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शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

flood in cities due to infrastructure error

क्यों आ रही है शहरों में बाढ़!

समय चक्र
 पंकज चतुर्वेदी

विडंबना है कि शहर नियोजन के लिए गठित लंबे-चौडे़ सरकारी अमले पानी के बहाव में शहरों के ठहरने पर खुद को असहाय पाते हैं। सारा दोष नालों की सफाई न होने ,बढ़ती आबादी, घटते संसाधनों और पर्यावरण से छेड़छाड़ पर थोप देते हैं। वैसे इस बात का जवाब कोई नहीं दे पाता है कि नालों की सफाई सालभर क्यों नहीं होती और इसके लिए मई-जून का इंतजार क्यों होता है। महानगरों में भूमिगत सीवर जलभराव का सबसे बड़ा कारण हैं। जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे हैं तो फिर खुले नालों से अपना काम क्यों नहीं चला पा रहे हैं?


आाषाढ़ में कुछ घंटे पानी क्या बरसा, राजधानी दिल्ली व उससे सटे शहर ठिठक गए। सड़क पर दरिया था और नाले उफान पर। दिल्ली से सटे गाजियाबाद, नोएडा, गुड़गांव जैसे शहरों के बडे़ नाम घुटने-घुटने पानी में डूबते दिखे। भोपाल में 10 से 12 फुट पानी था तो इंदौर में सभी मुख्य मार्ग जलमग्न थे। ऐसी ही खबरें लखनऊ, गोंडा हो या औरेया, गुवाहाटी हो या फिर मुंबई, सभी शहरों से आ रही हैं। पूरे देश में गर्मी से निजात के आनंद की कल्पना करने वाले सड़कों पर जगह-जगह पानी भरने से ऐसे दो-चार हुए कि अब बारिश के नाम से ही डर रहे हैं। शहर के नाम भले ही बदल जाएं, लेकिन कारण वहीं रहते हैं- नालों, सीवर में पॉलीथिन फंसना व उनकी ठीक सफाई नहीं होना, सड़क की त्रुटिपूर्ण डिजाइन और पारंपरिक जल निधियों पर अवैध कब्जे या पानी का रास्ता रोक कर स्थाई निर्माण करना। जलभराव एक राष्ट्रीय त्रासदी है जो शहरों की रफ्तार को थाम देता है, बीमारियों का कारक बनता है, जाम में फंसे वाहनों से निकले धुएं से पर्यावरणीय संकट खड़ा करता है, विदेशी मुद्रा से खरीदे गए पेट्रो-ईंधन की बर्बादी करता है और सबसे बड़ी बात जलभराव न होने की आड़ में होने वाले सफाई व अन्य कायोंर् में भ्रष्टाचार का जनक भी है। विडंबना है कि शहर नियोजन के लिए गठित लंबे-चौडे़ सरकारी अमले पानी के बहाव में शहरों के ठहरने पर खुद को असहाय पाते हैं। सारा दोष नालों की सफाई न होने ,बढ़ती आबादी, घटते संसाधनों और पर्यावरण से छेड़छाड़ पर थोप देते हैं। वैसे इस बात का जवाब कोई नहीं दे पाता है कि नालों की सफाई सालभर क्यों नहीं होती और इसके लिए मई-जून का इंतजार क्यों होता है। 
जनसंदेश टाईम्‍य उप्र
इसके हल के सपने, नेताओं के वादे और पीड़ित जनता की जिंदगी नए सिरे से शुरू करने की हड़बड़ाहट सब कुछ भुला देती है। यह सभी जानते हैं कि दिल्ली, मुंबई आदि महानगरों में बने ढेर सारे पुलों के निचले सिरे, अंडरपास और सबवे हल्की-सी बरसात में जलभराव के स्थाई स्थल हैं, लेकिन कभी कोई यह जानने का प्रयास नहीं कर रहा है कि आखिर निर्माण की डिजाइन में कोई कमी है या फिर उसके रखरखाव में।देशभर के शहरों में सुरसामुख की तरह बढ़ते यातायात को सहज बहाव देने के लिए बीते एक दशक के दौरान ढेर सारे फ्लाईओवर और अंडरपास बने। कई बार दावे किए गए कि अमुक सड़क अब ट्राफिक सिग्नल से मुक्त हो गई है, इसके बावजूद हर शहर में हर साल कोई 185 जगहों पर 125 बड़े जाम और औसतन प्रति दिन चार से पांच छोटे जाम लगना आम बात है। बरसात में तो यही संरचनाएं जाम का कारक बनती हैं।बारिश के दिनों में अंडर पास और बीआरटी कॉरीडोरों में पानी भरना ही था, इसका सबक हमारे नीति-निर्माताओं ने दिल्ली के दिल में स्थित आईटीओ के पास के शिवाजी ब्रिज और कनाट प्लेस के करीब के मिंटो ब्रिज से नहीं लिया था। ये दोनों ही निर्माण बेहद पुराने हैं और कई दशकों से बारिश के दिनों में दिल्ली में जलभराव के कारक रहे हैं। इसके बावजूद दिल्ल्ल्ी को ट्राफिक सिग्नल मुक्त बनाने के नाम पर कोई चार अरब रुपए खर्च कर दर्जनभर अंडरपास बना दिए गए। सबसे शर्मनाम तो है हमारे अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे को जोड़ने वाले अंडरपास का नाले में तब्दील हो जाना। कहीं पर पानी निकालने वाले पंपों के खराब होने का बहाना है तो सड़क डिजाइन करने वाले नीचे के नालों की ठीक से सफाई न होने का रोना रोते हैं तो दिल्ली नगर पालिका अपने यहां काम नहीं कर रहे कई हजार कर्मचारियों की पहचान न कर पाने की मजबूरी बता देती है। इन अंडरपास की समस्या केवल बारिश के दिनों में ही नहीं है। आम दिनों में भी यदि यहां कोई वाहन खराब हो जाए या दुर्घटना हो जाए तो उसे खींच कर ले जाने का काम इतना जटिल है कि जाम लगना तय ही होता है। असल में इनकी डिजाइन में ही खामी है, जिससे बारिश का पूरा जलजमाव उसमें ही होता है। जमीन के गहराई में जा कर ड्रैनेज किस तरह बनाया जाए, ताकि पानी की हर बूंद बह जाए, यह तकनीक अभी हमारे इंजीनियरों को सीखनी होगी। इंदौर, भोपाल के बीआरटी कॅरीडोर थोड़ी बरसात में नाव चलने लायक हो जाते हैं। ठीक ऐसे ही हालात फ्लाईओवरों के भी हैं। जरा पानी बरसा कि उसके दोनों ओर यानी चढ़ाई व उतार पर पानी जमा हो जाता है। कारण एक बार फिर वहां बने सीवरों की ठीक से सफाई न होना बता दिया जाता है। असल में तो इनकी डिजाइन में ही कमी है- यह आम समझ की बात है कि पहाड़ी जैसी किसी भी संरचना में पानी की आमद ज्यादा होने पर जल नीचे की ओर बहेगा। मौजूदा डिजाइन में नीचे आया पानी ठीक फ्लाईओवरों से जुड़ी सड़क पर आता है और फिर यह मान लिया जाता है कि वह वहां मौजूद स्लूस से सीवरों में चला जाएगा। असल में सड़कों से फ्लाईओवरों के जुड़ाव में मोड़ या अन्य कारण से एक तरफ गहराई है और यहीं पानी भर जाता है।
 कई स्थान पर इन पुलों का उठाव इतना अधिक है और महानगर की सड़कें हर तरह के वाहनों के लिए खुली भी हुई हैं, सो आए रोज इन पर भारी मालवाहक वाहनों का लोड न ले पाने के कारण खराब होना आम बात है। एक वाहन खराब हुआ कि कुछ ही मिनटों में लंबा हो जाता है। यह विडंबना है कि हमारे नीति निर्धारक यूरोप या अमेरिका के किसी ऐसे देश की सड़क व्यवस्था का अध्ययन करते हैं, जहां न तो दिल्ली की तरह मौसम होता है और न ही एक ही सड़क पर विभिन्न तरह के वाहनों का संचालन। उसके बाद सड़क, अंडरपास और फ्लाईओवरों की डिजाइन तैयार करने वालों की शिक्षा भी ऐसे ही देशों में लिखी गई किताबों से होती हैं। नतीजा सामने है कि आधी छोड़ पूरी को जावे, आधी मिले न पूरी पावे का होता है। हम अंधाधंुध खर्चा करते हैं, उसके रखरखाव पर लगातार पैसा फूंकते रहते हैं, उसके बावजूद न तो सड़कों पर वाहनों की औसत गति बढ़ती है और न ही जाम जैसे संकटों से मुक्ति। काश! कोई स्थानीय मौसम, परिवेश और जरूरतों को ध्यान में रख कर जनता की कमाई से उपजे टैक्स को सही दिशा में व्यय करने की भी सोचे। दिल्ली, कोलकाता, पटना, भोपाल, जबलपुर, सतना जैसे महानगरों में जल निकासी की माकूल व्यवस्था न होना शहर में जलभराव का स्थाई कारण कहा जाता है। नागपुर का सीवर सिस्टम बरसात के जल का बोझ उठाने लायक नहीं है, साथ ही उसकी सफाई महज कागजों पर होती है। मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और सीवर की 50 साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही हैं। शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थाई निर्माणों को हटाने का करना होगा। यदि किसी पहाड़ी से पानी नीचे बह कर आ रहा है तो उसका संकलन किसी तालाब में ही होगा। विडंबना है कि ऐसे जोहड़-तालाब कंक्रीट की नदियों में खो गए हैं। परिणामत: थोड़ी ही बारिश में पानी कहीं भी बहने को बहकने लगता है। महानगरों में भूमिगत सीवर जलभराव का सबसे बड़ा कारण हैं। जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे हैं तो फिर खुले नालों से अपना काम क्यों नहीं चला पा रहे हैं? पॉलीथिन, घर से निकलने वाले रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्रा, कुछ ऐसे कारण हैं, जोकि गहरे सीवरों के दुश्मन हैं।
महानगरों में सीवरों और नालों की सफाई भ्रष्टाचार का बड़ा माध्यम है। यह कार्य किसी जिम्मेदार एजेंसी को सौंपना आवश्यक है, वरना आने वाले दिनों में महानगरों में कई-कई दिनों तक पानी भरने की समस्या उपजेगी, जो यातायात के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा होगा। महानगरों में बाढ़ का मतलब है परिवहन और लोगों का आवागमन ठप्प होना। इस जाम के ईंधन की बर्बादी, प्रदूषण स्तर में वृद्धि और मानवीय स्वभाव में उग्रता जैसे कई दीर्घगामी दुष्परिणाम होते हैं। इसका स्थाई निदान तलाशने के विपरीत जब कहीं शहरों में बाढ़ आती है तो सरकार का पहला और अंतिम कदम राहत कार्य होता है, जोकि तात्कालिक सहानुभूतिदायक तो होता है, लेकिन बाढ़ के कारणों पर स्थाई रूप से रोक लगाने में अक्षम होता है। जलभराव और बाढ़ मानवजन्य समस्याएं हैं और इसका निदान दूरगामी योजनाओं से संभव है, यह बात शहरी नियोजनकर्ताओं को भलीभांति जान लेना चाहिए और इसी सिद्धांत पर भविष्य की योजनाएं बनानी चाहिए ।

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