My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

Examination fobia has killed joy of learning



परीक्षा और सीखने की प्रक्रिया

क्या किसी बच्चे की योग्यता, क्षमता और बुद्धिमत्ता का पैमाना महज अंकों का प्रतिशत ही है? वह भी उस परीक्षा प्रणाली में, जिसकी स्वयं की योग्यता संदेहों से घिरी हुई है?
-
सीबीएसई बोर्ड के इम्तहान शुरू क्या हुए- बच्चे, पालक, शिक्षक सभी तनावग्रस्त हैं। किसी को बेहतर संस्थान में दाखिले की चिंता है तो किसी को अपने स्कूल का नाम रोशन करने की तो कोई समाज में अपने रुतबे के लिए बच्चे को सहारा बनाए है। कहने को तो सीबीएसई ने नंबर की जगह ग्रेड को लागू कर दिया है, लेकिन इससे उस संघर्ष का दायरा और बढ़ गया है जो बच्चों के आगे के दाखिले, भविष्य या जीवन को तय करते हैं।
याद करें, चार साल पहले के एनसीईआरटी और सीबीएसई के हवाले से कई समाचार छपे थे कि अब बच्चों को परीक्षा के भूत से मुक्ति मिल जाएगी। नई नीति के तहत अब ऐसी पुस्तकें बन गई हैं जिन्हें बच्चे मजे-मजे पढ़ेंगे। कुछ साल पहले घोषणा की गई थी कि दसवीं के बच्चों को अंक नहीं ग्रेड दिया जाएगा, लेकिन इस व्यवस्था से बच्चों पर दवाब में कोई कमी नहीं आई है। यह विचारणीय है कि जो शिक्षा बारह साल में बच्चों को अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना न सिखा सके, जो विषम परिस्थिति में अपना संतुलन बनाना न सिखा सके, वह कितनी प्रासंगिक व व्यावहारिक है?
ज्यादा नंबर लाने की होड़, दबाव, संघर्ष; और इसके बीच में पिसता किशोर! अभी-अभी बचपन की दहलीज छोड़ी है और पहला अनुभव ही इतना कटु? दुनिया क्या ऐसी ही गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा से चलती है? एक तरफ कॉलेजों में दाखिले की मारामारी होगी, तो दूसरी ओर हायर सैकेंडरी में अपनी पसंद के विषय लेने के लिए माकूल अंकों की दरकार का खेल। अब तो बोर्ड के इम्तहान से आगे की गलाकाट ज्यादा बड़ी हो गई है- हर एक बच्चा एआईइइइ, सीपीएमटी के अलावा अलग-अलग राज्यों के इंजीनियरिंग और मेडिकल के दाखिले की परीक्षा की तैयारी में भी लगा है। बीबीए (बैचलर आॅफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन) में दाखिला भी अलग परीक्षा से होना है। जाहिर है कि पाठ्यक्रम के दबाव के साथ-साथ अपने भविष्य और अपने पालकों के अरमानों के दबाव को झेलने के लिए सत्रह-अठारह साल की उमर कुछ कम होती है। नारों से दमकती शिक्षा नीति इस तरह की परीक्षा-प्रणालीसे सफलता की नहीं वरन असफल लोगों की जमात तैयार कर रही है।
क्या किसी बच्चे की योग्यता, क्षमता और बुद्धिमत्ता का पैमाना महज अंकों का प्रतिशत ही है? वह भी उस परीक्षा प्रणाली में, जिसकी स्वयं की योग्यता संदेहों से घिरी हुई है? सीबीएसई की कक्षा दस में पिछले साल दिल्ली में हिंदी में बहुत-से बच्चों के कम अंक रहे। जबकि हिंदी के मूल्यांकन की प्रणाली को गंभीरता से देखें तो वह बच्चों के साथ अन्याय ही है। कोई बच्चा हैजैसे शब्दों में बिंदी लगाने की गलती करता है, किसी को छोटी व बड़ी मात्रा की दिक्कत है।
कोई बच्चा ’, ‘और में भेद नहीं कर पाता है। स्पष्ट है कि यह बच्चे की महज एक गलती है, लेकिन मूल्यांकन के समय बच्चे ने जितनी बार एक ही गलती को किया है, उतनी ही बार उसके नंबर काट लिए गए। यानी मूल्यांकन का आधार बच्चे की योग्यता न होकर उसकी कमजोरी है। यह सरासर नकारात्मक सोच है, जिसके चलते बच्चों में आत्महत्या, पर्चे बेचने-खरीदने की प्रवृत्ति, नकल व झूठ का सहारा लेने जैसी बुरी आदतें विकसित हो रही हैं। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस नंबर-दौड़ में गुम होकर रह गया है।
छोटी कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया के लगातार नीरस होते जाने व बच्चों पर पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कम करने के इरादे से मार्च 1992 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देश के आठ शिक्षाविदों की एक समिति बनाई थी, जिसकी अगुआई प्रो यशपाल कर रहे थे। समिति ने देश भर की कई संस्थाओं और लोगों से संपर्क किया व जुलाई 1993 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। उसमें साफ लिखा गया था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है न समझ पाने का बोझ। सरकार ने सिफारिशों को स्वीकार भी कर लिया और एकबारगी लगा कि उन्हें लागू करने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं। फिर देश की राजनीति मंदिर-मस्जिद जैसे विवादों में ऐसी फंसी कि उस रिपोर्ट की सुध ही न रही।
चूंकि परीक्षा का वर्तमान स्वरूप आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है, अत: इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए। इसके विपरीत बीते एक दशक में कक्षा में अव्वल आने की गलाकाट होड़ में न जाने कितने बच्चे कुंठा का शिकार हो मौत को गले लगा चुके हैं। हायर सेकेंडरी के नतीजों के बाद ऐसे हादसे सारे देश में होते रहते हैं। अपने बच्चे को पहले नंबर पर लाने के लिए कक्षा एक-दो से ही अभिभावक युद्ध-सा लड़ने लगते हैं।
समिति की दूसरी सिफारिश पाठ्यपुस्तक के लेखन में शिक्षकों की भागीदारी बढ़ा कर उसे विकेंद्रित करने की थी। सभी स्कूलों को पाठ्यपुस्तकों और अन्य सामग्री के चुनाव सहित नवाचार के लिए बढ़ावा दिए जाने की बात भी इस रपट में थी। अब प्राइवेट स्कूलों को अपनी किताबें चुनने का हक तो मिल गया है, लेकिन यह व्यापार बन कर बच्चों के शोषण का जरिया बन गया है। पब्लिक स्कूल अधिक मुनाफा कमाने की फिराक में बच्चों का बस्ता भारी करते जा रहे हैं। सरकार बदलने के साथ किताबें बदलने का दौर एनसीईआरटी के साथ-साथ विभिन्न राज्यों के पाठ्यपुस्तक निगमों में भी जारी है। पाठ्यपुस्तकों को स्कूल की संपत्ति मानने व उन्हें बच्चों को रोज घर ले जाने की जगह स्कूल में ही रखने के सुझाव न जाने किस लाल बस्ते में बंध कर गुम हो गए। जबकि बच्चे बस्ते के बोझ, पाठ्यक्रम की अधिकता, अभिभावकों की अपेक्षाओं से कुंठित होते जा रहे हैं।
कुल मिलाकर परीक्षा व उसके परिणामों ने बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप ले लिया है। कहने को तो अंक-सूची पर प्रथम श्रेणी दर्ज है, लेकिन उनकी आगे की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूलों ने भी दरवाजों पर शर्तों की बाधाएं खड़ी कर दी हैं। सवाल यह है कि शिक्षा का उद्देश्य क्या है- परीक्षा में स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करना, विषयों की व्यावहारिक जानकारी देना या फिर एक अदद नौकरी पाने की कवायद?
निचली कक्षाओं में नामांकन बढ़ाने के लिए सर्वशिक्षा अभियान और ऐसी ही कई योजनाएं संचालित हैं। सरकार हर साल अपनी रिपोर्ट में ड्राप आउट’ (बीच में पढ़ाई छोड़ने) की बढ़ती संख्या पर चिंता जताती है। लेकिन कभी किसी ने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि अपनी पसंद के विषय या संस्था में प्रवेश न मिलने से कितनी प्रतिभाएं कुचल दी गई हैं। एमए और बीए की डिग्री पाने वालों में कितने ऐसे छात्र हैं जिन्होंने अपनी पसंद के विषय पढ़े हैं। विषय चुनने का हक बच्चों को नहीं बल्कि उस परीक्षक को है जो कि बच्चों की प्रतिभा का मूल्यांकन उनकी गलतियों की गणना के अनुसार कर रहा है।
वर्ष 1988 में लागू शिक्षा नीति (जिसकी चर्चा नई शिक्षा नीति के नाम से होती रही है) के 119 पृष्ठों के दस्तावेज से यह ध्वनि निकलती थी कि अवसरों की समानता दिलाने से शिक्षा में बुनियादी परिवर्तन आएगा। दस्तावेज में भी शिक्षा के उद््देश्यों पर विचार करते हुए स्रोतों की बात आ गई है। उसमें बार-बार आय-व्यय तथा बजट की ओर इशारे किए गए थे। सारांश यह है कि आर्थिक ढांचा पहले तय होगा, फिर शिक्षा का। कई बजट आए और औंधे मुंह गिरे। लेकिन देश की आर्थिक दशा और दिशा का निर्धारण नहीं हो पाया। सो शिक्षा में बदलाव का यह दस्तावेज भी किसी सरकारी दफ्तर की धूल से अटी फाइल की तरह कहीं गुमनामी के दिन काट रहा है।
हमारी सरकार ने शिक्षा विभाग को कभी गंभीरता से नहीं लिया। इसमें इतने प्रयोग हुए कि आम आदमी लगातार कुंद दिमाग होता गया। हम गुणात्मक दृष्टि से पीछे जाते रहे, मात्रात्मक वृद्वि भी नहीं हुई। कुल मिलाकर देखें तो शिक्षा प्रणाली का उद््देश्य और पाठ्यक्रम के लक्ष्य एक दूसरे में उलझ गए व एक गफलत की स्थिति बन गई। स्कूल एक पाठ्यक्रम को पूरा करने की जल्दी, कक्षा में ब्लैकबोर्ड, प्रश्नों को हल करने की जुगत में उलझ कर रह गया।
नई शिक्षा नीति को बनाने वाले एक बार फिर सरकार में हैं। शिक्षा की दिशा-दशा तय करने वाली प्रो यशपाल की टीम की एक बार फिर पूछ बढ़ गई है। क्या ये लोग अपने पुराने अनुभवों से कुछ सीखते हुए बच्चों की बौद्धिक क्षमता के विकास के लिए कारगर कदम उठाते हुए नंबरों की अंधी दौड़ पर विराम लगाने की सुध लेंगे?
यह भी गौरतलब है कि कक्षा बारहवीं की जिस परीक्षा को योग्यता का प्रमाणपत्र माना जा रहा है, उसे व्यावसायिक पाठ्यक्रम वाले महज एक कागज का टुकड़ा मानते हैं। इंजीनियरिंग, मेडिकल, चार्टर्ड एकाउंटेंट; जिस किसी भी कोर्स में दाखिला लेना हो, एक प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी। मामला यहीं नहीं रुकता, बच्चे को बारहवीं पास करने के एवज में मिला प्रमाणपत्र उसकी उच्च शिक्षा की गारंटी भी नहीं लेता। डिग्री कॉलेजों में भी ऊंचे नंबर पाने वालों की सूची तैयार होती है और अनुमान है कि हर साल हायर सेकंडरी (राज्य या केंद्रीय बोर्ड से) पास करने वाले बच्चों का चालीस फीसद आगे की पढ़ाई से वंचित रह जाता है। ऐसे में पूरी परीक्षा की प्रक्रिया और उसके बाद के नतीजों को बच्चों के नजरिए से तौलने-परखने का वक्त आ गया है।
-

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Have to get into the habit of holding water

  पानी को पकडने की आदत डालना होगी पंकज चतुर्वेदी इस बार भी अनुमान है कि मानसून की कृपा देश   पर बनी रहेगी , ऐसा बीते दो साल भी हुआ उसके ...