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बुधवार, 5 अगस्त 2015

THINK FOR ALTERNATIVE OF ATOMIC POWER FOR ELECTRICITY

6 अगस्त हीरोशिमा अणु बम की 70वी बरसी पर खास

कई फुकुशीमा  पनप रहे हैं भारत में!

पंकज चतुर्वेदी

 बीते कुछ सालों से मुल्क की सियासत के केंद्र में बिजली है - कहीं सस्ती या मुफ्त बिजली के वायदे हैं तो कहीं ज्यादा बिजी बिलों को ले कर तकरार। यूपीए-1 तो बिजली के लिए अमेरिका के साथ परमाणु समझौते को ले कर पूरी सरकार को दांव पर लगा चुका था। लेकिन बिजली की लालसा में लोग चार साल पहले जापान में आई सुनामी के बाद फुकुषिमा के परमाणु बिजली संयंत्र का रिसाव अकेले जापान ही नहीं आधा दर्जन देषों के अस्तित्व पर संकट बन गया था। उस समय सारी दुनिया में बहस चली थी कि परमाणु उर्जा कितनी उपयोगी और खतरनाक है। सभी ने माना था कि परमाणुु षक्ति को बिजली में बदलना षेर पर सवारी की तरह है- थोड़ा चूके तो काल का ग्रास बनना तय है। लेकिन विडंबना है कि भारत में देष के भाग्यविधात उन लाखों लोगों के प्रति बेखबर हैं जो कि देष का परमाणु-संपन्न बनाने की कीमत पीढि़यों से विकिरण की त्रासदी सह कर चुका रहे हैं। एटमी ताकत पाने के तीन प्रमुख पद हैं - यूरेनियम का खनन, उसका प्रसंस्करण और फिर विस्फोट या परीक्षण। लेकिन जिन लोगों की जान-माल की कीमत पर इस ताकत को  हासिल किया जा रहा है; वे नारकीय जीवन काट रहे हैं ?
परमाणु उर्जा से बनने वाली बिजली का उपभोग करने वाले नेता व अफसर तो दिल्ली या किसी शहर में सुविधा संपन्न जीवन जी रहे हैं , परंतु हजारों लोग ऐसे भी हैं जो इस जुनून की कीमत अपना जीवन दे कर चुका रहे हैं । जिस जमीन पर परमाणु ताकत का परीक्षण किया जाता रहा है, वहां के लोग पेट के खातिर अपने ही बच्चों को अरब देशों में बेच रहे हैं । जिन इलाकों में एटमी ताकत के लिए रेडियो एक्टिव तत्व तैयार किए जा रहे हैं, वहां की अगली पीढ़ी तक का जीवन अंधकार में दिख रहा है । जिस जमीन से परमाणु बम का मुख्य मसाला खोदा जा रहा है, वहां के बाशिंदे तो जैसे मौत का हर पल इंतजार ही करते हैं ।
PRABHAT MEERUT , 9-8-15
झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले के जादुगोड़ा में भारत की पहली और एकमात्र यूरेनियम की खान है । यहां से अयस्क का खनन किया जाता है और उसे परिशोधन के लिए हजार किमी दूर हैदराबाद भेजा जाता है । इस प्रक्रिया में शेष बचे जहरीले कचरे को एक बार फिर जादुगोड़ा ला कर आदिवासी गांवों के बीच दफनाया जाता है । यूरेनियम कारपोरेशन आफ इंडिया (यूसिल) लाख दावा करे कि खनन या कचरे का जन-जीवन पर कोई असर नहीं पड़ रहा है । पर हकीकत यह है कि पिछले तीन-चार सालों में यहां एक सैंकड़ा से अधिक असामयिक मौतें हुई हैं । खुद युसिल का रिकार्ड बताता है कि यूरेनियम खनन और उसके कचरे के निबटारे में लगे 21 लोग सन 1996 में मारे गए । ऐसे ही मरने वालों की संख्या 1995 में 14 और 1994 में 21 थी । ये सभी मौतें टीबी, ल्यूकेमिया, केंसर जैसी बीमारियों से हुई हैं और इसके मूल में रेडियो विकिरण ही था । उसके बाद कंपनी ने रिकार्ड को उजागर करना ही बंद कर दिया है, लेकिन गैरसरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि साल का अंक बढ़ने के साथ-साथ मौत के आंकड़े भी बढ़ रहे हैं।
सिंहभूम जिले के सिविल सर्जन ने विकिरण से प्रभावित कई लोगों की पहचान भी की है । इलाके के आदिवासी विकिरण-मुक्त जीवन के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं । पिछले कई सालों से आंदोलन, लाठीचार्ज, धरने, गिरफ््तारियां, उत्पीड़न यहां के बाशिंदों की नियति बन गया है । जब कोई मौत होती है तो गुस्सा भड़कता है । प्रशासन के आश्वासन मिलते हैं । ‘राष्ट्र गौरव’ की बेदी पर बलि होने के लिए एक बार फिर भूखे-मजबूर आदिवासियों की नई जमात खड़ी हो जाती है ।
रावतभाटा(राजस्थान) में परमाणु शक्ति से बिजली बनाने का संयत्र लगा है , लेकिन एटमी ताकत को बम में बदलने के लिए जरूरी तत्व जुटाने का भी यह मुख्य जरिया है । कुछ साल पहले गुजरात इंस्टीट्यूट आफ डेवलपमेंट रिसर्च ने रावतभाटा के आसपास 17 दिन तक विस्तृत अध्यन किया था । संस्था के लोगों ने कोई छह हजार घरों पर पड़ताल की थी । इन्होंने पाया कि रावतभाटा के करीबी गांवों में अन्य गांवों की तुलना में जन्मजात विकलांगता की दर तीन गुना अधिक है । गर्भपात, मरे हुए बच्चे पैदा होना, स्त्रियों में बांझपन आदि का प्रतिशत भी बहुत उंचा है । इस बिजली घर से पांच किमी दूर स्थित तमलाव गांव में बोन ट्यूमर, थायराइड ग्लैंड, सिस्टिक ट्यूमर जैसी बीमारियां हर घर की कहानी है । केंद्र के कर्मचारियों और वहां रहने वालों के बच्चे टेढ़े-मेढ़े हाथ-पांव और अविकसित अंग पैदाइशी होना आम बात हो गई है । यहां तक कि पशुओं की संख्या भी कम होती जा रही है । बकरियों में विकलांगता और गर्भपात की घटनाएं बढ़ी हैं ।
इस सर्वेक्षण में कई डाक्टर भी थे । उन्होंने स्पष्ट चेतावनी दी है कि विकिरण की थोड़ी सी मात्रा भी शरीर में परिवर्तन के लिए काफी होती है । विकिरण जीव कोशिकाओं को क्षति ग्रस्त करता है । इससे आनुवांशिकी कोशिकाओं में भी टूट-फूट होती है । आने वाली कई पीढि़यों तक अप्रत्याशित बीमारियों की संभावना बनी रहती है ।
शौर्य भूमि पोकरण में भव्य स्मृति स्थल बनाने के लिए करोड़ों का खर्चा करने के लिए आतुर संगठनों ने कभी यह जानने की जुर्रत नहीं की कि तपती मरूभूमि में जनजीवन होता कैसा है । परीक्षण-विस्फोट से डेढ़ सौ मकान पूरी तरह बिखर गए थे । साल भर के लिए पानी इकट्ठा रखने वाले ‘टांकों’ के टांके टूट गए । ऐवज में सरकार ने जो मुआवजा बांटा था उससे एक कमरा भी खड़ा नहीं होना था । धमाके के बाद जब इलाके में नाक से खून बहने और अन्य बीमारियों की खबरें छपीं तो खुद प्रधानमंत्री ने किसी भी तरह के विकिरण कुप्रभाव ना होने के बयान दिए थे । जबकि भूगर्भीय परीक्षण के बाद रेडियोधर्मी जहर के रिसाव की मात्रा और उसके असर पर कभी कोई जांच हुई ही नहीं है । राजस्थान विश्वविद्यालय के एक शोधकर्ता डा अग्रवाल ने पाया था कि 1974 में विस्फोट के बाद पोकरण व करीबी गांवों में केंसर के रोगियों की संख्या में बढ़ौतरी हुई है ।
पोकरण क्षेत्र सरकारी उपेक्षा का किस हद तक शिकार है, इसकी बानगी है कि यहां पेट पालने के लिए लोग अपने बच्चों को बेच रहे हैं । पोकरण और इसकी पड़ौसी पंचायत शिव के कोई एक दर्जन गांव-ढ़ाणियों से हर साल सैंकड़ों बच्चे ऊंट दौड़ के लिए खाड़ी देशों को जाते हैं । ये बच्चे 12 से 14 साल उम्र और 30-35 किलो वजन के होते हैं । इनका वजन नहीं बढ़े इसके लिए उन्हें खाना-पीना कम दिया जाता है । जेसलमेर जिले के भीखोडोई , फलसूंड , बंधेव , फूलोसर व राजमथाई और बाडमेर के उंडू , कानासर , आरंग , रतेउ ,केसुआ आदि गांवों के लड़के अरब देशों को गए हैं । ये गरीब मुसलमान , सुतार , राजपूत और जाट बिरादरी के हैं ।
अपने घरों के लिए पेट की जुगाड़ बने ये बच्चे जब विदेश से लौटे तो पैसा तो खूब लाए पर असामान्य हो गए । वे तुतलाने और हकलाने लगे । कई बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग हो गए । हर समस्या की तरह इस पर भी सरकार का तो यही कहना है कि इलाके से कोई बच्चा नहीं गया है । पर वास्तविकता को यी बात उजागर करती है कि अकेले पोकरण से हर साल 30 से 50 पासपोर्ट बन रहे हैं । जेसलमेर जिले में हर साल डेढ़ हजार पासपोर्ट बन रहे हैं ।
‘जय जवान-जय किसान’  के साथ ‘‘जय विज्ञान ’’ के नारे की प्रासंगिकता पोकरण  के इस पहलू से संदिग्ध हो जाती है । इस घोर रेगिस्तान में ना तो उद्योग-धंधे खुल सकते हैं और ना ही व्यापार की संभावनाएं हैं । ऊपर से एक तरफ प्रकृति की मार है तो दूसरी ओर ‘जय विज्ञान’ का आतंक । आखिर किस बात का गौरव है ?
यह विडंबना ही है कि भारत में इन तीनों स्तर पर जन-जीवन भगवान भरोसे है । षायद इस बात का आकलन किसी ने किया ही नहीं कि परमाणु ताकत से बिजली बना कर हम जो कुछ पैसा बचाएंगे या कमाएंगे; उसका बड़ा हिस्सा जन-स्वास्थ्य पर खर्च करना होगा या फिर इससे अधिक धन का हमारा मानव संसाधन बीमारियों की चपेट में होगा।
आने वाली पीढ़ी के लिए उर्जा के साधन जोड़ने के नाम पर एटमी ताकत की तारीफ करने वाले लोगों को यह जान लेना चाहिए कि क्षणिक भावनात्मक उत्तेजना से जनता को लंबे समय तक बरगलाया नहीं जा सकता है । यदि हमारे देश के बाशिंदे बीमार, कुपोषित और कमजोर होंगे तो लाख एटमी बिजली घर या बम भी हमें सर्वशक्तिमान नहीं बना सकते हैं ।

पंकज चतुर्वेदी


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