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शनिवार, 26 मार्च 2016

Enviorenment , society and Government



राजनीतिः पर्यावरण, समाज और सरकार

महाराष्ट्र के लातूर में पानी की कमी से पलायन, झगड़े व सरकारी टैंकरों की लूट जैसी अराजकता मची है। वहीं होली पर पानी की फिजूलखर्ची न करने के सरकारी आदेश पर कुछ लोग परंपरा का सवाल उठा कर वितंडा खड़ा करते रहे। दिवाली पर आतिशबाजी की हदबंदी के सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का किस कदर उल्लंघन होता है, छिपा नहीं है।


इन दिनों अमेरिका के कई राज्यों मे पतझड़ शुरू हो गया है। नियम है कि हर पेड़ से गिरने वाली प्रत्येक पत्ती और यहां तक कि सींक को भी उसी पेड़ को समर्पित किया जाता है। समाज के कुछ लोग पुराने पेड़ों के तनों की मर गई छाल को खरोंचते हैं और इसे भी पेड़ की जड़ों में दफना देते हैं। पेड़ों की पत्तियों को न जलाने और उन्हें जैविक खाद के रूप में संरक्षित करने के नियम व नारे तो हमारे यहां भी हैं, लेकिन उनका इस्तेमाल महज किसी को नीचा दिखाने या सबक सिखाने के लिए होता है। हम अभी तक पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का पाठ नहीं सीख पाए हैं। पर्यावरण रक्षा के नाम पर बस कानून की खानापूर्ति करते हैं, चाहे वह वाहनों का प्रदूषण परीक्षण हो या नदी-तालाब को सहेजने का अभियान।
पिछले साठ वर्षों में भारत में पानी के लिए कई भीषण संघर्ष हुए हैं, कभी दो राज्य नदी के जल बंटवारे पर भिड़ गए तो कहीं सार्वजनिक नल पर पानी भरने को लेकर हत्या हो गई। इन दिनों पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के बीच नदियों के पानी के बंटवारे को लेकर घमासान मचा हुआ है। खेतों में नहर से पानी देने को हुए विवादों में तो कई पुश्तैनी दुश्मनियों की नींव रखी हुई है। यह भी कड़वा सच है कि हमारे देश में बहुत-सी औरतें पीने के पानी के जुगाड़ के लिए हर रोज औसतन चार मील पैदल चलती हैं। दूषित जल-जनित रोगों से विश्व में हर वर्ष बाईस लाख लोगों की मौत हो जाती है। इसके बावजूद देश के हर गांव-शहर में कुएं, तालाब, बावड़ी, नदी या समुद्र तक को जब जिसने चाहा है दूषित किया है।
अब साबरमती नदी को ही लें, राज्य सरकार ने उसे बेहद सुंदर पर्यटन स्थल बना दिया, लेकिन इस सौंदर्यीकरण के फेर में नदी का पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही नष्ट कर दिया गया। नदी के पाट को एक चौथाई से भी कम कर दिया गया, उसके जलग्रहण क्षेत्र में पक्के निर्माण कर दिए गए। नदी का अपना पानी तो था नहीं, नर्मदा से एक नहर लाकर उसमें पानी भर दिया। अब वहां रोशनी है, चमक-धमक है, बीच में पानी भी दिखता है, लेकिन नहीं है तो नदी और उसके अभिन्न अंग, उसके जल-जीव, दलदली जमीन, जमीन की हरियाली व अन्य जैविक क्रियाएं।
सौंदर्यीकरण के नाम पर नदी की पूरी पारिस्थितिकी को नष्ट करने की कोशिशें महज नदी के साथ नहीं, हर छोटे-बड़े कस्बे के पारंपरिक तालाबों के साथ भी की गर्इं। हाल ही में इटावा के एक पुराने तालाब को सुंदर बनाने के नाम पर उसेसंकरा कर रंगीन टाइल्स लगाने की योजना पर काम चल रहा है। हो सकता है उससे कुछ दिनों के लिए शहर में रौनक आ जाए, लेकिन न तो उसमें पानी एकत्र होगा और न ही वहां एकत्र पानी से जमीन की प्यास बुझेगी। यह भी तय है कि ऐसे तालाब में बाहर से पानी भरना होगा। ऐसा ही पूरे देश के सरोवरों के साथ हुआ। तालाब के जलग्रहण व निकासी क्षेत्र में पक्के निर्माण कर उसका आमाप समेट दिया गया, बीच में कोई मंदिर किस्म की स्थायी आकृति बना दी गई व इसकी आड़ में आसपास की जमीन का व्यावसायिक इस्तेमाल होने लगा।
बलिया (उ.प्र.) का सुरहा ताल तो मशहूर है, लेकिन इसी जिले के एक कस्बे का नाम रत्सड़ इसमें मौजूद सैकड़ों निजी तालाबों के कारण पड़ा था, सर यानी सरोवर से सड़हुआ। हर घर का एक तालाब था, वहां लेकिन जैसे ही कस्बे को आधुनिकता की हवा लगी व घरों में नल लगे, फिर गुसलखाने आए, नालियां आर्इं, इन तालाबों को गंदगी डालने का नाबदान बना दिया गया। फिर तालाबों से बदबू आई तो उन्हें ढंक कर नई कॉलोनियां या दुकानें बनाने का बहाना तलाश लिया गया।
साल भर प्यास से तड़पने वाले बुंदेलखंड के छतरपुर शहर के किशोर सागर का मसला बानगी है कि तालाबों के प्रति सरकारी रुख कितना कोताही भरा है। कोई डेढ़ साल पहले एनजीटी (राष्ट्रीय हरित अधिकरण) के भोपाल पीठ ने सख्त आदेश दिया था कि इस तालाब पर कब्जा कर बनाए गए सभी निर्माण हटाए जाएं। अभी तक प्रशासन माप-जोख नहीं कर पाया है कि कहां से कहां तक व कितने अतिक्रमण को तोड़ा जाए।
गाजियाबाद में पारंपरिक तालाबों को बचाने के लिए एनजीटी के कई आदेश लाल बस्तों में धूल खा रहे हैं। छतरपुर में तालाब से अतिक्रमण हटाने का मामला लोगों को घर से उजाड़ने और निजी दुश्मनी में तब्दील हो चुका है। गाजियाबाद में तालाब के फर्श को सीमेंट से पोत कर उसमें टैंकर से पानी भरने के असफल प्रयास हो चुके हैं। अब हर शहर में कुछ लोग एनजीटी या आरटीआई के जरिये ऐसे मसले उठाते हैं और आम समाज उन्हें पर्यावरण रक्षक से ज्यादा कथित तौर पर दबाव बना कर पैसा वसूलने वाला समझता है। दिल्ली से सटे बागपत जिले में र्इंट के भट्ठों पर पाबंदी लगाने, हटाने, मुकदमा करने के नाम पर हर साल करोड़ों की वसूली होती है। र्इंट भट्ठा वाले और उनके खिलाफ अर्जियां देकर वसूली करने वाले और साथ ही प्रशासन भी यह नहीं सोचता कि इन भट्ठों के कारण जमीन और हवा को हो रहे नुकसान का खमियाजा हमारे समाज को ही भुगतना है।
पिछले दिनों यमुना के पर्यावरणीय तंत्र को जो नुकसान पहुंचाया गया, वह महज एक राजनीतिक विवाद बन कर रह गया। एक पक्ष यमुना के पहले से दूषित होने की बात कर रहा था तो दूसरा पक्ष बता रहा था कि पूरी प्रक्रिया में नियमों को तोड़ा गया। पहला पक्ष पूरे तंत्र को समझना नहीं चाहता तो दूसरा पक्ष समय रहते अदालत नहीं गया व ऐसे समय पर बात को उठाया गया जिसका उद््देश्य नदी की रक्षा से ज्यादा ऐन समय पर समस्याएं खड़ी करना था। लोग उदाहरण दे रहे हैं कुंभ व सिंहस्थ का। वहां भी लाखों लोग आते हैं, लेकिन सिंहस्थ, कुंभ या माघी जैसे मेले नदी के तट पर होते हैं, नदी तट हर समय नदी के बहाव से ऊंचा होता है और वह नदियों के सतत मार्ग बदलने की प्रक्रिया में विकसित होता है, रेतीला मैदान। जबकि किसी नदी का जलग्रहण क्षेत्र, जैसे कि दिल्ली में था, एक दलदली स्थान होता है जहां नदी अपने पूरे यौवन में होती है तो जल का विस्तार करती है। वहां भी धरती में कई लवण होते हैं, ऐसे छोटे जीवाणु होते हैं जो न केवल जल को शुद्ध करते हैं बल्कि मिट्टी की सेहत भी सुधारते हैं।
ऐसी बेशकीमती जमीन को जब लाखों पैर व मशीनें रौंद देती हैं तो वह मृत हो जाती है व उसके बंजर बनने की आशंका रहती है। नदी के जल का सबसे बड़ा संकट उसमें डीडीटी, मलाथियान जैसे रसायनों की मात्रा बढ़ना है। ये केवल पानी को जहरीला नहीं बनाते, बल्कि पानी की प्रतिरोधक क्षमता को भी नष्ट कर देते हैं। सनद रहे, पानी में अपने परिवेश के सामान्य मल, जल-जीवों के मृत अंश व सीमा में प्रदूषण को ठीक करने के गुण होते हैं, लेकिन जब नदी में डीडीटी जैसे रसायनों की मात्रा बढ़ जाती है तो उसकी यह क्षमता चुक जाती है। दिल्ली में मच्छरों से बचाव के लिए सैकड़ों टन रसायन नदी के भीतर छिड़का गया। वह तो भला हो एनजीटी का, वरना कई हजार लीटर कथित एंजाइम भी पानी में फैलाया जाता। अब कथित सफाई का दिखावा हो रहा है, जबकि जलग्रहण क्षेत्र में लगातार भारी वाहन चलने, सफाई के नाम पर गैंती-फावड़े चलाने से जमीन की ऊपरी नम सतह मर गई, उसके प्रति किसी की सोच ही नहीं बन रही है।
हो सकता है कुछ दिनों में वहां जमा कई टन कूड़ा, पानी की खाली बोतलें आदि साफ हो जाएं, लेकिन जिस नैसर्गिकता की सफाई हो गई, उसे लौटाना नामुमकिन है। हमारे पर्व-त्योहार मनाने के तरीके कैसे हों, इस पर भी हम अदालतों या सरकारी आदेशों पर निर्भर होते जा रहे हैं। इन दिनों भीषण सूखे से जूझ रहे महाराष्ट्र के लातूर में पानी की कमी से पलायन, झगड़े व सरकारी टैंकरों की लूट जैसी अराजकता मची है। वहीं होली पर पानी की फिजूलखर्ची न करने के सरकारी आदेश पर कुछ लोग परंपरा का सवाल उठा कर वितंडा खड़ा करते रहे। जबकि आज की होली में न तो पारंपरिक रंग हैं न ही भावना न ही सौहार्द, लेकिन पानी की किफायत की बात उठते ही लोग परंपरा की आड़ लेते हैं। दिवाली पर आतिशबाजी की हदबंदी के सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का हर साल किस कदर उल्लंघन होता है, किसी से छिपा नहीं है। असलियत यह है कि यदि किसी के घर में कोई बच्चा दमे या सांस की बीमारी का शिकार है तो उसे सुप्रीम कोर्ट का आदेश याद आ जाता है, वरना लोग ऐसे निर्देशों को धुएं में उड़ा देते हैं।
कुल मिलाकर हम अपने समाज को पर्यावरण और परंपराओं के प्रति न तो जागरूक बना पा रहे हैं और न ही प्रकृति पर हो रहे हमलों के प्रभावों को सुनना-समझना चाहते हैं। कुछ लोग एनजीटी या अदालतों में जाते हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो ऐसे आदेशों की आड़ में अपनी दुकान चलाते हैं, लेकिन ऐसे लोग बहुत कम हैं जो धरती को नष्ट करने में अपनी भूमिका के प्रति स्वत: सचेत या संवेदनशील होते हैं।

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