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रविवार, 16 अक्तूबर 2016

challenge of preventing food wastage

ज़रूरी है अन्न की बर्बादी रोकना


                                                                                                                                           पंकज चतुर्वेदी
Prayukti. 16-10-16
हम जितना खेतों में उगाते हैं उसका 40 फीसदी उचित रखरखाव के अभाव में नष्ट हो जाता है। यह आकलन स्वयं सरकार का है। यह व्यर्थ गया अनाज बिहार जैसे राज्य का पेट भरने के लिए काफी है। हर साल 92600 करोड़ कीमत का 6.7 करोड़ टन खाद्य उत्पाद की बर्बादी, वह भी उस देश में जहां बड़ी आबादी भूखे पेट सोती हो, बेहद गंभीर मामला है। विडंबना है कि विकसित कहे जाने वाले ब्रिटेन जैसे देश सालभर में जितना भोजन पैदा नहीं करते, उतना हमारी लापरवाही से बेकार हो जाता है।
कुछ महीने पहले, अस्सी साल बाद जारी किए गए सामाजिक, आर्थिक और जातीय जनगणना के आंकड़े भारत की चमचमाती तस्वीर के पीछे का विद्रूप चेहरा उजागर करने के लिए काफी हैं। देश के 51.14 प्रतिशत परिवार की आय का ज़रिया महज़ अस्थाई मजदूरी है। 4.08 लाख परिवार कूड़ा बीन कर तो 6.68 लाख परिवार भीख मांग कर अपना गुजारा करते हैं। गांव में रहने वाले 39.39 प्रतिशत परिवारों की औसत मासिक आय दस हजार रूपए से भी कम है।
आय और व्यय में असमानता की हर दिन गहरी होती खाई का ही परिणाम है कि कुछ दिनों पहले ही संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन द्वारा जारी की गई रपट में बताया गया है कि भारत में 19.4 करोड़ लोग भूखे सोते हैं, हालांकि सरकार के प्रयासों से पहले से ऐसे लोगों की संख्या कम हुई है।
हमारे यहां बीपीएल (बिलो पावर्टी लाईन) यानि गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों की संख्या को लेकर भी गफ़लत है, हालांकि यह आंकड़ा 29 फीसदी के आसपास सर्वमान्य है।
भूख, गरीबी, कुपोषण व उससे उपजने वाली स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधन प्रबंधन की दिक़्कतें देश के विकास में सबसे बड़ी बाधक हैं। हमारे यहां ना तो अन्न की कमी है और ना ही रोजगार के लिए श्रम की। कागजों पर योजनाएं भी हैं, नहीं हैं तो उन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार स्थानीय स्तर की मशीनरी में जिम्मेदारी व संवेदना की।

भारत में सालाना 10 लाख टन प्याज और 22 लाख टन टमाटर खेत से बाजार पुहंचने से पहले ही सड़ जाते हैं। वहीं 50 लाख अंडे उचित भंडारण के अभाव में टूट जाते हैं।
हमारे कुल उत्पाद में चावल का 5.8 प्रतिशत, गेहूं का 4.6 प्रतिशत, केले का 2.1 प्रतिशत खराब हो जाता है। वहीं गन्ने का 26.5 प्रतिशत हर साल बेकार होता है। जिस देश में नए खरीदे गए अनाज को रखने के लिए गोदामों में जगह नहीं है, जहां सामाजिक जलसों में परोसा जाने वाला आधे से ज्यादा भोजन कूड़ा-घर का पेट भरता है, वहां ऐसे भी लोग हैं जो अन्न के एक दाने के अभाव में दम तोड़ देते है।
बंगाल के बंद हो गए चाय बागानों में आए रोज मजूदरों के भूख के कारण दम तोड़ने की बात हो या फिर महाराष्ट्र में अरबपति शिरडी मंदिर के पास ही मेलघाट में हर साल हजारों बच्चों की कुपोषण से मौत की खबर या फिर राजस्थान के बारां जिला हो या मध्यप्रदेश का शिवपुरी जिला, सहरिया आदिवासियों की बस्ती में पैदा होने वाले कुल बच्चें के अस्सी फीसदी के उचित खुराक ना मिल पाने के कारण छोटे में ही मर जाने के वाकिये इस देश में हर रोज हो रहे हैं, लेकिन विज्ञापन में मुस्कुराते चेहरों, दमकती सुविधाओं के फेर में वास्तविकता से परे उन्मादित भारतवासी तक ऐसी खबरें या तो पहुंच नहीं रही हैं या उनकी संवेदनाओं को झकझोर नहीं रही हैं।
देशभर के कस्बे-शहरों से आए रोज़ ग़रीबी, कर्ज व भुखमरी के कारण आत्महत्या की खबरें आती है, लेकिन वे किसी अखबार की छोटी सी खबर बन कर समाप्त हो जाती है। इन दिनों बुंदेलखंड की आधी ग्रामीण आबादी सूखे से हताश हो कर पेट पालने के लिए अपने घर-गांव से पलायन कर चुकी है।
भूख से मौत या पलायन, वह भी उस देश में जहां खाद्य और पोषण सुरक्षा की कई योजनाएं अरबों रूपए की सब्सिडी पर चल रही हैं, जहां मध्यान्य भोजन योजना के तहत हर दिन 12 करोड़ बच्चें को दिन का भरपेट भोजन देने का दावा हो, जहां हर हाथ को काम व हर पेट को भोजन के नाम पर हर दिन करोड़ों का सरकारी फंड खर्च होता हो; दर्शाता है कि योजनाओं व हितग्राहियों के बीच अभी भी पर्याप्त दूरी है। वैसे भारत में हर साल पांच साल से कम उम्र के 10 लाख बच्चों के भूख या कुपोषण से मरने के आंकड़े संयुक्त राष्ट्र संगठन ने जारी किए हैं। ऐसे में नवरात्रि पर गुजरात के गांधीनगर जिले के एक गांव में माता की पूजा के नाम पर 16 करोड़ रूपए दाम के साढ़े पांच लाख किलो शुद्ध घी को सड़क पर बहाने, मध्यप्रदेश में एक राजनीतिक दल के महासम्मेलन के बाद नगर निगम के सात ट्रकों में भर कर पूड़ी व सब्जी कूड़ेदान में फेंकने की घटनाएं बेहद दुभाग्यपूर्ण व शर्मनाक प्रतीत होती हैं।
हर दिन कई लाख लोगों के भूखे पेट सोने के गैर सरकारी आंकड़ों वाले भारत देश के ये आंकड़े भी विचारणीय हैं। देश में हर साल उतना गेहूं बर्बाद होता है, जितना आस्ट्रेलिया की कुल पैदावार है। नष्ट हुए गेहूं की कीमत लगभग 50 हजार करोड़ होती है और इससे 30 करोड़ लोगों को सालभर भरपेट खाना दिया जा सकता है। हमारा 2.1 करोड़ टन अनाज केवल इस लिए बेकाम हो जात है, क्योंकि उसे रखने के लिए हमारे पास माकूल भंडारण की सुविधा नहीं है। देश के कुल उत्पादित सब्जी, फल, का 40 फीसदी भाग समय पर मंडी तक नहीं पहुंच पाने के कारण सड़-गल जाता है। औसतन हर भारतीय एक साल में छह से 11 किलो अन्न बर्बाद करता है।
जितना अन्न हम एक साल में बर्बाद करते हैं उसकी कीमत से ही कई सौ कोल्ड स्टोरेज बनाए जा सकते हैं जो फल-सब्जी को सड़ने से बचा सके। एक साल में जितना सरकारी खरीदी का धान व गेहूं खुले में पड़े होने के कारण मिट्टी हो जाता है, उससे ग्रामीण अंचलों में पांच हजार वेयर हाउस बनाए जा सकते हैं। यह आंकड़ा किसी से दबा-छिपा नहीं है, बस जरूरत है तो एक प्रयास करने की।
यदि पंचायत स्तर पर ही एक कुंटल अनाज का आकस्मिक भंडारण व उसे जरूरतमंद को देने की नीति का पालन हो तो कम से कम कोई भूखा तो नहीं मरेगा। बुंदेलखंड के पिछड़े जिले महोबा के कुछ लेागों ने ‘‘रोटी बैंक’’ बनाया है। बैंक से जुड़े लेाग भोजन के समय घरों से ताजा बनी रोटिया एकत्र करते हैं और उन्हें अच्छे तरीके से पैक कर भूखों तक पहुंचाते हैं। बगैर किसी सरकारी सहायता के चल रहे इस अनुकरणीय प्रयास से हर दिन 400 लेागों को भोजन मिल रहा है। बैंक वाले बासी या ठंडी रोटी लेते नहीं है ताकि खाने वाले का आत्मसम्मान भी जिंदा रहे। यह बानगी है कि यदि इच्छा शक्ति हो तो छोटे से प्रयास भी भूख पर भारी पड़ सकते हैं।

विकास, विज्ञान, संचार व तकनीक में हर दिन कामयाबी के नए स्तर छूने वाले मुल्क में इस तरह बेरोजगारी व खाना ना मिलने से होने वाली मौतें मानवता व हमारे ज्ञान के लिए भी कलंक हैं। हर जरूरतमंद को अन्न पहुंचे इसके लिए सरकारी योजनाओं को तो थोडा़ा चुस्त-दुरूस्त होना होगा, समाज को भी थोड़ा संवेदनशील बनना होगा। हो सकता है कि हम इसके लिए पाकिस्तान से कुछ सीख लें जहां शादी व सार्वजनिक समारोह में पकवान की संख्या, मेहमानों की संख्या तथा खाने की बर्बादी पर सीधे गिरफ्तारी का कानून है। जबकि हमारे यहां होने वाले शादी समारोह में आमतौर पर 30 प्रतिशत खाना बेकार जाता है।
गांव स्तर पर अन्न बैंक, प्रत्येक गरीब, बेरोजगार के आंकड़े रखना जैसे कार्य में सरकार से ज्यादा समाज को अग्रणी भूमिका निभानी होगी। बहरहाल हमें एकमत से स्वीकार करना होगा कि अंबिकापुर जिले में एक आदिवासी बच्चे की ऐसी मौत हम सभी के लिए शर्म की बात है। यह विडंबना है कि मानवता पर इतना बड़ा धब्बा लगा और उस इलाके के एक कर्मचारी या अफसर को सरकार ने दोषी नहीं पाया, जबकि ये अफसरान इलाके की हर उपलब्धि को अपनी बताने से अघाते नहीं हैं। भूख व कुपोषण जैसे मसलों पर अफसरान की जिम्मेदारी तय करने में कड़ाई, मुफ्त बंटने वाले भोजन की गुणवत्ता से समर्झाता ना करने और ग्रामीण स्तर पर खाद्य सुरक्षा की येाजना व क्रियान्वयन हमें भूख से मौत जैसे सामाजिक कलंक से मुक्ति दिलवा सकता है।

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