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शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

Kwadiya now become Deuce in the name of religion


आस्था में न टूटे संस्कार की डोर

जनसंदेश मप्र
देहरादून से ले कर दिल्ली और फरीदाबाद से करनाल तक और राजस्थान तक के पांच राज्यों के कोई 70 जिले आगामी दस दिनों तक कांवड़ यात्रा को ले कर भयभीत और आशंकित हैं। हालांकि, प्रशासन ने कांवड़ में डीजे न बजाने, लाठी-डंडे आदि ले कर न चलने जैसे निर्देश जारी किए हैं। लेकिन पिछले अनुभव बताते हैं कि यह सबकुछ महज कागजी कवायद रह जाता है। कुछ लोगों की हरकतें हजारों श्रद्धालुओं, कठिन पद यात्रा करने वालों की आस्था पर भारी पड़ती हैं। प्रशासन असहाय-सा होता है व उनके रास्ते में रहने वाले लाखों लोगों का जीवन नर्क। धर्म व उसके संस्कारों का व्यापक उद्देश्य मानव कल्याण रहा है, लेकिन जिस तरह कांवड़ के फेर में बीमारों का अस्पताल जाना, बच्चों का स्कूल जाना व कर्मचारियों का अपने काम पर जाना थम जाता है, उससे इनके संस्कार पर सवाल खड़े होना लाजिमी है। जैसा कि बीते पांच सालों से घोषणा की जाती है, इस बार भी डीजे बजाने पर रोक जैसे जुमले उछाले जा रहे हैं, लेकिन यह तय है कि इनका पालन होना मुश्किल ही होता है। बडे़-बड़े वाहनों पर पूरी सड़क घेर कर, उद्दण्डों की तरह डंडा-लाठी-बेसबाल लहराते हुए, श्रद्धा से ज्यादा आतंक पैदा कर रहे कांवड़िए सड़कों पर आ जाते हैं। 
जनसंदेश उप्र
याद करें पिछले साल का श्रावण का महीना और दिल्ली-हरिद्वार राजमार्ग पर एक हत्या, डेढ़ सौ दुकानों में आगजनी व तोड़फोड़, कई बसों को नुकसान, सैकड़ों लोगों की पिटाई, हरिद्वार में विदेशी महिलाओं के साथ छेड़छाड़, स्कूल-दफ्तर बंद, लाखों बच्चों की पढ़ाई का नुकसान, जनजीवन अस्तव्यस्त। वह भी तब, जब दस हजार पुलिस वालों की दिन-रात ड्यूटी लगी हुई थी। यह कहानी किसी दंगे-फसाद की नहीं, बल्कि ऐसी श्रद्धा की है, जोकि अराजकता का रूप लेती जा रही है। श्रावण की शिवरात्रि से पहलेे लगातार दस दिनों तक देश की राजधानी दिल्ली और उसके आसपास 200 किलोमीटर के दायरे में इस तरह का आतंक धर्म के कंधों पर सवार हो कर निर्बाध चलता है। इसमें कितना धर्म या श्रद्धा थी, इसका आकलन कोई नहीं कर पाया। अब तो सुदूर गांवों में बाकयदा इसके क्लब बनते हैं, वे एक जैसे रंग की वर्दी बनवाते हैं। एक वाहन होता है, जिसमें खाने-पीने, लड़ने-भिड़ने का सामान होता है। श्रद्धा, आस्था, समर्पण के भाव नदारद होते हैं, उसकी जगह भीड़ मनोविज्ञान व लंपटाई हावी होती है। जरा विचार करें कि इस पूरे उत्सव से समाज या धर्म को मिल क्या रहा है? कुछ लोग केसरिया कच्छे व टीशर्ट बेच लेते हैं, कांवड़ का डिजाइनर सामान बिक जाता है, दिल्ली से लेकर रास्ते के कस्बों में चंदा जोड़ कर कैंप लगाने वालों को कुछ दिन काम मिल जाता है। लेकिन इसकी कीमत चुकानी होती है कई हजार करोड़ के नुकसान से। 
दिल्ली में यूपी बार्डर से लेकर आईएसबीटी और वहां से रोहतक व गुड़गांव और वहां से जयपुर की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग को जगह-जगह निर्ममता से खोद कर बड़े-बड़े पंडाल लगाए जा रहे हैं। राजधानी में भले ही बिजली की कमी हो, लेकिन बिजली को चुराकर सड़कों को कई-कई किलोमीटर तक जगमगा दिया गया है। कई शहरों में दूध, सब्जी जैसी आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई बाधित होती है व इसका फायदा मुनाफाखोर उठाते हैं। बच्चों के स्कूल की पढ़ाई का हर्जा तो कहीं गिना ही नहीं जाता। जब हम अपने देश को विकास के मार्ग पर वैश्विक स्तर पर ले जाने की कल्पना कर रहे हैं तो सोचना होगा कि दस दिनों तक मानव संसाधन का इस तरह दुरुपयोग, परिवहन पर पाबंदी से हम क्या पा रहे हैं। क्या यह भीड़ अपने गांव के तालाब या नदी को साफ कर धर्म की सेवा नहीं कर सकती? अभी कुछ साल पहले तक ये सात्विक कांवड़िए अनुशासन व श्रद्धा में इस तरह डूबे रहते थे कि राह चलते लोग स्वयं ही उनको रास्ते दे दिया करते थे। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देश में धर्म की राजनीति का जो दौर शुरू हुआ, उसका असर कांवड़ यात्रा पर साल-दर-साल दिखने लगा। पहले संख्या में बढ़ोतरी हुई, फिर उनकी सेवा के नाम पर लगने वाले टेंटों-शिविरों की संख्या बढ़ी। गौरतलब है कि इस तरह के शिविर व कांवड़ लेकर आ रहे भक्तों की सेवाके सर्वाधिक शिविर दिल्ली में लगते हैं, जबकि कांवड़ियों में दिल्ली वालों की संख्या बमुश्किल 10 फीसदी होती है। यदि किसी कांवड़िए का जल छलक गया, किसी को सड़क के बीच में चलने के दौरान मामूली टक्कर लग गई तो खैर नहीं है। हॉकी, बेसबाल के बल्ले, भाले, त्रिशूल और ऐसे ही हथियारों से लैस ये भोले के भक्त तत्काल भालेबन जाते हैं और कानून-व्यवस्था, मानवता और आस्था सभी को छेद देते हैं। दिल्ली की एक तिहाई आबादी यमुना-पार रहती है। राजधानी की विभिन्न संस्थाओं में काम करने वाले कोई सात लाख लोग जीटी रोड के दोनों तरफ बसी गाजियाबाद जिले की विभिन्न कालोनियों में रहते हैं। इन सभी लोगों के लिए कांवड़ियों के दिनों में कार्यालय जाना त्रासदी से कम नहीं होता। इस बार दिल्ली एनसीआर में कांवड़ यात्रा के दौरान जबरदस्त अराजकता होगी, क्योंकि गाजियाबाद में नए बस अड्डे से दिलशाद गार्डन तक मेट्रो के काम के चलते जीटी रोड बेहद संकरी व गहरे गड्ढों वाली हो गई है। जाहिर है कि इस पर कांवड़ वालों का ही राज होगा व इसके दोनों तरफ बसी कालोनियों के लाखों लोग हाउस अरेस्ट होंगे। गाजियाबाद-दिल्ली सीमा पर अप्सरा बार्डर पूरी तरह कांवड़ियों की मनमानी की गिरफ्त में रहता है, जबकि इस रास्ते से गुरुतेग बहादुर अस्पताल जाने वाले गंभीर रोगियों की संख्या प्रतिदिन हजारों में होती है। ये लोग सड़क पर तड़पते हुए देखे जाते हैं। चूंकि मामला धर्म से जुड़ा होता है, सो कोई विरोध की सोच भी नहीं सकता। फिर कांवड़ सेवा केंद्रों की देखरेख में लगे स्वयंसेवकों के हाथों में चमकते त्रिशूल, हॉकियां, बेसबाल के बल्ले व लाठियां किसी की भी जुबान खुलने ही नहीं देती हैं। धर्म दूसरों के प्रति संवेदनशील हो, धर्म का पालन करने वाला स्वयं को तकलीफ देकर जन कल्याण की सोचे, यह हिंदू धर्म की मूल भावना है। कांवड़ियों की यात्रा में यह सभी तत्व नदारद हैं। फिल्मी पेरोडियों की धुन पर नाचना, जगह-जगह रास्ता जाम करना, आम जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर देना, सड़कों पर हंगामा करना और जबरिया वसूले गए चंदों से चल रहे शिविरों में आहार लेना, किसी भी तरह धार्मिक नहीं कहा जा सकता है। जिस तरह कांवड़ियों की संख्या बढ़ रही है, उसको देखते हुए सरकार व समाज दोनों को ही इस पावन पर्व को दूषित होने से बचाने की जिम्मेदारी है। कांवड़ियों का पंजीयन, उनके मार्ग पर पैदल चलने लायक पतली पगडंडी बनाना, महानगरों में कार्यालय व स्कूल के समय में कांवड़ियों के आवागमन पर रोक, कांवड़ लाने की मूल धार्मिक प्रक्रिया का प्रचार-प्रसार, सड़क घेर कर शिविर लगाने पर पाबंदी जैसे कदम लागू करने के लिए अभी से कार्यवाही प्रारंभ करना जरूरी है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस धार्मिक अनुष्ठान में सांप्रदायिक संगठनों की घुसपैठ को रोका नहीं गया तो देश को जो नुकसान होगा, उससे बड़ा नुकसान हिंदू धर्म को ही होगा।

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