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गुरुवार, 30 जनवरी 2014

‘दादा’ हटे तो जंगल कटे
पंकज चतुर्वेदी
यह बात तो स्वीकारनी होगी कि पिछले साल नवंबर में हुए विधानसभा चुनावों के कुछ पहले से बस्तर के आंचलिक क्षेत्रों तक जिस तरह केंद्रीय सुरक्षा बलों ने पैठ बनाई थी, उसके बाद वहां नक्सलवाद का असर बेहद कम हुआ है। दूसरी तरफ से आंध््रा प्रदेष व उडि़सा की सीमाओं से भी दवाब आया तो कई बड़े नक्सली नेताओं ने आत्मसमर्पण भी किया। इसके साथ ही संरक्षित वनों में रह रहे आदिवासियों को वन-ग्राम के पट्टे मिल गए। लेकिन यह बेहद दुखद है कि जंगलों से ‘लाल सलाम‘ का असर कम होते ही वहां के ‘ग्रीन गोल्ड’ का अंधाधुंध दोहन षुरू हो गया है। जनजातियों का जीवन यापन ही जंगलों पर निर्भर है और जब जंगल कटेंगे तो वहां के वाषिंदों का जनजीवन भी प्रभावित होगा।
बस्तर का इलाका, जो अब सात प्रषासनिक जिलों में विभाजित है, 39,060 वर्ग किलोमीटर में फैला है जो केरल राज्य से बड़ा है। बस्तर यानी बांस की तरी अर्थात बांस की घाटी में कभी बीस फीसदी बांस के ंजगल होते थे, जो स्थानीय जनजातियों के जीवकोपार्जन का बड़ा सहारा थे। इसके अलावा साल, सागौन, जापत्र सहित 15 प्रजातियों के बड़े पेड़ यहां के जंगलों की षान थ्ळो। सन 1956 से 1981 के बीच विभिन्न विकास योजनओं के नाम पर यहां के 125,483 हैक्टर जंगलों को नेस्तनाबूद किया गया। आज इलाके के कोई दो लाख चालीस हजार हैक्टर में सघन वन हैं, हालांकि यह जानना जरूरी है कि अबुझमाड़ के ओरछा और नारायणपुर तहसीलों के कोई छह सौ गांव-मजरों-टोलों में से बामुष्किल 134 का रिकार्ड षासन के पास है। अंग्रेजों के षासन के समय भी बस्तर के राजाओं ने इस इलाके का भूमि बंदोब्स्त यह कह कर नहीं किया था कि वहां का स्थानीय षासन आदिवासी कबीलों के पास ही रहेगा। यानी इतने बडे़ इलाके के साल-षीषम जंगलों का अता-पता सरकारी रिकार्ड में भी नहीं हैं। यह बात सरकार स्वीकारती है कि पिछले कुछ सालों में बस्तर इलाके में 12 हजार हेक्टर वन क्षेत्र में कमी आई है। सलवा जुड़ुम के प्रारंभ के बाद पेड़ो की कटाई ज्यादा हुई। वैसे तो यहां के घुप्प अंधेरे जंगलों की सघनता व क्षेत्रफल की तुलना में वन विभाग का अमला बेहद कम है, ऊपर से यहां जंगल-माफिया के हौंसले इतने बुलंद हैं कि आए रोज वन रक्षकों पर प्राणघातक हमले हारेते रहते हैं।
सनद रहे कि बस्तर जिले में गत एक वर्श के दौरान ग्रामीणों द्वारा बड़े पैमाने पर जंगलात की जमीन पर कब्जे किए गए। सरकार ने ग्रामीणों को वनाधिकार देने का कानून बनाया तो कतिपय असरदार लोग जल्द ही जमीन के पट्टे दिलवाने का लालच दे कर भोले -भाले ग्रामीणों को जगल पर कब्जा कर वहां सपाट मैदान बनाने के लिए उकसा रहे हैं। महज पांच सौ से हजार रूप्ए में ये आदिवासी  साल या षीषम की बड़ा सा पेड़ काट डालते हैं और जंगल माफिया इसे एक लाख रूपए तक में बेच देता है।  बस्तर वन मंडल में बोदल, नेतानार, नागलश्वर, कोलावाडा, मिलकुलवाड़ा वन- इलाकों में सदियों से रह रहे लोगों को लगभग 40 हजार एकड़ वन भूमि पर वनाधिकार के पट्टे बांटे जा चुके हैं। इसके बाद वन उजाड़ने की यहां होड़ लग गई है। कुछ लोगों को और जमीन के पट्टे का लोभ है तो कुछ खेती करने के लिए जंगल काट रहे हैं। इनसे मिली लकड़ी को जंगल से पार करवाने वाला गिरोह सीमावर्ती राज्यों- महाराश्ट्र, आंध््रा प्रदेष, उडि़सा, झारखंड और मध्यप्रदेष तक अपना सषक्त नेटवर्क रखता है।  चित्रकोट क्षेत्र के घने जंगलों में जहां लोग नक्सलियों के डर से जाने से भय खाते थे, आज बास्तानार, कोडेनार में निजी जमीन के पेड़ की कटाई का स्थानीय प्रमाण पत्र दे कर ट्रकों जंगल उजाड़ा जा रहा है। कुछ महीनों पहले नेतानार व बोदल के लकड़ी डिपो में कथित तौर पर आगजनी हुई थी व वन विभाग के कर्मचारियों ने इसे नक्सलियों की कारस्तानी बता कर खुद जंगलों में जाने से मुक्ति पा ली थी। हालांकि आम लेागों का कहना है कि यह सब वन माफिया व कर्मचारियों की मिली भगत ही था।
सुकमा में भी जलाऊ लकड़ी के लिए सूखे पेड़ो की टहनियां काटने के बहाने सागौन के पचास-पचास साल पुराने पेड़ ढहाए जा रहे हैं। यहां  वन-ग्राम के नाम पर लोगों को दी गई छूट, नक्सलियों के कम हुए डर व वन महकमे की गैरमौजूदगी के चलते आंध््रा प्रदेया से सटे किस्टावरम, बुर्कलंका, राजामुंडा, तोंगपाल, जबेली, पोलमपल्ली, कन्हईगुड़ा सहित पचास गांवों में अंधेरा होते ही छोटे वाहनों से सागौन को ढोया जाता है। छिंदगढ़ ब्लाक के पाकेला में सड़क निर्माण के लिए कुछ पेड़ों को काटने की अनुमति क्या मिली, एक साल में कई हजार पेड़ जड़ से उड़ा दिए गए। बलोदा बाजार के बादनवापारा अभ्यारण के कक्ष क्रमांक 145 में अचानक ही सागौन के पांच सौ पेड़ कट गए। संभागीय मुख्यालय जगदलपुर से सटे कावापाल, धूनपूंची, माचकोट, पुसपाल में हर सुबह कुछ ढूंढ जमीन से चिपके दिख जाते हैं। चुनाव के पहले केंद्रीय बलों की धमक के बीच कांकेर वन मंडल के उत्तरी कोंडागांव इलाके में बड्डेनार के पचास एकड़ इलाके का एक-एक पेड़ जड़ से उड़ा दिया गया।
पेड़ की कटाई अकेले जंगलों को ही नहीं उजाड़ रही है, वहां की जमीन और जल-सरिताओं पर भी उसका विपरीत असर पड़ रहा है । धरती पर जब पेड़-पौधों की पकड़ कमजोर होती है तब बरसात का पानी सीधा नंगी धरती पर पड़ता है और वहां की मिट्टी बहने लगती है । जमीन के समतल न होने के कारण पानी को जहां भी जगह मिलती है, मिट्टी काटते हुए वह बहता है । इस प्रक्रिया में नालियां बनती हैं और जो आगे चल कर गहरे होते हुए बीहड़ का रूप ले लेती है । बहती हुई मिट्टी नदी-नालों और झरनों को भी उथला करती हैं। बस्तर के जंगलों में महज इमारती लकड़ी ही नहीं है, यहां के नैसर्गिक वातावरण में कई सौ-हजार दुलर्भ जड़ीबूटियां भी हैं। यहां की जैव विविधता से खिलवाड़ आने वाली पीढि़यों के लिए अपूरणीय क्षति है।
बस्तर में इस समय बीएसएफ की कई टुकडि़यां हैं, सीआपीएफ पहले से है, लेकिन केंद्रीय बल स्थानीय बलों की मदद के बगैर असरकारी नहीं होते। जंगलों से नक्सलियों का खौफ कम करने में तो ये बल कारगर रहे हैं, लेकिन इसके बाद बैखौफ हो रहे जंगल-माफिया, स्थानीय आदिवासी समाज में वन व पर्यावरण के प्रति घटती जागरूकता और षहरी समाज में जैव विविधता के प्रति लापरवाही, नक्सलवाद से भी बड़े खतरे के रूप् में उभर रहा है। जरूरी है कि केंद्रीय बल जनहित के कार्यों की श्रंखला में जंगल-संरक्षण का कार्य भी करें।

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