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मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

restoration of old water body is more important than new digging

तालाब बनाना ही नहीं सहेजना  भी जरूरी है

लगातार दूसरे महीने प्रधानमंत्री ने अपने ‘‘मन की बात’’ कार्यक्रम में तालाब बचाने, नए तालाब बनाने व पुराने तालाबों की मरम्म्त व संरक्षण पर जोर दिया है। इसके विपरीत हाल ही मंे उत्तर प्रदेष के इटावा की नगर पालिका ने वहां के एक पुराने तालाब को सुंदर बनाने के नाम पर उसके संकरा कर रंगीन नीली टाईल्स लगाने की योजना पर काम षुरू किया है। हो सकता है कि उससे कुछ दिनों शहर में रौनक आ जाए, लेकिन ना तो उसमें पानी एकत्र होगा और ना ही वहां एकत्र पानी से जमीन की प्यास बुझेगी। यह भी तय है कि ऐसे तालाब में बाहर से पानी भरना होगा। ऐसा ही पूरे देश के सरोवरों के साथ लगातार हो रहा है - तालाब के जलग्रहण व निकासी क्षेत्र में पक्के निर्माण कर उसका आमाप समेट दिया जाता है, सौंदर्यीकरण के नाम पर पानी के बीच में कोई मंदिर किस्म की स्थाई आकृति बना दी गई व इसकी आड़ में आसपास की जमीन का व्यावसायिक इस्तेमाल कर दिया गया। कभी एक हजार तालबों की धरती कहलाने वाले बुंदेलखंड के टीकमगढ जिले की साठ फीसदी जनता पानी की कमी के चलते पलायन कर चुकी है, लेकिन वहां का समाज अभी भी नहीं सुधरा। हाल ही में टीकमगढ षहर के बीस एकड़ वाले ब्रदावन तालाब का बंधान महज मिट्टी के लालच में फोड़ दिया गया।
बलिया का सुरहा ताल तो बहुत मषहूर है, लेकिन इसी जिले का एक कस्बे का नाम रत्सड़ इसमें मौजूद सैंकड़ों निजी तालाबों के कारण पड़ा था, सर यानि सरोवर से ‘सड़’ हुआ।  कहते हैं कि कुछ दषक पहले तक वहां हर घर का एक तालाब था, लेकिन जैसे ही कस्बे को आधुनिकता की हवा लगी व घरों में नल लगे, फिर गुसलखाने आए, नालियां आई, इन तालाबों को गंदगी डालने का नाबदान बना दिया गया। फिर तालाबों से बदबू आई तो उन्हें ढंक कर नई कालेानियां या दुकानंे बनाने का बहाना तलाष लिया गया। सालभर प्यास से कराहने वाले बंुदेलखंड के छतरपुर षहर के किषोर सागर का मसला बानगी है कि तालाबों के प्रति सरकार का रूख कितना कोताहीभरा है। कोई डेढ साल पहले एनजीटी की भोपाल बेंच ने सख्त आदेष दिया कि इस तालाब पर कब्जा कर बनाए गए सभी निर्माण हटाए जाएं। अभी तक प्रषासन मापजोख नहीं कर पाया है कि कहां से कहां तक व कितने अतिक्रमण को तोड़ा जाए। गाजियाबाद में पारंपरिक तालाबों को बचाने के लिए एनजीटी के कई आदेष लाल बस्तों में धूल खा रहे हैं।  छतरपुर में तालाब से अतिक्रमण हटाने का मामला लोगों को घर से उजाड़ने और निजी दुष्मनी में तब्दील हो चुका है। गाजियाबाद में तालाब के फर्ष को सीमेंट से पोत कर उसमें टैंकर से पानी भरने के असफल प्रयास हो चुके हैं।
समग्र भारत के विभिन्न भौगोलिक हिस्सों में वैदिक काल से लेकर वर्तमान तक विभिन्न कालखंडों में समाज के द्वारा अपनी जरूरतों के मुताबिक बनाई गई जल संरचनाओं और जल प्रणालियों के अस्तित्व के अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनमें तालाब सभी जगह मौजूद रहे हैं। रेगिस्तान में तो उन तालाबों को सागर की उपमा दे दी गई।  ऋग्वेद में सिंचित खेती, कुओं और गहराई से पानी खींचने वाली प्रणालियों का उल्लेख मिलता है। हडप्पा एवं मोहनजोदडो (ईसा से 3000 से 1500 साल पूर्व) में जलापूर्ति और मल निकासी की बेहतरीन प्रणालियों के अवषेष मिले हैं। कौटिल्य के अर्थषास्त्र में भी जल संरचनाओं के बारे में अनेक विवरण उपलब्ध हैं। इन विवरणों से पता चलता है कि तालाबों का निर्माण राज्य की जमीन पर होता था। स्थानीय लोग तालाब निर्माण की सामग्री जुटाते थे। असहयोग और तालाब की पाल को नुकसान पहुँचाने वालों पर राजा द्वारा जुर्माना लगाया जाता था। तत्कालीन नरेष चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा यह व्यवस्था ईसा से 321-297 साल पहले लागू की गई थी। बरसात के पानी को संचित करने के लिये तटबन्ध, जलाषय और तालाबों का निर्माण आम था। सूखे इलाकों में कुये और बावडि़यों के बनाने का रिवाज था। मेगस्थनीज ने भी अपने यात्रा विवरणों में उत्तर भारत में पानी का वितरण करने वाली जलसुरंगों का जिक्र किया है।   
अनेक विद्वानों ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बनी जल संचय प्रणालियों का गहन अध्ययन कर उनका विवरण प्रस्तुत किया है। इस विवरण में जल संरचनाओं की विविधता के साथ साथ उस क्षेत्र की जलवायु से उनका सह-सम्बन्ध प्रतिपादित होता है। यह सह-सम्बन्ध, संरचनाओं के स्थल चयन की सटीकता, निर्माण सामग्री की उपयुक्तता तथा उनकी डिजायन के उजले पक्ष को प्रस्तुत कर सोचने को मजबूर करता है कि पुराने समय में हमारे पूर्वजों की समझ कितनी सूझबूझभरी एवं वैज्ञानिक थी। पुरानी संरचनाएं बानगी हैं कि उस काल में भी उन्नत जल-विज्ञान और कुषल जलविज्ञानी मौजूद थे। कई बार लगता है कि जल संरचनाओं के निर्माणकर्ताओं के हाथों में अविष्वसनीय कौषल तथा प्राचीन वास्तुविदों की प्रस्तुति में देष की मिट्टी और जलवायु की बेहतरीन समझ की सोंधी गंध मौजूद थी। यह सिलसिला आगे बढा। दसवीं सदी में परमार राजा भोज ने समरांगण सूत्रधार की रचना कर भारतीय वास्तु को नई पहचान दी। मुगल काल में विकसित वास्तु में गंगा जमुनी संस्कृति की महक दिखी और देष के अनेक स्थानों में उनके प्रमाण  आसानी से देखे जा सकते हैं। 
केंद्र सरकार के पिछले महीने आए  बजट में यह बात सुखद है कि सरकार ने स्वीकार कर लिया कि देष की तरक्की के लिए गांव व खेत जरूरी हैं, दूसरा खेत के लिए पानी चाहिए व पानी के लिए बारिष की हर बूंद को सहेजने के पारंपरिक उपाय ज्यादा कारगर हैं। तभी खेतों में पांच लाख तालाब खोदने व उसे मनरेगा के कार्य में षामिल करने का उल्लेख बजट में किया गया है। खेत में तालाब यानि किसान के अपने खेत के बीच उसके द्वारा बनाया गया तालाब, जिससे वह सिंचाई करे, अपने इलाके का भूजल स्तर को समृद्ध करे और तालाब में मछली, सिंघाड़ाा आदि उगा कर कमाई बढ़ाए। ऐसा भी नहीं है कि यह कोई नया या अनूठी योजना है।। इससे पहले मध्य प्रदेष में बलराम तालाब, और ऐसी ही कई योजनाएं व हाल ही में उ.प्र. के बुंदेलखंड के सूखाग्रस्त इलाके में कुछ लोग ऐसे प्रयोग कर रहे हैं। सरकारी सोच की तारीफ इस लिए जरूरी है कि यह तो माना कि बड़े बांध के व्यय, समय और नुकसान की तुलना में छोटी व स्थानीय सिंचाई इकाई ज्यादा कारगर है।
यानि यह तय है कि तालाब महज एक गड्ढा नहीं है, जिसमें बारिष का पानी जमा हो जाए और लोग इस्तेमाल करने लगें। तालाब कहां खुदेगा, इसको परखने के लिए वहां की मिट्टी, जमीन पर जल आगमन व निगमन की व्यवस्था, स्थानीय पर्यावरण का खयाल रखना भी जरूरी होता है। वरना यह भी देखा गया है ग्रेनाईट संरचना वाले इलाकों में कुएं या तालाब खुदे, रात में पानी भी आया और कुछ ही घंटों में किसी भूगर्भ की झिर से कहीं बह गया। दूसरा , यदि बगैर सोचे -समझे पीली या दुरमट मिट्टी में तालाब खोद तो  धीरे-धीरे पानी जमीन में बैठेगा, फिर दल-दल बनाएगा और फिर उससे ना केवल जमीन नश्ट होगी, बल्कि आसपास की जमीन के प्राकृतिक लवण भी पानी के साथ बह जाएंगे। जरा कल्पना करें- पांच लाख तालाब, यदि एक तालाब एक एकड़ का तो, देष के हर साल घट रही खेती की बेषकीमती जमीन में पांच लाख एकड़ की कम से कम सीधी कमी। षुरूआत में भले ही अच्छे परिणाम आएं, लेकिन यदि नमी, दलदल, लवण बहने का सिलसिला महज पंद्रह सल भी जारी रहा तो उस तालाब के आसपास लाइलाज बंजर बनना वैज्ञानिक तथ्य है।
नए तालाब जरूर बनें, लेकिन आखिर पुराने तालाबों का जिंदा करने से क्यांे बचा जा रहा है? सरकारी रिकार्ड कहता है कि मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। सन 2000-01 में जब देष के तालाब, पोखरों की गणना हुई तो पाया गया कि हम आजादी के बाद कोई 19 लाख तालाब-जोहड़ पी गए। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पांच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने जलाशयों  की मरम्मत , नवीकरण और जीर्णोध्दार ( आर आर आर ) के लिए योजना बनाई। ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया, योजना के अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमली जामा पहनाना था। इसके लिए कुछ धन केंद्र सरकार की तरफ से और कुछ विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से मिलना था। इस योजना के तहत इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक  स्तर पर  बुनियादी ढाँचे का विकास करना था। कोई तीन साल पहले गाजियाबाद के संजय कष्यप के नेतत्व में एक अभियान प्रारंभ किया गया था- तालाब संवर्धन प्राधिकरण के गठन की मांग। ऐसी संस्था, जिसके पास देष के सभी छोटे-बड़े तालाबों का मालिकाना हक हो, उसके पास न्यायिक षक्ति हो और इतना बजट व स्टाफ हो कि पूरे देष के जलाषयों की चैखी कुंडली तैयार की जा सके। श्री कष्यप् ने संसदीय समिति के सामने भी अपने सुझाव रखे थे और षायद इसी का प्रभाव है कि सरकार के बजट में तालाब का उल्लेख तो है।
आजादी के बाद सरकार और समाज दोनों ने तालाबों को लगभग बिसरा दिया, जब आंख खुली तब बहुत देर हो चुकी थी। सन 2001 में देष की 58 पुरानी झाीलों को पानीदार बनाने के लिए केंद्र सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय ने राश्ट्रीय झील संरक्षण योजना षुरू की थी। इसके तहत कुल 883.3 करोड़ रूपए का प्रावधान था। इसके तहत मध्यप्रदष की सागर झील, रीवा का रानी तालाब और षिवपुरी झाील, कर्नाटक के 14 तालाबों, नैनीताल की दो झीलों सहित 58 तालाबों की गाद सफाई के लिए  पैसा बांटा गया। इसमें राजस्थान के पुश्कर का कंुड और धरती पर जन्नत कही जाने वाली श्रीनगर की डल झील भी थी। झील सफाई का पैसा पष्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों को भी गया। अब सरकार ने मापा तो पाया कि इन सभी तालाबों से गाद निकली कि नहीं, पता नहीं ; लेकिन इसमें पानी पहले से भी कम आ रहा है। केंद्रीय जल आयोग ने जब खर्च पैसे की पड़ताल की तो ये तथ्य सामने आए। कई जगह तो गाद निकाली ही नहीं और उसकी ढुलाई का खर्चा दिखा दिया। कुछ जगह गाद निेकाल कर किनारों पर ही छोड़ दी, जोकि अगली बारिष में ही फिर से तालाब में गिर गई।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने नए तालाबों का निर्माण तो नहीं ही किया, पुराने तालाबों को भी पाटकर उन पर इमारतें खड़ी कर दीं। भू-मफियाओं ने तालाबों को पाटकर बनाई गई इमारतों का अरबों-खरबों रुपये में सौदा किया और खूब मुनाफा कमाया। इस मुनाफे में उनके साझेदार बने राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी। माफिया-प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं की इस जुगलबंदी ने देश को तालाब विहीन बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। यह तो सरकारी आंकड़ों की जुबानी है, इसमें कितनी सचाई है, यह किसी को नहीं पता। सरकार ने मनरेगा के तहत फिर से तालाब बनाने की योजना का सूत्रपात किया है। अरबों रुपये खर्च हो गए, लेकिन वास्तविक धरातल पर न तो तालाब बने और न ही पुराने तालाबों का संरक्षण ही होता दिखा।
सन 1944 में गठित ‘फेमिन इनक्वायरी कमीशन’ ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे । कमीशन की रिपोर्ट तो लाल बस्ते में कहीं दब गई  और देष की आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा करना शुरू कर दिया । चाहे कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना ; देष के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार भी होते थे । मछली, कमल गट्टा , सिंघाड़ा , कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी ; यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं । तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे  । शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है ।
काष किसी बड़े बांध पर हो रहे समूचे व्यय के बराबर राषि एक बार एक साल विषेश अभियान चला कर पूरे देष के पारंपरिक तालबों की गाद हटाने, अतिक्रमण मुक्त बनाने और उसके पानी की आवक-जावक  के रास्ते को निरापद बनाने में खर्च कर दिया जाए तो भले ही कितनी भी कम बारिष हो, ना तो देष का कोई कंठ सूखा रहेगा और ना ही जमीन की नमी मारी जाएगी।

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