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बुधवार, 24 जून 2015

Flooded city with trusty mouth

जलजमाव : प्राकृतिक नहीं, मानवजन्य

Peoples Samachar MP 25-6-15
मानसून की पहली फुहार क्या गिरी, कुछ घंटे पानी क्या बरसा, दिल्ली से लेकर भोपाल तक, हर बार की तरह हर शहर पानी-पानी हो गया। दिल्ली से सटे गाजियाबाद, नोएडा, गुड़गांव जैसे शहरों के बडेÞ नाम घुटने-घुटने पानी में डूबते दिखे। रेगिस्तानी जोधपुर में सारा शहर उफनते दरिया की तरह हो गया। हरियाणा के भिवानी, सोनीपत से ले कर उप्र के महोबा जैसे शहर के लोग सड़कों पर भरे पानी की गहराई देखकर डर गए कि यदि कहीं तीन दिन बारिश हो गई तो उनका क्या होगा। कोलकता को तो पहली बारिश ने दरिया बना दिया है। इंदौर में नए बने बीआरटीएस में नाव चलने की नौबत आ गई। मप्र में कई शहर-कस्बों में बाढ़ के चलते दो लोग मर गए। गरमी से निजात पाने के लिए भगवान से जल्द पानी बरसाने की प्रार्थना करने वाले और बारिश के आगमन के बाद उसमें भीगने, मौसम का आनंद उठाने की कल्पना करने वाले लोग सड़कों पर जगह-जगह पानी भरने से ऐसे दो-चार हुए कि अब बारिश के नाम से ही डर रहे हैं।
पहली बारिश में मुंबई तो पूरा शहर ही दरिया बन गया। कल्पना करें कि अभी वहां कम से कम दो महीने की बरसात बाकी है। यह हालत केवल मुंबई, दिल्ली या कुछ महानगरों की नहीं है। कमोबेश देश के हर शहर का हाल थोड़ी-सी बरसात में ऐसा ही होता है- सड़कों पर पानी के साथ वाहनों का सैलाब जो या तो वहीं थम जाते हैं या फिर जैसे-तैसे पानी के नीचे छुपे गड्ढों में दुर्घटना की आशंका के साथ रेंगते हुए या फिर धक्के के सहारे आगे बढ़ते हैं। पूरी बारिश ऐसे दृश्यों का सिलसिला अनवरत चलता रहता है। और कुछ दिन बीतने के बाद फिर पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती जनता। पिछले कुछ सालों में देखा गया कि हरियाणा, पंजाब के तेजी से उभरते कई शहर- अंबाला, हिसार, कुरुक्षेत्र, लुधियाना आदि एक रात की बारिश में तैरने लगते हैं। रेल, बसें सभी कुछ बंद! अहमदाबाद, सूरत के हालात भी ठीक नहीं थे। पटना में गंगा तो नहीं उफनी पर शहर के वीआईपी इलाके घुटने-घुटने पानी में तर रहे। किसी भी शहर का नाम लें, कुछ न कुछ ऐसे ही हालात देखने-सुनने को मिल ही जाते हैं। विडंबना है कि शहर नियोजन के लिए गठित लंबे- चौड़े सरकारी अमले पानी के बहाव में शहरों के ठहरने पर खुद को असहाय पाते हैं। सारा दोष नालों की सफाई न होने, बढ़ती आबादी, घटते संसाधनों और पर्यावरण से छेड़छाड़ पर थोप देते हैं। वैसे इस बात का जवाब कोई नहीं दे पाता है कि नालों की सफाई सालभर क्यों नहीं होती और इसके लिए मई-जून का इंतजार क्यों होता है। इसके हल के सपने, नेताओं के वादे और पीड़ित जनता की जिंदगी नए सिरे से शुरू करने की हड़बड़ाहट सब कुछ भुला देती है। यह सभी जानते हैं कि दिल्ली में बने ढेर सारे पुलों के निचले सिरे, अंडरपास और सब-वे हलकी सी बरसात में जलभराव के स्थायी स्थल हैं, लेकिन कभी कोई यह जानने का प्रयास नहीं कर रहा है कि आखिर निर्माण की डिजाइन में कोई कमी है या फिर उसके रखरखाव में। ऐसा ही हाल दूसरे शहरों का है, जहां पानी की निकासी की मुकम्मल व्यवस्थाएं नहीं हैं, विशेषकर सड़कों के किनारे। शायद नियोजन के कर्ताधर्ता यह सोचते हैं कि पानी अपने आप रास्ता बना लेगा और बहकर निकल जाएगा। हर साल आने वाली इस समस्या के बावजूद कभी इस बात पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया कि सड़कों पर जमा होने वाले पानी को तत्काल वहां से निकालने की व्यवस्था की जाए। इसके लिए यदि पंचवर्षीय योजना भी बनाई जाती तो वह कब की पूरी हो चुकी होती। हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फलता- फूलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वह बस गई। और यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्जवल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़कर शहर की चकाचांैंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृत्ति का परिणाम है कि देश में शहरों की आबादी बढ़ती जा रही है। दिल्ली, कोलकाता, पटना जैसे महानगरों में जल निकासी की माकूल व्यवस्था न होना शहर में जलभराव का स्थायी कारण कहा जाता है। मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और 50 साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही हैं। बेंगलुरू में पारंपरिक तालाबों के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़छाड़ को बाढ़ का कारक माना जाता है। शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थायी निर्माणों को हटाने का करना होगा। यदि किसी पहाड़ी से पानी नीचे बहकर आ रहा है तो उसका संकलन किसी तालाब में ही होगा। विडंबना है कि ऐसे जोहड़-तालाब कांक्रीट की नदियों में खो गए हैं। परिणामत: थोड़ी ही बारिश में पानी कहीं बहने को बहकने लगता है। इन कांक्रीट की नदियों के बीच पानी की निकासी के लिए अन्य मूलभूत सुविधाओं की तरह कोई प्रावधान नहीं किया जाता। महानगरों में भूमिगत सीवर जलभराव का सबसे बड़ा कारण है। जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे हैं तो फिर खुले नालों से अपना काम क्यों नहीं चला पा रहे हैं? पोलिथीन, घर से निकलने वाले रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्रा, कुछ ऐसे कारण हैं जो कि गहरे सीवरों के दुश्मन हैं। इन कारणों से सीवर अक्सर जाम हो जाती हैं और गंदगी सड़कों पर बहने लगती है। सीवर को जाम होने से रोकने के प्रति जागरूकता पैदा करना भी जरूरी है, लेकिन इस ओर भी कभी कोई ध्यान नहीं दिया जाता। महानगरों में सीवरों और नालों की सफाई भ्रष्टाचार का बड़ा माध्यम है। यह कार्य किसी जिम्मेदार एजेंसी को सौंपना आवश्यक है, वरना आने वाले दिनों में महानगरों में कई-कई दिनों तक पानी भरने की समस्या उपजेगी, जो यातायात के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा होगी। दिल्ली में तो हाई कोर्ट लगभग हर साल नगर निगम को नालों की सफाई को लेकर फटकारता है, लेकिन जिम्मेदर अफसर इससे बेपरवाह रहते हैं। नदियों या समुद्र के किनारे बसे नगरों में तटीय क्षेत्रों में निर्माण कार्य पर पांबदी की सीमा का कड़ाई से पालन करना समय की मांग है। तटीय क्षेत्रों में अंधाधुंध निर्माण जल बहाव के मार्ग में बाधा होते हैं, जिससे बाढ़ की स्थिति बन जाती है। सीआरजेड कानून में तटों पर निर्माण, गंदगी आदि पर कड़े प्रावधान हैं, लेकिन सरकारी अमले कभी भी इन पर क्रियान्वयन की सोचते तक नहीं हैं। विभिन्न नदियों पर बांधे जा रहे बड़े बांधों के बारे में नए सिरे से विचार करना जरूरी है। गत वर्ष सूरत में आई बाढ़ हो या फिर उससे पिछले साल सूखाग्रस्त बुंदेलखंड के कई जिलों का जलप्लावन, यह स्पष्ट होता है कि कुछ
अधिक बारिश होने पर बांधों में क्षमता से अधिक पानी भर जाता है। ऐसे में बांधों का पानी दरवाजे खोलकर छोड़ना पड़ता है। अचानक छोड़े गए इस पानी से नदी का संतुलन गड़बड़ाता है और वह बस्ती की ओर दौड़ पड़ती है। सनद रहे, ठीक यही हाल दिल्ली में भी यमुना के साथ होता है। हरियाणा के बांधों में पानी अधिक होने पर जैसे ही पानी छोड़ा जाता है, राजधानी के पुश्तों के पास बनी बस्तियां जलमग्न हो जाती हैं। बांध बनाते समय उसकी अधिकतम क्षमता, अतिरिक्त पानी आने पर उसके अन्यत्र भंडारण के प्रावधान रखना शहरों को बाढ़ के खतरे से बचा सकता है। महानगरों में बाढ़ का मतलब है परिवहन और लोगों का आवागमन ठप होना। इस जाम से ईंधन की बर्बादी, प्रदूषण स्तर में वृद्धि और मानवीय स्वभाव में उग्रता जैसे कई दीर्घगामी दुष्परिणाम होते हैं। इसका स्थायी निदान तलाशने के विपरीत जब कहीं शहरों में बाढ़ आती है तो सरकार का पहला और अंतिम कदम राहत कार्य लगाना होता है, जो कि तात्कालिक सहानुभूतिदायक तो होता है, लेकिन बाढ़ के कारणों पर स्थायी रूप से रोक लगाने में अक्षम होता है। जल भराव और बाढ़ मानवजन्य समस्याएं हैं और इसका निदान दूरगामी योजनाओं से संभव है; यह बात शहरी नियोजनकर्ताओं को भलीभांति जान लेना चाहिए और इसी सिद्धांत पर भविष्य की योजनाएं बनाना चाहिए।
                                                                                                                                                                     (आलेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं) 
                                                                                                                                                                                       पंकज चतुर्वेदी

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