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बुधवार, 19 मार्च 2014

भारत में अवैध विदेशी http://dailynewsnetwork.epapr.in/ 19 मार्च 2014

डेली न्‍यूज जयपुर 19 मार्च 2014                

कैसे बाहर हों बगैर बुलाए मेहमान
पंकज चतुर्वेदी
बीते दिनों हमारे सेना प्रमुख जनरल बिक्रम सिंह ने दिल्ली में ‘‘ बार्डर एंड मेनेजमंेट’’ विशय पर एक सेमीार को संबोधित करते हुए कहा कि अवैध बांग्लादेषियों का बैखौफ आगमन  देष की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है और इससे पूर्वोत्तर राज्यों में हालात खराब हो रहे हैं । उनकी भाषा, रहन-सहन और नकली दस्तावेज इस कदर हमारी जमीन से घुलमिल गए हैं कि उन्हें विदेशी सिद्ध करना लगभग नामुमकिन हो चुका है। जब - जब हमारेे पड़ोसी देषों में अषांति हुई, अंदरूनी मतभेद हुए या कोई प्राकृतिक विपदा आई ; वहां के लोग षरण लेने के लिए भारत में घुस आए । ये लोग आते तो दीन हीन याचक बन कर हैं, फिर अपने देषों को लौटने को राजी नहीं होते हैं । आजादी मिलने के बाद से ही हमारा देष ऐसे बिन बुलाए मेहमानों को झेल रहा है । ऐसे लोगो को बाहर खदेड़ने के लिए जब कोई बात हुई, सियासत व वोटों की छीना-झपटी में उलझ कर रह गई । देष की नागरिक पहचान पत्र परियोजना कहीं गफलत में हैं। गौरतलब है कि राजस्थान में ऐसे कई हिन्दु हैं जो कि पाकिस्तान से हमारे यहां आ कर अवैध रूप से रह रहे हैं और उनको ध्यान में रख कर सरकार अवैध प्रवासियों के बारे में किसी दौहरी नीति पर विचार कर रही है ।
आज जनसंख्या विस्फोट से देष की व्यवस्था लडखड़ा गई है । मूल नागरिकों के सामने भोजन, निवास, सफाई, रोजगार, षिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव दिनों -दिन गंभीर  होता जा रहा है । तब लगता है कि षरणार्थी बन कर आए या घुसपैठिये  करोड़ों विदेषियों को बाहर निकालना ही श्रैयस्कर होगा । हमारे देष में बसे विदेषियों का महज 10 फीसदी ही वैध है । षेश लोग कानून को धता बता कर भारतीयों के हक नाजायज तौर पर बांट रहे हैं । ये लोग यहां के बाषिंदों की रोटी तो छीन ही रहे हैं, देष के सामाजिक व आर्थिक समीकरण भी इनके कारण गड़बड़ा रहे हैं  । और अब तो देष के कई गंभीर अपराधों में विदेषियों के दिमाग होने से आंतरिक सुरक्षा को खतरा पैदा हो गया है ।
देष आजाद हुआ और 1948 तक कोई एक करोड़ षरणार्थी पाकिस्तान से भाग कर यहां आ गए । फिर चीन युद्ध के बाद दो लाख तिब्बती यहां आए । उपलब्ध रिकार्ड के मुताबिक महज 45 हजार 866 तिब्बितयों का ही हमारे यहां पंजीयन है । यह वास्तविक संख्या का एक चैथाई भी नहीं है । श्रीलंका से तमिलनाडु व अन्य दक्षिणी राज्यों में घुसपैठ भी पुरानी समस्या है । 1964-65 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर षास्त्री ने श्रीलंका सरकार के साथ एक करार किया था, जिसके मुताबिक 31 मार्च 1965 से 28 मार्च 1971 तक भारत आए लोगों को अपने देष लौट जाना चाहिए था । यह समझौता कागजों पर ही रह गया । 80 के दषक में श्रीलंका में उग्र हुए प्ृाृथक तमिल ईलम आंदोलन की हिंसा के बाद तो लाखों श्रीलंकाई भारत की सरहदों में घुस आए। हालांकि भारत सरकार का गृहमंत्रालय इस समय महज 8293 श्रीलंकाईयों के ही भारत में पंजीकृत होने के आंकड़े देता है । जबकि अकेले चैन्ने में ही 20 हजार से अधिक श्रीलंकाई विस्थापितों का होना वहां का प्रषासन भी स्वीकार करता है । अफगानिस्तान में तालिबानों  और उसके बाद अमेरिकी विमानों के कहर के बाद वहां के हजारों लोग हमारे यहां षरण पाए हुए है । इनमें कई सिख व हिंदू परिवार भी है जिन्हें भारतीय मूल का ही माना जाता है, जबकि उनकी नागरिकता अफगानिस्तान की है। जन कर आष्चर्य होगा कि अब अवैध प्रवासियों में अमेरिकियों की संख्या ज्यादा बढ़ रही है। सरकारी रिकार्ड के मुताबिक 5501 ऐसे अमेरिकी नागरिक हैं जो बाकायदा वीजा-पासपोर्ट से भारत आए और लौट के नहीं गए। ऐसे अवैध आप्रवासियों में 5048 पाकिस्तानी,4121 इराक के भी हैं। नाईजीरिया,सूडान व तंजानिया के क्रमषः2039,2008 व 1804 लोग भाारत की भीड़ में कहीं छुप गए। केंद्र सरकार के मुताबिक लगभग 74 हजार ऐसे अवैध निवासियों को हमारी महकमें तलाषने में नाकाबिल रहे हैं जो भारत में कहीं बसे हुए हैं।
लेकिन असलियत तो यह है कि आज कोई तीन करोड़ के करीब विदेषी हमारे यहां डटे हुए हैं । इसमें सबसे ज्यादा बांग्लादेषी व नेपाली हैं । नेपाल से तो हमारी सीमा खुली हुई है । चैकीदारी, घरेलू नौकरों व छोटे- मोटे कामों के लिए नेपाली देष के कोने-कोने में फैले हुए हैं । महानगरों की देह मंडियां इन दो देषों की बेबस ,किषोरियों से आबाद है । दिल्ली में नेपाली नौकरों की करतूतें भी सुनने मिलती रहती हैं । सनद रहे कि दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंदी विदेषी कैदियों में सबसे अधिक नेपाली ही हैं । नेपाल में बेहद गरीबी है और वहां से भारत आने के लिए किसी पासपोर्ट-वीजा की जरूरत नहीं है । तभी वहां के लोग रोजगार के लिए सहजता  से यहां आ जाते हैं । लेकिन ये धीरे से यहां के नागरिक बन कर देष की जनसंख्या बढ़ा देते हैं ।
1971 की लड़ाई के समय लगभग 70 लाख बांग्लादेषी(उस समय का पूर्वी पाकिस्तान) इधर आए थे । अलग देष बनने के बाद कुछ लाख लौटे भी । पर उसके बाद भुखमरी, बेरोजगारी के षिकार बांग्लादेषियों का हमारे यहां घुस आना अनवरत जारी रहा । पष्चिम बंगाल, असम, बिहार, त्रिपुरा  के सीमावर्ती  जिलों की आबादी हर साल बैतहाषा बढ़ रही है । नादिया जिला (प बंगाल) की आबादी 1981 में 29 लाख थी । 1986 में यह 45 लाख, 1995 में 60 लाख और आज 65 लाख को पार कर चुकी है । बिहार में पूर्णिया, किषनगंज, कटिहार, सहरसा आदि जिलों की जनसंख्या में अचानक वृद्धि का कारण वहां बांग्लादेषियों की अचानक आमद ही है ।
असम में 50 लाख से अधिक विदेषियों के होने पर सालों खूनी राजनीति हुई । वहां के मुख्यमंत्री भी इन नाजायज निवासियों की समस्या को स्वीकारते हैंे, पर इसे हल करने की बात पर चुप्पी छा जाती है । सुप्रीम कोर्ट के एक महत्वपूर्ण निर्णय के बाद विदेषी नागरिक पहचान कानून को लागू करने में राज्य सरकार का ढुलमुल रवैया राज्य में नए तनाव पैदा कर सकता है । अरूणाचल प्रदेष में मुस्लिम आबादी में बढ़ौतरी सालाना 135.01 प्रतिषत है, जबकि यहां की औसत वृद्धि 38.63 है । इसी तरह पष्चिम बंगाल की जनसंख्या बढ़ौतरी की दर औसतन 24 फीसदी के आसपास है, लेकिन मुस्लिम आबादी का विस्तार 37 प्रतिषत से अधिक है । यही हाल मणिपुर व त्रिपुरा का भी है । जाहिर है कि इसका मूल कारण बांग्लादेषियों का निर्बाध रूप से आना, यहां बसना और निवासी होने के कागजात हांसिल करना है । कोलकता में तो अवैध बांग्लादेषी बड़े स्मगलर और बदमाष बन कर व्यवस्था के सामने चुनौति बने हुए हैं ।
राजधानी दिल्ली में सीमापुरी हो या यमुना पुष्ते की कई किलोमीटर में फेैली हुई झुग्गियां, लाखेंा बांग्लादेषी डटे हुए हैं । ये भाशा, खनपान, वेषभूशा के कारण स्थानीय बंगालियों से घुलमिल जाते हैं । इनकी बड़ी संख्या इलाके में गंदगी, बिजली, पानी की चोरी ही नहीं, बल्कि डकैती, चोरी, जासूसी व हथियारों की तस्करी बैखौफ करते हैं । सीमावर्ती नोएडा व गाजियाबाद में भी इनका आतंक है । इन्हें खदेड़ने के कई अभियान चले । कुछ सौ लोग गाहे-बगाहे सीमा से दूसरी ओर ढकेले भी गए । लेकिन बांग्लादेष अपने ही लोगों को अपनाता नहीं है । फिर वे बगैर किसी दिक्कत के कुछ ही दिन बाद यहां लौट आते हैं । जान कर अचरज होगा कि बांग्लादेषी बदमाषों का नेटवर्क इतना सषक्त है कि वे चोरी के माल को हवाला के जरिए उस पार भेज देते हैं । दिल्ली व करीबी नगरों में इनकी आबादी 10 लाख से अधिक हैं । सभी नाजायज बाषिंदों के आका सभी सियासती पार्टियों में हैं । इसी लिए इन्हें खदेड़ने के हर बार के अभियानों की हफ्ते-दो हफ्ते में हवा निकल जाती है ।
सीमा सुरक्षा बल यानी बीएसएफ की मानें तो भारत-बांग्लादेष सीमा पर स्थित आठ चेक पोस्टों से हर रोज कोई 6400 लोग वैध कागजों के साथ सीमा पार करते हैं और इनमें से 4480 कभी वापिस नहीं जाते। औसतन हर साल 16 लाख बांग्लादेषी भारत की सीमा में आ कर यहीं के हो कर रह जाते हैं।सरकारी आंकड़ा है कि सन 2000 से 2009 के बीच कोई एक करोड़ 29 लाख बांग्लादेषी बाकायदा पासपोर्ट-वीजा ले कर भारत आए व वापिस नहीं गए। असम तो अवैध बांग्लादेषियों की  पसंदीदा जगह है। सन 1985 से अभी तक महज 3000 अवैध आप्रवासियों को ही वापिस भेजा जा सका है।  राज्य की अदालतों में अवैध निवासियों की पहचान और उन्हें वापिस भेजने के कोई 40 हजार मामले लंबित हैं। अवैध रूप से घुसने व रहने वाले स्थानीय लोगों में षादी करके यहां अपना समाज बना-बढ़ा रहे हैं।
1981 में तीस हजार अफगान षरणाथिंयों ने भारत में षरण ली थी । इनमें से आठ हजार संयुक्त राश्ट्र में पंजीकृत थे । बाद में 900 लोग जर्मनी चले गए । षेश दक्षिणी दिल्ली  के डिफेंस कालोनी, साउथ एक्सटंषन, जंगपुरा आदि में बस गए । कुछ ने जामा मस्जिद इलाके को अपना बसेरा बना लिया । तालीबान के कारण पलायन से पहले गृह मंत्रालय में महज 7962 अफगानी ही पंजीकृत थे । जबकि अनुमान है कि आज हमारे यहां बसे अफगानियों की संख्या 50 हजार के करीब हो गई है । चरस, हषीष, सोने की तस्करी के दर्जनों अपराध दिल्ली पुलिस की डायरी में अफगानियों के नाम दर्ज हैं । इसके अलावा 5911 मलेषिया के व 5800 ब्रिटिष नागरिकों के हमारे यहां होने का रिकार्ड है । वैसे षिक्षा व रोजगार के नाम पर कुछ दिनों के लिए यहां आ कर गुम हो जाने वालों में 105 देषेां के हजारों लोगों की फैहरिष्त है ।  सन 1990-91 में 9768 पाकिस्तानी भारत की सीमा में आ कर गुम हो गए । पिछले साल दो लाख 35 हजार 161 पाकिसतानी वैध वीसा पासपोर्ट के भारत आए पर निधार्रित अवधि खत्म होने के बाद वापिस गए दो लाख 25 हजार 791 । ईरान ,म्यांमार और पुर्तगाल के हजारों लोग हमारे देष में अवैध तरीके से आए और अब वैध दस्तावेज जुटा कर  यहां अपना हक जता रहे हैं ।
भारत में बस गए तीन करोड़ से अधिक विदेषियों के खाने -पीने, रहने, सार्वजनिक सेवाओं के उपयोग का खर्च न्यूनतम पच्चीस रूपए रोज भी लगाया जाए तो यह राषि सालाना किसी राज्य के कुल बजट के बराबर हो जाएगी । जाहिर है कि देष में उपलब्ध रोजगार के अवसर, सरकारी सबसिडी वाली सुविधाओं पर से इन बिन बुलाए मेहमानों का नाजायज कब्जा हटा दिया जाए तो भारत की मौजूदा गरीबी रेखा में खासा गिराव आएगा ।
इन घुसपैठियों की जहां भी बस्तियां होती हैं, वहां गंदगी और अनाचार का बोलबाला होता है । ये कुंठित लोग पलायन से उपजी अस्थिरता के कारण जीवन से निराष होते हैं । इन सबका विकृत असर हमारे सामाजिक परिवेष पर भी बड़ी गहराई से पड़ रहा है । हमारे पड़ोसी देषों से हमारे ताल्लुकात इन्हीं घुसपैठियों के कारण तनावपूर्ण भी हैं । इस तरह ये विदेषी हमारे सामाजिक, आर्थिक और अंतरराश्ट्रीय पहलुओं को आहत कर रहे हैं ।
दिनों -दिन गंभीर हो रही इस समस्या से निबटने के लिए सरकार तत्काल ही कोई अलग से महकमा बना ले तो बेहतर होगा, जिसमें प्रषासन, पुलिस के अलावा मानवाधिकार व स्वयंसेवी संस्थाओं के लेाग भी हों ं। साथ ही सीमा को चोरी -छिपे पार करने के रैक्ेट को तोड़ना होगा । वैसे तो हमारी सीमाएं बहुत बड़ी हैं, लेकिन यह अब किसी से छिपा नहीं हैं कि बांग्लादेष व पाकिस्तान सीमा पर मानव तस्करी का बाकायदा धंधा चल रहा है, जो कि सरकारी कारिंदों की मिलीभगत के बगैर संभव ही नहीं हैं ।
आमतौर पर विदेषियों को खदेड़ने की बातें सांप्रदायिक रंग ले लेती हैं । सबसे पहले तो इस समस्या को किसी जाति या संप्रदाय के विरूद्ध नहीं अपितु देष के लिए खतरे के रूप में लेने की सषक्त राजनैतिक इच्छा षक्ति का प्रदर्षन करना होगा । इस देष में देष का मुसलमान गर्व से और समान अधिकार से रहे, यह सुनिष्चित करने के बाद इस तथ्य पर आम सहमति बनाना जरूरी है कि ये बाहरी लोग हमारे संसाधनों पर डाका डाल रहे हैं और इनका किसी जातिविषेश से कोई लेना देना नहीं है ।
यहां बसे विदेषियों की पहचान और फिर उन्हें वापिस भेजना एक जटिल प्रक्रिया है । कोई भी देष अपने लोगों की वापिसी सहजता से नहीं करेगा । इस मामले में सियासती पार्टियों का संयम भी महति है । वर्ग विषेश के वोटों के लालच में इस सामाजिक समस्या को धर्म आधारित बना दिया जाता है । यदि सरकार में बैठे लोग ईमानदारी से इस दिषा में पहल करते है तो उन्हें चुनाव जीतने के लिए पाकिस्तान को कोसने, मंदिर-मस्जिद विवाद को उभारने की जरूरत नहीं पड़ेगी ।
पंकज चतुर्वेदी
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