे ंसबसे पहले पूजते हैं लेकिन धरती पर इस खुबसूरत जानवर को नहीं देखना चाहते, उसके घर-रास्तों को भी नहीं छोड़ रहे.  जबकि हाथी मानव-अस्तित्व के लिए अनिवार्य हैं.

 

Have to get into the habit of holding water

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