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शनिवार, 27 दिसंबर 2014

homeless dying on the road in delhi

रहने को घर नहीं है,सारा जहां हमारा !

                                                             पंकज चतुर्वेदी

इन दिनों रात में हाड़-तोड़ ठंड पड़ रही है, जरा किसी रात दिल्ली की सड़कों पर चक्कर लगा कर देखें,- फुटपाथों और फ्लाई ओवरों की ओट में रात काटते हजारों लोग दिल्ली के खुशहाली के दावों की पोल खोलते दिखेंगे। षायद यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि देष की राजधानी दिल्ली में हर साल भूख, लाचारी, बीमारी से कोई तीन हजार ऐसे लोग गुमनामी की मौत मर जाते हैं, जिनके सिर पर कोई छत नहीं होती है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने सभी राज्य सरकारों को तत्काल बेघरों को आसरा मुहैया करवाने के लिए कदम उठाने के आदेष दिए हैं। इससे तीन साल पहले 30 नवंबर 2011 को दिल्ली हाई कोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ए. के सीकरी और राजीव सहाय एडला की पीठ ने दिल्ली सरकार को निर्देश दिया कि बेघर लोगों के लिए ‘नाईट-शेल्टर’ की कोई ठोस योजना तैयार कर अदालत में पेश की जाए। दोनों न्यायाधीशों ने यह निर्देश देते हुए यह भी लिखा था कि एक तरफ तो राज्य सरकार कहती है कि सरकारी रैनबसेरों में रहने को लोग नहीं आ रहे हैं, दूसरी ओर वे आए दिन देखते हैं कि लोग ठंड में रात बिताते रहे है। आज भी हालात जस के तस हैं। यह तस्वीर देश की राजधानी की है, जरा कल्पना करें सुदूर इलाकों में ये बेघर किस तरह ठंड के तीन महीने काटते होंगे।?
प्रजातंत्र लाईव 28 दिसंबर 14 http://www.readwhere.com/…/4048…/Prajatantra-Live/issue-223…

लोकतंत्र की प्राथमिकता में प्रत्येक नागरिक को ‘‘ रोटी-कपड़ा-मकान’’ मुहैया करवाने की बात होती रही है। जाहिर है कि मकान को इंसान की मूलभूत जरूरत में शुमार किया जाता है । लेकिन सरकार की नीतियां तो मूलभूत जरूरत ‘‘सिर पर छत’’ से कहीे दूर निकल चुकी हैं । आज मकान आवश्‍यकता से अधिक ‘रियल इस्टेट’’ का बाजार बन गया है और घर-जमीन जल्दी-जल्दी पैसा कमाने का जरिया । जमीन व उस पर मकान बनाने के खर्च किस तरह बढ़ रहे हैं, यह अलग जांच का मुद्दा है । लेकिन पिछले कुछ दिनों से राजधानी दिल्ली व कई अन्य नगरों में सांैदर्यीकरण के नाम पर लोगों को बेघरबार करने की जो मुहिम शुरू हुई हैं, वे भारतीय लोकतंत्र की मूल आत्मा के विरूद्ध है । एक तरफ जमीन की कमी व आवास का टोटा है तो दूसरी ओर सुंदर पांच सितारा होटल बनाने के लिए सरकार व निजी क्षेत्र सभी तत्पर हैं । कुल मिला कर बेघरों की बढ़ती संख्या आने वाले दिनों में कहीं बड़ी समस्या का रूप ले सकती है । एक तरफ झुग्गी बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है, दूसरी ओर उन्हें शहर से दूर खदेड़ा जा रहा है। जबकि उनकी रोजी-रोटी इस महानगर में है। इसी का परिणाम है कि हर रोज हजारों लोग कई किलोमीटर दूर अपने आषियाने तक जाने के बनिस्पत फुंटपाथ पर सोना बेहतर समझते हैं।
ना तो वे भिखारी हैं और ना ही चोर-उचक्के । उनमें से कई अपनी हुनर के उस्ताद हैं । फिर भी समाज की निगाह में वे अविश्‍वसनीय और संदिग्ध हैं । कारण उनके सिर पर छत नहीं है । सरकारी कोठियों में चाकचैबंद सुरक्षा के बीच रहने वाले हमारे खद्दरधारियों को शायद ही जानकारी हो कि राजधानी दिल्ली में हजारों ऐसे लोग हैं, जिनके सिर पर कोई छत नहीं है । यहां याद करें कि दिल्ली की एक -तिहाई से अधिक यानि 40 लाख के लगभग आबादी नरकनुमा झुग्गी बस्तियों में रहती है । इसके बावजूद ऐसे लोग भी बकाया रह गए हैं, जिन्हें झुग्गी भी मयस्सर नहीं है । ऐसे लोगों की सही-सही संख्या की जानकारी किसी भी सरकारी विभाग को नहीं है । जनसंख्या गणना के समय भी इन निराश्रितों को अलग से नहीं गिना गया या यों कहें कि उन्हें कहीं भी गिना ही नहीं गया । एक्षन एड आश्रय अधिकार अभियान नामक एक गैरसरकारी संगठन के मुताबिक दिल्ली की लगभग एक फीसदी यानी डेढ़ लाख आबादी खुले आसमान तले ठंड, गरमी, बरसात झेलती है। इनमें से 40 हजार ऐसे हैं जिन्हें तत्काल मकान की आवष्यकता है । इसके विपरीत सरकार द्वारा चलाए जा रहे 174 रैन बसेरों की बात करें तो उनकी क्षमता दो हजार भी नहीें है । विडंबना ही है कि सन 1985 से दिल्ली सरकार के बजट में हर साल 60 लाख रूपए का प्रावधान रैन बसेरों के लिए है और इस राशि का अधिकांश पैसा स्टाफ के वेतन, प्रशासन और रखरखाव में खर्च हो जाता है ।
जब लाखों लोगों के लिए झुग्गियों में जगह है तो ये क्यों आसमान तले सोते हैं ? यह सवाल करने वाले पुलिसवाले भी होते हैं । इस क्यों का जवाब होता है, पुरानी दिल्ली की पतली-संकरी गलियों में पुश्‍तों से थोक का व्यापार करने वाले कुशल व्यापारियों के पास । झुग्गी लेंगे तो कहीं दूर से आना होगा । फिर आने-जाने का खर्च बढ़ेगा, समय लगेगा और झुग्गी का किराया देना होगा सो अलग । राजधानी की सड़कों पर कई तरह के भारी ट्राफिक पर पाबंदी के बाद लाल किले के सामने फैले चांदनी चैाक से पहाड़ गंज तक के सीताराम बाजार और उससे आगे मुल्तानी ढ़ंाडा व चूना मंडी तक के थोक बाजार में सामान के आवागमन का जरिया मजदूरों के कंधे व रेहड़ी ही रह गए हैं । यह काम कभी देर रात होता है तो कभी अल्लसुबह । ऐसे में उन्हीं मजदूरों को काम मिलता है जो वहां तत्काल मिल जाएं । फिर यदि काम करने वाला दुकान का शटर बंद होने के बाद वहीं चबूतरे या फुटपाथ पर सोता हो तो बात ही क्या है ? मुफ्त का चैकीदार । अब सोने वाले को पैसा रखने की कोई सुरक्षित जगह तो है नहीे, यानि अपनी बचत भी सेठजी के पास  ही रखेगा । एक तो पूंजी जुट गई, साथ में मजदूर की जमानत भी हो गई ।
वेरानीक ड्यूपोंट के एक अन्य सर्वे से स्पष्‍ट होता है कि इन बेघरों में से 23.9 प्रतिशत लोग ठेला खींचते हैं व 19.8 की जीविका का साधन रिक्षा है । इसके अलावा ये रंगाई-पुताई, कैटरिंग, सामान की ढुलाई, कूड़ा बीनने, निर्माण कार्य में मजदूरी जैसे काम करते हैं । कुछ बेहतरीन सुनार, बढ़ई भी है । इनमें भिखारियों की संख्या 0.25 भी नहीं थी । ये सभी सुदूर राज्यों से काम की तलाष में यहां आए हुए है ।
दिल्ली में ऐसे लोगों के लिए 64 स्थाई रैन बसेरे बना रखे हैं,जबकि 46 प्रस्तावित हैं । इनमें से 10 को दिल्ली नगर निगम और षेश 15 को गैरसरकारी संस्थाएं संचालित कर रही हैं। पिछले साल भी कड़ाके की ठंड के दौरान अस्थाई रेनबसेरों को उजाड़ने का मामला हाई कोर्ट में गया था और ऐसे 84 केंद्रों को बंद करने पर अदालत ने रोक लगा दी थी। इसके बावजूद सरकार ने इनको संचालित करने वाले एनजीओ का अनुदान बदं कर दिया, यानी उन्हें बंद कर दिया । अब अदालत इस मसले पर भी सुनवाई कर रही है। इनमें से अधिकांष पुरानी दिल्ली इलाके में ही हैं । ठंड के दिनों में कुछ अस्थाई टैंट भी लगाए जाते हैं। सब कुछ मिला कर इनमें बामुष्किल दो हजार लोग आसरा पाते हैं। बांकी लोग पेट में घुटने मोड़ कर रात बिताने को मजबूर है।ं इसमें चादर-कंबल व शौचालय के इस्तेमाल का शुल्क शामिल है । सबसे दर्दनाक हालात एम्स व सफदरजंग अस्पताल के पास के हैं, वहां बीमार व उनके साथ आए तिमारदारों की संख्या हजारों में हे, जबकि एक रैनबसेरे की क्षमता बामुश्‍किल 80 है । लोग सारी रात भीगते दिखते हैं ओस व कोहरे में और नए बीमार अस्पताल की षरण में चले जाते हैं। मीना बाजार व जामा मस्जिद के रैन बसेरों में सात से आठ सौ लोगों के सोने की जगह है । फिलहाल जामा मस्जिद वाले रैन बसेरे को अवैध रूप से भारत में रह रहे बांग्लादेशियों की जेल के रूप में बदल दिया है । वहां की चादरों व कंबलों में जुएं व खटमल भरे हैं व शौचालय कितना गंदा रहता होगा, इस पर किसी को कोई आश्‍चर्य या दुख नहीं होता है ।
इन बेसहारा लेागों के नाम ना तो वोटर लिस्ट में हैं और ना ही इनके राशन कार्ड हैं, सो इनकी सुध लेने की परवाह किसी भी नेता को नहीं है । जाहिर है कि मजदूरी के भुगतान मे मालिक की धमक और शोषण को उन्हें चुपचाप नियति समझ कर सहना होता है । दिल्ली को आबाद रखने के लिए अपना खून-पसीना बहाने वाले इन लोगों में गंभीर रोग, संक्रमण, बच्चों का यौन शोषण आम बात है। आजादी के जश्‍न या गणतंत्र की वर्षगांठ मनाने के लिए हर साल ये लोग फुटपाथों से खदेड़े जाते हैं । यदि पुलिस पकड़ कर ले जाए तो इनमें से कई इसे अपना सौभाग्य मानते हैं । सनद रहे किसी भी संवेदनशील मौके पर पुलिस की सक्रियता का कागजी सबूत होता है, प्रतिबंधात्मक कार्यवाहियां । लावारिस या संदिग्ध हालत में घूमना यानि धारा 109, अशांति की आशंका पर 107,116, 151 के तहत कार्यवाही करने को गुड वर्क माना जाता है । और ऐसे में इन बेघरों से अच्छा शिकार कौन हो सकता है । अंदाज है कि आजादी के समारोह को निर्विघन निबटाने के लिए हर बार कोई 400 बेघरों को अंदर कर दिया जाता है ।
जेल, जलालत और अस्थाई रैनबसेरे इस समस्या के प्रति लापरवाही या आंखे फेर लेने से अधिक नहीं है । मानसिक रूप से अस्वस्थ या घर से भागे बच्चों का सड़कों पर लावारिस सोना-घूमना गैरकानूनी के साथ-साथ समाज के लिए खतरनाक है । कुशल कारीगरों व मेहनतकशों का मजबूरी में फुटपाथों पर सोना देष के लिए शर्मनाक है । प्राकृतिक आपदाओं, और रोजगार की तलाश में दूरस्थ अंचलों से दिल्ली आने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। विकास के नाम पर लोगों को उनकी पुश्‍तैनी जमीन से उजाड़ कर सड़क पर सोने को मजबूर करना मानवता के लिए धिक्कार है । आज आवश्‍यकता है ऐसी नीति की, जो लोकतंत्र में निहित मूलभूत आवष्यकताओं में से एक ‘मकान’ के लिए शहरी परिपेक्ष्य में सोच सके । रैनबसेरों के बनिस्पत हर एक को मकान की योजना ज्यादा कारगर होगी और इसके लिए जरूरी है कि हर एक बेघर का बाकायदा सर्वे हो कि कौन स्थाई तौर पर किसी स्थान पर बसने जा रहा है या फिर कुछ दिनों के लिए।

पंकज चतुर्वेदी
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