My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

No price for farmer labour

टके सेर टमाटर


छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले के पत्थल गांव में किसानों ने कई टन टमाटर सडक पर फेंक कर अपने साथ हो रहे शोषण पर विरोध जताया। मंडी में उसका दाम पचास पैसे किलो मिल रहा था। दुर्ग के पास धमधा में भी किसानों ने इसी तरह विरोध जताया व टमाटर ट्रकों से कुचल कर रास्ता जाम किया। मध्य प्रदेश के सागर के टमाटर कभी पूरे बुंदेलखंड में बिका करते थे। चितौरा, सेमराबाग, पटकुई, बरखेरा, बाछलोन जैसे सागर शहर से सटे गांवों के कृषक अब टमाटर तोड़ने की जगह दुधारू पशु खेत में घुसा कर चरवा रहे हैं। कारण, मंडी में इसके दाम इतने कम मिल रहे हैं कि तुड़ाई की मजदूरी भी निकलने से रही।
जिले में 2500 हेक्टेयर में टमाटर बोया जाता है, जिससे लगभग 700 कुंटल प्रति हेक्टेयर की फसल होती रही है। पिछले साल इस समय थोक मंडी में टमाटर के दाम चार से पांच रुपए किलो थे, जो आज 75 पैसे भी नहीं है। इसी साल जनवरी-फरवरी में मध्य प्रदेश के मालवा अंचल की पेटलावद इलाके में इस बार कोई पच्चीस सौ हेक्टेयर में टमाटर बोए गए थे, फसल भी बंपर हुई, लेकिन जब किसान माल लेकर मंडी पहंुचा तो पाया कि वहां मिल रहे दाम से तो उसकी लागत भी नहीं निकलेगी। हालत ये रहे कि कई सौ एकड़ में पके टमाटरों को किसानों ने तुड़वाया भी नहीं।
सोने की खानों के लिए मशहूर कर्नाटक के कोलार में भी टमाटर किसान बंपर फसल हाने के बावजूद बर्बाद हो गए हैं। ऐसी ही खबरें राजस्थान के सिरोही जिले की भी हैं। सनद रहे, टमाटर उत्पादन के मामले में भारत चीन के बाद दुनिया में दूसरे नंबर पर आता है। विडंबना है कि न तो हमारे यहां टमाटर की फसल के वाजिब दाम मिलने की कोई नीति है, न ही जल्दी सड़ने वाली इस फसल को संरक्षित करने के कोई उपाय और न ही इससे बनने वाले सॉस, प्यूरी या चटनी बनाने के स्थानीय कारखाने। किसान पूरी तरह मंडी के दलालों का गुलाम होता है। इस बार तो किसान की कमर नोटंबदी से उपजे नगदी के संकट ने भी तोड़ी। ये न तो पहली बार हो रहा है और न ही अकेले टमाटर के साथ हो रहा है।
अभी एक साल पहले ही बस्तर में मिर्ची की बेहतरीन फसल हुई। वैसे ही वहां नक्सलियों और सुरक्षा बलों दोनों की बंदूकों से आम लोगों का जीना दूभर होता है, ऊपर से किसान इस बात से आहत रहा कि 15 से 20 रुपए प्रति किलो वाली हरी मिर्च के दाम पांच-छह रुपए भी नहीं मिले। याद करंे, कुछ महीनों पहले बाजार में प्याज की कमी इन दिनों समाज से ज्यादा सियासत, लेखन का मसला बन गया था। जब-तब ऐसी दिक्कतें खड़ी होती हैं, निर्यात पर रोक, आयात पर जोर, सरकार और विरोधी दलों द्वारा कम कीमत पर स्टॉल लागने जैसे तदर्थ प्रयोग होते रहते हैं। इस बात को बेहद शातिर तरीके से छुपाया जाता है कि खेतों मेें पैदा होने वाली उपज की बाजार में कमी की असली वजह उचित भंडारण, बिचौलियों की अफरात और प्रसंस्करण उद्योगों की आंचलिक क्षेत्रों में गैर मौजूदगी है। अभी जब लोग प्याज की राखी बांध रहे हैं, तब प्याज के साथ चोली-दामन का साथ निभाने वाले दो उत्पाद, लहसुन और आलू के दाम मंडी में इतने कम हैं कि किसान उन्हें ऐसे ही फेंक रहा है। यूपी के इटावा इलाके में कुछ दिनों पहले तक बीस हजार रुपए कुंटल बिकने वाला लहसुन हजार रुपए से नीचे आ गया है। ठीक यही हाल आलू का है। जिन किसानों ने बैंक से कर्ज लेकर उम्मीदों की फसल बोई थी, वह अब हताशा में बदल चुकी है। अब कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदश में आलू की इतनी अधिक पैदावार हो गई है कि बामुश्किल तीन सौ रुपए कुंटल का रेट किसान को मिल पा रहा है। राज्य के सभी कोल्ड स्टोरेज ठसाठस भर गए हैं।
जाहिर है कि आने वाले दिनों में आलू मिट्टी के मोल मिलेगा। यह पहली बार नहीं हुआ है कि जब किसान की हताशा आम आदमी पर भारी पड़ी है। पूरे देश की खेती-किसानी अनियोजित, शोषण की शिकार व किसान विरोधी है। तभी हर साल देश के कई हिस्सों में अफरात फसल को सड़क पर फेंकने और कुछ ही महीनों बाद उसी फसल की त्राहि-त्राहि होने की घटनाएं होती रहती हैं। किसान मेहनत कर सकता है, अच्छी फसल दे सकता है, लेकिन सरकार में बैठे लोगों को भी उसके परिश्रम के माकूल दाम, अधिक माल के सुरक्षित भंडारण के बारे में सोचना चाहिए। शायद इस छोटी सी जरूरत को मुनाफाखोरों और बिचौलियों के हितों के लिए दरकिनार किया जाता है। तभी रिटेल में विदेशी निवेश की योजना में सब्जी-फलों के संरक्षण के लिए ज्यादा जगह बनाने का उल्लेख किसानों को लुभावना लग रहा है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसदी लोगों के पसीने से पैदा होता है। यह विडंबना ही है कि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है। पूरी तरह प्रकृति की कृपा पर निर्भर किसान के श्रम की सुरक्षा पर कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया। फसल बीमा की कई योजनाएं बनीं, उनका प्रचार हुआ, पर हकीकत में किसान यथावत ठगा जाता रहा, कभी नकली दवा या खाद के फेर में तो कभी मौसम के हाथों। किसान जब फल-सब्जी आदि की ओर जाता है तो आढ़तियों और बिचौलियों के हाथों उसे लुटना पड़ता है। पिछले साल उत्तर प्रदेश में 88 लाख मीट्रिक टन आलू हुआ था तो आधे साल में ही मध्य भारत में आलू के दाम बढ़ गए थे। इस बार किसानों ने उत्पादन बढ़ा दिया, अनुमान है कि इस बार 125 मीट्रिक टन आलू पैदा हो गया है। कोल्ड स्टोरेज की क्षमता बामुश्किल 97 लाख मीट्रिक टन की है। जाहिर है कि आलू या तो सस्ता बिकेगा या फिर किसान उसे खेत में ही सड़ा देगा। आखिर आलू उखाड़ने, मंडी तक ले जाने के दाम भी तो निकलने चाहिए। हर दूसरे-तीसरे साल कर्नाटक कें कई जिलों के किसान अपने तीखे स्वाद के लिए मशहूर हरी मिचोंर् को या फिर अंगूर को सड़क पर लावारिस फेंक कर अपनी हताशा का प्रदर्शन करते हैें। तीन महीने तक दिन-रात खेत में खटने के बाद लहलहाती फसल को देखकर उपजी खुशी किसान के होठों पर ज्यादा देर नहीं रह पाती है। बाजार में मिर्ची की इतनी अधिक आवक होती है कि खरीददार ही नहीं होते। उम्मीद से अधिक हुई फसल सुनहरे कल की उम्मीदों पर पानी फेर देती है। घर की नई छप्पर, बहन की शादी, माता-पिता की तीर्थयात्रा, न जाने ऐसे कितने ही सपने वे किसान सड़क पर मिर्चियों के साथ फेंक आते हैं। साथ होती है तो केवल एक चिंता, खेती के लिए बीज, खाद के लिए लिए गए कर्जे को कैसे उतारा जाए? सियासतदां हजारों किसानों की इस बर्बादी से बेखबर हैं, दुख की बात यह नहीं है कि वे बेखबर हैं, विडंबना यह है कि कर्नाटक ही नहीं, पूरे देश में ऐसा लगभग हर साल किसी न किसी फसल के साथ होता है। सरकारी और निजी कंपनियां सपने दिखा कर ज्यादा फसल देने वाले बीजों को बेचती हैं, जब फसल बेहतरीन होती है तो दाम इतने कम मिलते हैं कि लागत भी न निकले। देश के अलग-अलग हिस्सों में कभी टमाटर तो कभी अंगूर, कभी मूंगफली तो कभी गोभी किसानों को ऐसे ही हताश करती है। राजस्थान के सिरोही जिले में जब टमाटर मारा-मारा घूमता है, तभी वहां से कुछ किलोमीटर दूर गुजरात में लाल टमाटर के दाम ग्राहकों को लाल किए रहते हैं। दिल्ली से सटे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में आए साल आलू की टनों फसल बगैर उखाड़े, मवेशियों को चराने की घटनाएं सुनाई देती हैं। आश्चर्य इस बात का होता है कि जब हताश किसान अपने ही हाथों अपनी मेहनत को चौपट करता होता है, ऐसे में गाजियाबाद, नोएडा या दिल्ली में आलू के दाम पहले की ही तरह तने दिखते हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के कोई दर्जनभर जिलों में गन्ने की खड़ी फसल जलाने की घटनाएं हर दूसरे-तीसरे साल होती रहती हैं। जब गन्ने की पैदावार उम्दा होती है तो तब शुगर मिलें या तो गन्ना खरीद पर रोक लगा देती हैं या फिर दाम बहुत गिरा देती हैं, वह भी उधारी पर। ऐसे में गन्ना काट कर खरीदी केंद्र तक ढोकर ले जाना, फिर घूस देकर पर्चा बनवाना और उसके बाद भुगतान के लिए दो-तीन साल चक्कर लगाना किसान को घाटे का सौदा दिखता है। अत: वह खड़ी फसल जलाकर अपने अरमानों की दुनिया खुद ही फूंक लेता है। आज उसी गन्ने की कमी के कारण देश में चीनी के दाम आम लोगों के मुंह का स्वाद कड़वा कर रहे हैं।कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश में कृषि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचौलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे गौण दिखते हैं और यह हमारे लोकतंत्र की आम आदमी के प्रति संवेदनहीनता की प्रमाण है। सब्जी, फल और दूसरी कैश-क्राप को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुष्परिणाम दाल, तेल-बीजों यानी तिलहनों और अन्य खाद्य पदाथोंर् के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ रहे हैं। आज जरूरत है कि खेतों में कौन सी फसल और कितनी उगाई जाए, पैदा फसल का एक-एक कतरा श्रम का सही मूल्यांकन करे, इसकी नीतियां तालुका या जनपद स्तर पर ही बनें। कोल्ड स्टोरेज या वेअर हाउस पर किसान का कब्जा हो, साथ ही प्रसंस्करण के कारखाने छोटी-छोटी जगहों पर लगें। यदि किसान रूठ गया तो ध्यान रहे, कारें तो विदेश से मंगवाई जा सकती हैं, सवा अरब की आबादी का पेट भरना संभव नहीं होगा।

Ignorance toward North East will cost high

महंगी पड़ेगी अनदेखी
पूर्वोत्तर
पंकज चतुव्रेदी

णिपुर में 54 दिन तक नाकाबंदी चली। नगा आंदोलनकारियों ने मणिपुर को बंधक बना रखा था। वहां गैस सिलेंडर दो हजार बिका, लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में इसकी सुगबुगाहट नहीं हुई। अभी चार दिसम्बर को ही अरुणाचल प्रदेश के तिराप जिले के जिनु गांव के पास गश्त कर रहे असम राइफल्स के एक दल पर कुछ उग्रवादियों ने अंधाधुंध फायरिंग की, जिसमें एक जूनियर कमीशंड आफिसर सहित दो सैनिक शहीद हुए और आठ घायल हो गए। उससे कुछ दिन पहले ही 19 नवम्बर की सुबह तिनसुकिया जिले के डिग्बोई तहसील में पेनगरी संरक्षित वन के करीब सेना के दो ट्रक व एक जीप के काफिले को उग्रवादियों ने पहले विस्फोट कर रोका फिर उस क्लाश्नेव राइफल व आरपीजी यानी राकेट प्रोपेलेन्ड ग्रेनेड से हमला किया। इसमें तीन जवान शहीद हुए व चार बुरी तरह जख्मी। अरुणाचल वाले हमले का शक एनएससीएन-खपलांग व असम वाले संहार का आरोप उल्फा पर है। इसी साल चार जून को मणिपुर की राजधानी इंफाल से कोई 75 किलोमीटर दूर भारतीय सेना की डोगरा रेजीमेंट के चार पर उग्रवादियों ने अंधाधुंध गोलियां चलाईं व 18 जवानों को मार डाला। इस हमले में 11 अन्य बेहद गंभीर घायल भी हुए है। इससे पहले दो अप्रैल और छह फरवरी को अरुणाचल में सेना पर हमले हो चुके हैं। इन हमलों का शक नगालैंड के पृथकतावादी संगठन नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड के खपलांग गुट पर है। मुल्क में जब कभी आतंकवाद से निबटने का मसला आता है तो क्या आम लोग और क्या नेता और अफसरान भी; कश्मीर पर आंसू बहाने लगते हैं पाकिस्तान को पटकने के नारे उछालने लगते हैं। लेकिन लंबे समय से यह बात बड़ी साफगोई से नजरअंदाज की जाती रही है कि हमारे ‘‘सेवन सिस्टर्स’ (हालांकि अब ये एट यानी आठ हो गई हैं) राज्यों में अलगाववाद, आतंक और देशद्रोही कश्मीर से कहीं ज्यादा है और उससे सटी सीमा के देशों-चीन, म्यांमार, भूटान, नेपाल, बांग्लादेश ही नहीं; थाईलैंड, जापान तक इन संगठनों के आका बैठ कर अपनी समानांतर हुकुमत चला रहे हैं। अभी मणिपुर की सरकार म्यांमार से सहयोग मांग रही है। भूटान ने एक दशक पहले कड़ी नीति अपनाकर उल्फा के सभी अड्डे बंद कर दिए थे तब से नलबाड़ी इलाके में शांति है। उत्तर-पूर्वी राज्यों में मणिपुर, असम, नगालैंड, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम में कोई पच्चीस उग्रवादी संगठन सक्रिय हैं। यहां बीते बारह सालों के दौरान कोई बीस हजार लोग मारे गए, जिनमें चालीस फीसद सुरक्षा बल वाले हैं। पूर्वोत्तर में उग्रवाद का प्रारंभ चीन, कम्युनिस्ट आंदोलन से कहा जाता है। लेकिन यह भी गौर करने वाली बात है कि पूरे इलाके में कभी र्चच या मिशनरी के किसी भी दल, संपत्ति या गतिविधि पर हमला नहीं हुआ। असम में उल्फा, एनडीबीएफ, केएलएनएलएफ और यूपीएसडी के लड़ाकों का बोलबाला है। अकेले उल्फा के पास अभी भी 1600 लड़ाके हैं, जिनके पास 200 एके राइफलें, 20आरपीजी और 400 दीगर किस्म के असलहा हैं। राजन दायमेरी के नेतृत्व वाले एनडीबीएफ के आतंकवादियों की संख्या 600 है जोकि 50 एके तथा 100 अन्य किस्म की राईफलों से लैसे हैं। बीते साल असमें देा बड़े नरसंहार करने वाले एनडीबीएफ के सांगबीजित गुट का मुखिया आईके संगबीजिहत म्यांमार में रह कर अपने व्यापा करता है। आश्र्चय यह जान कर होगा कि बोडो के नाम पर खून-खराबा करने वाला यह अपराधी खुद बोडो नहीं है। नगालैंड में पिछले एक दशक के दौरान अलग देश की मांग के नाम पर डेढ़ हजार लोग मारे जा चुके हैं। वहां एनएससीएन के दो घटक-आईएम और खपलांग बाकायदा सरकार के साथ युद्ध विराम की घोशणा कर जनता से चौथ वसूलते हैं। इनके आका विदेश में रहकर भारत सरकार के आला नेताओं से संपर्क में रहते हैं और इनके गुगरे को अत्याधुनिक प्रतिबंधित हथियार ले कर सरेआम घूमने की छूट होती है। यहां तक कि राज्य की सरकार का बनना और गिरना भी इन्हीं उग्रवादियों के हाथों में होता है। यह बात हाल ही में संपन्न विधान सभा चुनाव में सामने आ चुकी है। यह दुर्भाग्य है कि दिल्ली में बैठे लोग उत्तर-पूर्वी राज्यों को सतही दूरी ही नहीं, बल्कि दिलों से भी दूर मानते रहे हैं। हालात इस मुकाम पर पहुंच गए हैं कि अलगाववादी कदमों पर जल्द काबू नहीं किया गया तो पृथकतावादियों पर नियंतण्रकरना असंभव हो जाएगा।

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016

Memories of Anupam Mishra : How books change society, government and even Geography

पुस्तकें समाज भी बदलती हैं और भूगोल भी

                                                                                                                                    पंकज चतुर्वेदी




इस सप्ताह का प्रारंभ देश के पानी, समाज और ंसस्कार से असीम सरोकार रखने वाले एक ‘‘अनुपम इंसान’’ के अवसान के दुखद समाचार को ले कर आया। अनुपम मिश्र को केवल इस लिए याद मत रखें कि उन्होंने तालाब की संस्कृति को जिला दिया, बल्कि इस लिए भी याद रखें कि आज के भौतिकवादी युग में कोई इंसान जैसा दिखता था, जैसा बोलता था, वैसा जीता भी था। अनुपम जी के ज्ञान व शोध से ज्यादा महत्वपूएार् थी, उनकी भाषा, पानी पर तैरती हुई, ढेर सारे देशज शब्द, तकनीकी शब्दों के आम बोलचाल वाले वैकल्पिक मायने। अनुपम को आमतौर पर ‘‘आज भी खरे हैं तालाब’’ पुस्तक के लिए याद किया जाता है, वह स्वाभाविक भी है, क्योंकि अकाल-ग्रस्त हिंदी साहित्य जगत में कोई पुस्तक 15 लाख से ज्यादा प्रति में छपे व लाखों पाइकों तक पहुंचे, ऐसा कम ही होता है। श्री मिश्र की स्मृति में उनकी एक अन्य महत्वपूर्ण पुस्तक को याद करते हें जिसने देश की सीमा के बाहर भी बदलाव किया।

 तो क्या पुस्तकें केवल ज्ञान प्रदान करती हैं? इसके अलावा और क्या करती हैं?? यह सवाल अक्सर कुछ लोग पूछते रहते हैं। यदि दो पुस्तको का जिक्र कर दिया जाए तो समझ में आता है कि पुस्तकें केवल पठन सामग्री या विचार की खुराक मात्र नहीं है, ये समाज, सरकार को बदलने और यहां तक कि भूगोल बदलने का भी जज्बा रखती हैं। जब गांधी षांति प्रतिश्ठान ने ‘‘आज भी खरे हैं तालाब’’ को छापा था तो यह एक षोधपरक पुस्तक मात्र थी और आज 20 साल बाद यह एक आंदोलन, प्रेरणा पूंज और बदलाव का माध्यम बन चुकी हैं। इसकी कई लाख प्रतियां अलग-अलग संस्थाओं, प्रकाषकों ने छाप लीं, अपने मन से कई भाशाओं में अनुवाद भी कर दिए, कई सरकारी संस्थाओं ने इसे वितरित करवाया, स्वयंसेवी संस्थाएं सतत इसे लोगों तक पहुंचा रही हैं। परिणाम सामने हैं जो समाज व सरकार अपने आंखों के सामने सिमटते तालाबों के प्रति बेखबर थे, अब उसे बचाने, सहेजने और समृद्ध करने के लिए आगे आ रहे हैं।
‘रेगिस्तान की रजत बूंदे’ पुस्तक द्वारा समाज व भूगोल बदलने की घटना तो सात समुंदर पार दुनिया के सबसे विकट रेगिस्तान में बसे देष से सामने आई है। याद होगा कि भारत के रेगिस्तानी इलाकों में पीढियों से जीवंत, लोक-रंग से सराबोर समाज ने पानी जुटाने की अपनी तकनीकों का सहारा लिया है। बेहद कम बारिष, जानलेवा धूप और दूर-दूर तक फैली रेत के बीच जीवन इतना सजीव व रंगीन कैसे है, इस तिलस्म को तोड़ा है गांधी षांति प्रतिश्ठान, नई दिल्ली  के मषहूर पर्यावरणविद तथा अभी तक हिंदी की सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तक ‘‘आज भी खरे हैं तालाब’’ के लेखक अनुपम मिश्र ने।  उन्होंने रेगिस्तान के बूंद-बूंद पानी को जोड़ कर लाखों कंठ की प्यास बुझाने की अद्भूत संस्कृति को अपनी पुस्तक -‘राजस्थान की रजत बूंदें’’ में प्रस्तुत किया है।

‘राजस्थान’ देष का सबसे बड़ा दूसरा राज्य है परंतु जल के फल में इसका स्थान अंतिम है। यहा औसत वर्शा 60 सेंटीमीटर है जबकि देष के लिए यह आंकड़ा 110 सेमी है। लेकिन इन आंकड़ों से राज्य की जल कुडली नहीं बाची जा सकती। राज्य के एक छोर से दूसरे तक बारिष असमान रहती है, कहीं 100सेमी तो कहीं 25 सेमी तो कहीं 10 सेमी तक भी। यदि कुछ सालों की अतिवृश्टि को छोड़ दें तो चुरू, बीकानेर, जैलमेर, बाडमेर, श्रीगंगानगर, जोधपुर आदि में साल में 10 सेमी से भी कम पानी बरसता है। दिल्ली में 150 सेमी से ज्यादा पानी गिरता है, यहां यमुना बहती है, सत्ता का केंद्र है और यहां सारे साल पानी की मारा मारी रहती है, वहीं रेतीले राजस्थान में पानी की जगह सूरज की तपन बरसती है। दुनिभ्याभर के अन्य रेगिस्तानों की तुलना में राजस्थान के मरू क्षेत्र की बसावट बहुत ज्यादा है और वहां के वाषिंदों में लोक, रंग, स्वाद, संस्कृति, कला की सुगंध भी है।
पानी की कमी पर वहां के लोग आमतौर पर लोटा बाल्टी ले कर प्रदषन नहीं करते, इसकी जगह एक एक बूंद को बचाने और उसे भविश्य के लिए सहेजने के गुर पीढी दर पीढी सिखाते जाते हैं।  रेगिस्तानी इलाकों में जहां अंग्रेजी के वाय ल् आकार की लकड़ी का टुकड़ा दिखे तो मान लो कि वहां कुईया होगी।  कुईया यानि छोटा कुआ जो सारे साल पानी देता है। सनद रहे कि रेगिस्तान में यदि जमीन की छाती खोद कर पानी निकालने का प्रयास हागा तो वह आमतौर पर खारा पानी होता है। गांव वालों के पास किसी विष्वविद्यालय की डिगरी या प्रषिक्षण नहीं होता, लेकिन उनका लोक ज्ञान उन्हें इस बात को जानने के लिए पारंगत बनाता है कि अमुक स्थान पर कितनी कुईयों बन सकती हैं।  ये कुईयां भूगर्भ जल की ठाह पर नहीं होती, बल्कि इन्हें अभेद चट्टानों के आधार पर उकेरा जाता है।
ये कुइयां कहां खुद सकती है? इसका जानकार तो एक व्यक्ति होता है, लेकिन इसकी खुदाई करना एक अकेले के बस का नहीं होता। सालों साल राजस्थान की संस्कृति में हो रहे बदलाव के चलते अब कई समूह व समुदाय इस काम में माहिर हो गए हैं। खुदाई करने वालों की गांव वाले पूजा करते हैं, उनके खाने-पीने, ठहरने का इंतजाम गांव वाले करते हैं और काम पूरा हो जाने पर षिल्पकारों को उपहारों से लाद दिया जाता हैं।  यह रिष्ता केवल यहीं समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक वार -त्योहार पर उन्हें भेंट भेजी जाती हैं। आखिर वे इस सम्मान के हकदार होते भी हैं। रेतीली जमीन पर महज डेढ मीटर व्यास का कुआं खोदना कोई आसान काम नहीं हैं। रेत में दो फुट खोदो तो उसके ढहने की संभावना होती हैं। यहीं नहीं गहरे जाने पर सांस लेना दूभर होता हैं।
हुआ यूं कि गांधी षांति प्रतिश्ठान में आने वाली एक षुभचिंतक एनी मोनटॉट ने ‘रेगिस्तान की रजत बूंदें’ पुस्तक को देखा और इसका फ्रेंच अनुवाद कर डाला। जब उनसे पूछा कि फ्रेंच अनुवाद कहां काम आएगा तो जवाब था कि सहारा रेगिस्तान के इलाके के उत्तरी अफ्रीका के कई देषों में फ्रांसिसी प्रभाव रहा है और वहां अरबी, स्थानीय बर्बर बोली के अलावा ज्ञान की भाशा फा्रंसिसी ही है। कुछ दिनों बाद यह फ्रेंच अनूदित पुस्तक मोरक्को पहुंची । वहां के प्रधान मंत्री इससे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने गांधी षांति प्रतिश्ठान के एक साथी को वहां बुलवा भेजा। उन्हें हेलीकॉप्टर से रेगिस्तान दिखाया गया और भारत के रेगिस्तान की जल संरक्षण तकनीकी पर विस्तार से विमर्ष हुआ। उस 10 दिन के दौरे में यह बात स्पश्ट हो गई कि भारत की तकनीक वहां बेहद काम की है। इसके बाद इस पुस्तक की सैंकडों प्रतियां वहां के इंजीनियरों, अफसरों के बीच बंटवाई गईं। उन पर विमर्ष हुआ और आज उस देष में कोई एक हजार स्थानों पर राजस्थान के मरूस्थल में इस्तेमाल होने वाली हर बूंद को सहजने व उसके किफायती इस्तेमाल की षुद्ध देषी तकनीक के मुताबिक काम चल रहा हे। यह सब बगैर किसी राजनयिक वार्ता या समाझौतों के , किसी तामझाम वाले समारोहों व सेमीनार के बगैर चल निकला। जरिया बनी एक पुस्तक। आज उस पुस्तक के बदौलत बनी कुईयों से बस्तियां बस रही हैं, लोगों का पलायन रूक रहा है। यहां याद दिलाना जरूरी है कि सहारा रेगिस्तान की भीशण गर्मी, रेत की आंधी, बहुत कम बारिष वाले मोरक्को में पानी की मांग बढ़ रही है क्योंकि वहां खेती व उद्योग बढ़ रहे हैं। जबकि बारिष की मात्रा कम हो रही है, साथ ही औसतन हर साल एक डिगरी की दर से तापमान भी बढ़ रही है। यहां कई ओएसिस या नखलिस्तान हैं, लेकिन उनके ताबड़तोड़ इस्तेमाल से देष की जैव विविधता प्रभावित हो रही है। सन 1997 में पहले विष्व जल फोरम की बैठक भी मोरक्को में ही हुई थी। वहां की सरकार पानी की उपलब्धता बढाने को विकसित देषों की तकनीक पर बहुत व्यय करती रही, लेकिन उन्हें सफलता मिली एक पुस्तक से। फरवरी -2015 के आखिरी दिनों में मोरक्को का एक बड़ा प्रतिनिधि मंडल  भारत आया और उसने अनुपम बाबू की पुस्तकों में उल्लिखित प्रयोगों का खुद अवलोकन भी किया।
यह बानगी है कि पुस्तकें एक मौन क्रांति करती हैं जिससे हुआ बदलाव धीमा जरूर हो, लेकिन स्थाई व बगैर किसी दवाब के होता है। जिन लोगां ने अनुपम बाबू की पुस्तक ‘‘आज भी खरे हैं तालाब’’ को सहेज कर रखा है, उनके लिए यह पुस्तक भी अनमोल निधि होगी। इसकी कीमत भी रू. 200 है और इसे गांधी षांति प्रतिश्ठान, दनदायाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली 110002 से मंगवाया जा सकता हैं और यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजली भी होगी।

गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

For bettter farming looking back to organic system


पारंपरिक हुनर से बचेगी खेत 

 

किसानों की देशज, पारंपरिक तरकीब काम कर रही है। इससे फसल की मात्र भी कम नहीं हुई। भारतीय कृषि के पारंपरिक ज्ञान में कई ऐसे नुस्खे हैं जिन्हें अपनाने से ना केवल खेती की लागत कम होती है, बल्कि फसल मात्र और गुणवत्ता में भी बेहतर होती है। हरित क्रांति के नारे में फंस कर हमारा किसान रासायनिक दवा और खाद के जाल में फंस गया है। इसी की नतीजा है कि आज किसान कर्ज में दब कर हताश-परेशान है

मध्य प्रदेश का निमाड़ अंचल मिर्ची की खेती के लिए मशहूर है। पिछले साल वहां कई हजार एकड़ की फसल कीड़ा लगने के कारण नष्ट हुई, लेकिन कुछ खेत ऐसे भी थे, जहां बेहतरीन फसल उगी। पता चला कि उन खेतों के किसानों ने किसी तरह का रासायनिक खाद या कीटनाशक का इस्तेमाल नहीं किया था। वे खेतों में दूध, हल्दी और गुड़ का छिड़काव करते थे। हर सुबह खेतों के बीच खड़े होकर घंटी बजाते थे। राय के कृषि विभाग के अफसर भी वहां गए और पुष्टि हुई कि किसानों की देशज, पारंपरिक तरकीब काम कर रही है। एक बात और कि फसल की मात्र भी कम नहीं हुई। भारतीय कृषि के पारंपरिक ज्ञान में कई ऐसे नुस्खे हैं जिन्हें अपनाने से ना केवल खेती की लागत कम होती है, बल्कि फसल मात्र और गुणवत्ता में भी बेहतर होती है। विडंबना है कि हरित क्रांति के नारे में फंस कर हमारा किसान रासायनिक दवा और खाद के जाल में फंस गया है। इसी की नतीजा है कि आज किसान कर्ज में दब कर हताश-परेशान है। 

हमारे खेत किस तरह जहरीले बन गए है। उसकी बानगी है दिल्ली से सटे पष्चिम उत्तर प्रदेष के कुछ इलाके। वैसे तो नोएडा की पहचान एक उभरते हुए विकसित इलाके के तौर पर है लेकिन यहां के कई गांव वहां रच-बस चुकी कैंसर की बीमारी के कारण जाने जाते हैं। अच्छेजा गांव में बीते पांच साल में दस लोग इस असाध्य बीमारी से असामयिक काल के गाल में समा चुके हैं। अब अच्छेजा व ऐसे ही कई गांवों में लोग अपना रोटी-बेटी का नाता भी नहीं रखते हैं। दिल्ली से सटे पश्चिम उत्तर प्रदेश का दोआब इलाका, गंगा-यमुना नउी द्वारा सदियों से बहा कर लाई मिट्टी से विकसित हुआ था। यहां की मिट्टी इतनी उपजाऊ थी कि पूरे देश का पेट भरने लायक अन्न उगाने की क्षमता थी इसमें। अब प्रकृति इंसान की जरूरत तो पूरा कर सकती है, लेकिन लालच को नहीं । और  ज्यादा फसल के लालच में यहां अंधाधुंध खाद व कीटनाशकों का जो प्रयोग शुरू हुआ कि अब यहां पाताल से, नदी, से जोहड़ से, खेत से, हवा से  हवा-पानी नहीं मौत बरसती हैं। बागपत से लेकर ग्रेटर नोएडा तक के कोई 160 गांवों में हर साल सैंकड़ों लोग कैंसर से मर रहे हैं। सबसे ज्यादा लेगों को लीवर व आंत का कैंसर हुआ हे। बाल उड़ना, किडनी खराब होना, भूख कम लगना, जैसे रोग तो यहां  हर घर में हैं। सरकार कुछ कर रही है, राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण भी कुछ नोटिस दे रहा है, लेकिन इलाके में खेतों में छिड़कने वाले जहर की बिक्री की मात्रा हर दिन बढ़ रही है।  दुखद है कि अब नदियों के किनारे ‘विष-मानव’ पनप रहे हैं जो कथित विकास की कीमत चुकाते हुए असमय काल के गाल में समा रहे हैं। हमारे देश में हर साल कोई दस हजार करोड़ रूपए के कृषि-उत्पाद खेत या भंडार-गृहों में कीट-कीड़ों के कारण नष्ट हो जाते हैं । इस बर्बादी से बचने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ा हैं । जहां सन 1950 में इसकी खपत 2000 टन थी, आज कोई 90 हजार टन जहरीली दवाएं देश के पर्यावरण में घुल-मिल रही हैं । इसका कोई एक तिहाई हिस्सा विभिन्न सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के अंतर्गन छिड़का जा रहा हैं ।  सन 1960-61 में केवल 6.4 लाख हेक्टर खेत में कीटनाशकों का छिड़काव होता था। 1988-89 में यह रकबा बढ़ कर 80 लाख हो गया और आज इसके कोई डेढ़ करोड़ हेक्टर होने की संभावना है। ये कीटनाशक जाने-अनजाने में पानी, मिट्टी, हवा, जन-स्वास्थ्य और जैव विविधता को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। इपले अंधाधुंध इस्तेमाल से पारिस्थितक संतुलन बिगड़ रहा है, सो अनेक कीट व्याधियां फिर से सिर उठा रही हैं। कई कीटनाशियों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ गई है और वे दवाओं को हजम कर रहे हैं। इसका असर खाद्य श्रंखला पर पड़ रहा है और उनमें दवाओं व रसायनों की मात्रा खतरनाक स्तर पर आ गई है। एक बात और, इस्तेमाल की जा रही दवाईयों का महज 10 से 15 फीसदी ही असरकारक होता है, बकाया जहर मिट्टी, भूगर्भ जल, नदी-नालों का हिस्सा बन जाता है। यह दुर्दषा अकेले नोएडा की नहीं, बल्कि देष के अधिकांष खेतों की हो गई है।
 
महंगी व नकली के डर से बिकने वाली रासायनिक खादों के विकल्प की ही बात करें तो पुष्तैनी तालाब इस मामले में ‘‘एक पंथ पदो काज’’ हैं। हमारी सरकारें बजट का रोना रोती हैं कि पारंपरिक जल संसाधनों की सफाई के लिए बजट का टोटा है। हकीकत में तालाबों की सफाई और गहरीकरण अधिक खर्चीला काम नही है ,ना ही इसके लिए भारीभरकम मषीनों की जरूरत होती है। यह सर्वविदित है कि तालाबों में भरी गाद, सालों साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ठ पदार्थो के कारण ही उपजी है, जो उम्दा दर्जे की खाद है। रासायनिक खादों ने किस कदर जमीन को चौपट किया है? यह किसान जान चुके हैं और उनका रुख अब कंपोस्ट व अन्य देषी खादों की ओर है। किसानों को यदि इस खादरूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपा जाए तो वे वे सहर्ष राजी हो जाते हैं। उल्लेखनीय है कि राजस्थान के झालावाड़ जिले में ‘‘खेतों मे पालिश करने’’ के नाम से यह प्रयोग अत्यधिक सफल व लोकप्रिय रहा है । कर्नाटक में समाज के सहयोग से ऐसे कोई 50 तालाबों का कायाकल्प हुआ है, जिसमें गाद की ढुलाई मुफ्त हुई, यानी ढुलाई करने वाले ने इस बेषकीमती खाद को बेच कर पैसा कमाया। इससे एक तो उनके खेतों को उर्वरक मिलता है, साथ ही साथ तालाबों के रखरखाव से उनकी सिंचाई सुविधा भी बढ़ती है। सिर्फ आपसी तालमेल, समझदारी और अपनी पंरपरा तालाबों के संरक्षण की दिली भावना हो तो ना तो तालाबों में गाद बचेगी ना ही सरकारी अमलों में घूसखोरी की कीच होगी।
बस्तर का कोंडागांव केवल नक्सली प्रभाव वाले क्षेत्र के तौर पर ही सुर्खियों में रहता है, लेकिन यहां डा. राजाराम त्रिपाठी के जड़ीबूटियों के जंगल इस बात की बानगी हैं कि सूखी पत्तियां कितने कमाल की हैं। डा. त्रिपाठी काली मिर्च से लेकर  सफेद मूसली तक उत्पादन करते हैं व पूरी प्रक्रिया में में किसी भी किस्म की रासायनिक खाद, दवा या अन्य तत्व इस्तेमाल नहीं करते हैं। गर्मियों के दिनों में उनके कई एकड़ में फैले जंगलों में साल व अन्य पेड़ों की पत्तियों पट जाती हैं। बीस दिन के भीतर ही वहां मिट्टी की परत होती है। असल में उनके ंजगलों में दीमक को भी जीने का अवसर मिला है और ये दीमक इन पत्तियों को उस ‘‘टाप सॉईल’’ में बदल देती हैं जिसका एक सेंटीमीटर उपजाने में प्रकृति को सदियों का समय लग जाती है।
कुछ साल पहले थियोसोफीकल सोसायटी, चैन्नई में कोई पचास से अधिक आम के पेड़ रोगग्रस्त हो गए थे । आधुनिक कृषि-डाक्टरों को कुछ समझ नहीं आ रहा था । तभी समय की आंधी में कहीं गुम हो गया सदियों पुराना ‘‘वृक्षायुर्वेद’’ का ज्ञान काम आया । सेंटर फार इंडियन नालेज सिस्टम (सीआईकेएस) की देखरेख में नीम और कुछ दूसरी जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल किया गया । देखते ही देखते बीमार पेड़ों में एक बार फिर हरियाली छा गई । ठीक इसी तरह चैन्नई के स्टेला मेरी कालेज में बाटनी के छात्रों ने जब गुलमेंहदी के पेड़ में ‘‘वृक्षायुर्वेद’’ में सुझाए गए नुस्खों का प्रयोग किया तो पता चला कि पेड़ में ना सिर्फ फूलों के घने गुच्छे लगे , बल्कि उनका आकार भी पहले से बहुत बड़ा था । वृक्षायुर्वेद के रचयिता सुरपाल कोई एक हजार साल पहले दक्षिण भारत के शासक भीमपाल के राज दरबारी थे । वे वैद्ध के साथ-साथ अच्छे कवि भी थे । तभी चिकित्सा सरीखे गूढ़ विषय पर लिखे गए उनके ग्रंथ वृक्षायुर्वेद को समझने में आम ग्रामीण को भी कोई दिक्कत नहीं आती है ।उनका मानना था कि जवानी,आकर्षक व्यक्तित्व, खूबसूरत स्त्री,बुद्धिमान मित्र, कर्णप्रिय संगीत, सभी कुछ एक राजा के लिए अर्थहीन हैं, यदि उसके यहां चित्ताकर्षक बगीचे नहीं हैं । सुरपाल के कई नुस्खे अजीब हैं -जैसे, अशोक के पेड़ को यदि कोई महिला पैर से ठोकर मारे तो वह अच्छी तरह फलता-फूलता है , या यदि कोई सुंदर महिला मकरंद के पेड़ को नाखुनों से नोच ले तो वह कलियों से लद जाता है । सुरपाल के कई नुस्खे आसानी से उपलब्ध जड़ी-बूटियों पर आधारित हैं । महाराष्ट्र में धोबी कपड़े पर निशान लगाने के लिए जिस जड़ी का इस्तेमाल करते हैं, उसे वृक्षायुर्वेद में असरदार कीटनाशक निरुपित किया गया है । भल्लाटका यानि सेमीकार्पस एनाकार्डियम का छोटा सा टुकड़ा यदि भंडार गृह में रख दिया जाए तो अनाज में कीड़े नहीं लगते हैं और अब इस साधारण सी जड़ी के उपयोग से केंसर सरीखी बीमारियों के इलाज की संभावनाओं पर शोध चल रहे हैं ।
पंचामृत यानि गाय के पांच उत्पाद- दूध,दही,घी,गोबर और गौमू़़़त्र के उपयोग से पेड़-पौधों के कई रोग जड़ से दूर किए जा सकते हैं ।‘ वृक्षायुर्वेद ’ में दी गई इस सलाह को वैज्ञानिक रामचंद्र रेड्डी और एएल सिद्धारामैय्या ने आजमाया । टमाटर के मुरझाने और केले के पनामा रोग में पंचामृत की सस्ती दवा ने सटीक असर किया । इस परीक्षण के लिए टमाटर की पूसा-रूबी किस्म को लिया गया सुरपाल के सुझाए गए नुस्खे में थोड़ा सा संशोधन कर उसमें यीस्ट और नमक भी मिला दिया गया । दो प्रतिशत घी, पांच प्रतिशत दही और दूध, 48 फीसदी ताजा गोबर, 40 प्रतिशत गौ मूत्र के साथ-साथ 0.25 ग्राम नमक और इतना ही यीस्ट मिलाया गया । ठीक यही फार्मूला केले के पेड़ के साथ भी आजमाया गया, जो कारगर रहा ।
सीआईकेएस में बीते कई सालों से  वृक्षायुर्वेद और ऐसे ही पुराने ग्रंथों पर शोध चल रहे हैं । यहां बीजों के संकलन, चयन, और उन्हें सहेज कर रखने से ले कर पौधों को रोपने, सिंचाई, बीमारियों से मुक्ति आदि की सरल पारंपरिक प्रक्रियाओं को लोकप्रिय बनाने के लिए आधुनिक डिगरियों से लैस कई वैज्ञानिक प्रयासरत हैं । पशु आयुर्वेद, सारंगधर कृत उपवन विनोद और वराह मिरीह की वृहत्त्त संहिता में सुझाए गए चमत्कारी नुस्खों पर भी यहां काम चल रहा है ।
खेती-किसानी के ऐसे ही कई हैरत अंगेज नुस्खे भारत के गांव-गांव में पुराने, बेकार या महज भावनात्मक साहित्य के रूप में बेकार पड़े हुए हैं । ये हमारे समृद्ध हरित अतीत का प्रमाण तो हैं ही, प्रासंगिक और कारगर भी हैं । अब यह बात सारी दुनिया मान रही है कि प्राचीन भारतीय ज्ञान के इस्तेमाल से कृषि की लागत घटाई जा सकती है । यह खेती का सुरक्षित तरीका भी है, साथ ही इससे उत्पादन भी बढ़ेगा ।

पंकज चतुर्वेदी
यूजी-1, 3/186 ए राजेन्द्र नगर
सेक्टर-2
साहिबाबाद
गाजियाबाद 201005
9891928376, 0120-4241060

 

सोमवार, 19 दिसंबर 2016

South china sea conflcit : power game for oil and gas


दक्षिणी चीन समुद्र में सुलगती आग

असल झगडा तो उर्जा भंडार पर कब्जे का है

अभी 15 दिसंबर को चीन ने अमेरिका का एक पानी के भीतर काम करने वाले ड्रोन को दक्षिणी चीन समुद्र  से जब्त कर लिया। हालांकि अमेरिका के सैन्य मुख्यालय ने अपने राजनयिक माध्यम का इस्तेमाल कर चीन को इस बात पर राजी कर लिया कि वह जब्त ड्रोन को वैधानिक तरीके से लौटा देगा। लेकिन इसी बीच  अमेरिका के राश्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित हो चुके डोनाल्ड ट्रंप के दो ट्वीट ने बात को बिगाड़ दिया। ट्रंप ने कह दिया कि चीन ने हमारे ड्रोन को चुराया है और वह अब हमें वापिस नहीं चाहिए, वह उसे अपने ही पास रख ले। यहां जानना जरूरी है कि दक्षिणी चीने के समु्रद में सुलग रही आग काफी सालों से भड़कते-भड़कते बच रही है। यह भी जानना जरूरी है कि कोई 35 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले दक्षिणी चीन समुद्र क्षेत्र का नाम ही चीन पर है और उस पर चीन का कोई ना तो पारंपरिक हक है और ना ही वैधानिक। इस पर मुहर इसी साल जुलाई में अंतरराश्ट्रीय  न्यायालय लगा चुका है कि इस समुद्र के संसाधन आदि पर चीन का कोई हक नहीं बनता है।

यह समुद्री क्षेत्र कई एशियाई देशों जिनमें  वियतनाम, फिलीपींस, मलेशिया आदि षामिल हैं, के चीन के साथ तनाव का कारण बना हुआ है। चीन ने इस इलाके के कुछ द्वीप पर लड़ाकू विमानों के लिए पट्टी बना लीं तो अमेरिका के भी कान खड़े हो गए। अमेरिका ने इस पर सख्त आपत्ति जतायी और इसके बाद से दोनों देशों को बीच रिश्तों में भारी तनाव आ गया। हाल ही में अमेरिका की नौ सेना के समु्रदी सर्वेक्षण विभाग द्वारा समु्रद के खारेपन और तापमान बाबत एक सर्वेक्षण हेतु इस समुद्री क्षेत्र में एक ड्रोन को पानी की गहराई में छोड़ा था। चीन को इसकी खबर मिली तो उसने अपनी नौसेना के जरिये उस ड्रोन को पानी से निकलवा कर जब्त कर लिया। चीन का कहना था कि इस ड्रोन के कारण वहंा से गुजर रहे जहाजों के संचार व मार्गदर्शक उपकरणों में व्यवधान हो रहा था, सो उसे जब्त कर लिया गया। हालांकि यह बात किसी के गले उतर नहीं रही है। विेदश नीति के माहिर लेाग जानते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव जीतते ही उनके द्वारा ताईवान के राश्ट्रपति  तसाई इंग वेनमे से फोन पर बात करना चीन को नागवार गुजरा था। चीन का कहना है कि ताईवान पर उसका कब्जा है और उसने ताईवान को केवल प्रशासिनक स्वात्तता प्रदान की है। वहीं ट्रंप ने ताईवान की चीने से मुक्ति को ले कर कई जाहिर बयान दे दिए।
दक्षिणी चीन समुद्र दक्षिणी-पूर्वी एशिया से प्रशांत महासागर के पश्चिमी किनारे तक स्थित कई देशों से घिरा है। इनमें चीन, ताइवान, फिलीपीन्स, मलयेशिया, इंडोनेशिया और वियतनाम हैं। ये सभी देश इस समुद्र पर अपने-अपने दावे कर रहे हैं। 1947 में चीन ने नक्शे के जरिए इस पर अपना दावा पेश किया था। यह सीमांकन काफी व्यापक था और उसने लगभग पूरे इलाके को शामिल कर लिया। इसके बाद कई एशियाई देशों ने चीन के इस कदम से असहमति जताई। वियतनाम, फिलीपीन्स और मलयेशिया ने भी कई द्वीपों पर दावा किया। वियतनाम ने कहा कि उसके पास जो नक्शा है उसमें पार्सेल और स्प्रैटली आइलैंड्स प्राचीन काल से उसका हिस्सा है। इसी तरह ताइवान ने भी दावा किया।17 साल से फिलीपींस कूटनीतिक प्रयासों के जरिये चीन से दक्षिण चीन सागर विवाद सुलझा लेना चाहता था. बात बनी नहीं, तो फिलिपींस ने 2013 में हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण ‘पीसीए’ का दरवाजा खटखटाया. न्यायाधिकरण ने 12 जुलाई को संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून के अनुच्छेद-258 को आधार बना कर फैसला दिया कि ‘नाइन डैश लाइन’ की परिधि में आनेवाले जल क्षेत्र पर चीन कोई ऐतिहासिक दावेदारी नहीं कर सकता. इस फैसले से बाकी देशों को भी राहत मिली है.
असल में यह समु्रद क्षेत्र दुनिया का महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग है। इस इलाके से हर साल कम से कम पांच सौ अरब डॉलर के सामान की आवाजाही होती है। यहां तेल और गैस का विशाल भंडार है। यूएस डिपार्टमेंट ऑफ एनर्जी के अनुमान के मुताबिक यहां 11 बिलियन बैरल्स ऑइल और 190 ट्रिलियन क्यूबिक फीट प्राकृतिक गैस संरक्षित है। 1982 के यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन ऑन द लॉ ऑफ द सी के मुताबिक कोई भी देश अपने समुद्री तटों से 200 नॉटिकल मील की दूरी तक समुद्री संसाधनों- मछली, तेल, गैस आदि पर दावा कर सकता है। इस संधि को चीन, वियतनाम, फिलीपीन्स और मलयेशिया ने तो माना लेकिन अमेरकिा ने इस पर दस्तखत नहीं किए। वैेसे तो दक्षिणी समु्रद पर अमेरिका का ना तो कोई दवा है और ना ही इसकी सीमा उससे कहीं लगती है। लेकिन वह इस महत्वपूर्ण मार्ग व उर्जा के भंडार पर निगाह तो रखता ही है और उसकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा कोई है तो वह है चीन। गौरतलब है कि इस इलाके के उर्जा संसाधनों पर भारत की भी रूचि है। वियेतनाम तो भारत को बाकायदा यहां गैस व तेल की खोज के लिए आमंत्रित भी कर चुका है। सन 2011 में ओएनजीसी विदेश लिमिटेड ने जब वियतनाम में तेल की खोज आरंभ की, तो चीन काफी रोष में था. मई, 2014 में चीन ने पारासेल आइलैंड के पास तेल दोहन वाले रिग खड़े कर दिये, जिससे कई दुर्घटनाएं हुईं. चीन कई बार अमेरिका को धमका चुका है कि वह दक्षिण चीन सागर से दूर रहे. चीन ने इन दिनों कहना शुरू किया है कि भारत यदि वियतनाम में तेल की खोज कर सकता है, तो पाक अधिकृत कश्मीर में हमारे प्रोजेक्ट क्यों नहीं लग सकते। वहीं इसी साल जुलाई में इस इलाके में अमेरिकी जेट उड़ने को ले कर चीन व अमेरिका में गंभीर टकराव हो चुका हे। अमेरिका वहां चीन के दखल को गैरकानूनी कहता है तो चीन वहां अमेरिका की सनय गतिविधियों को नापसंद कर रहा है।
यह तो स्पश्ट हो गया है कि दक्षिणी समुद्र सीमा में ड्रोन पकड़ना या छोड़ना तो महज एक बहाना है, असल में यहां अपना रूतबा दिखाने और अधिक से अधिक हक पाने की चालें तो यहां के व्यावसायिक खजाने पर हिस्सेदारी को ले कर है। अमेरिका में यह सत्ता परिवर्तन का संक्रमण काल है और आने वाले राश्ट्रपति ने अपने चुनाव प्रचार में ही चीन को सबक सिखाने, एशिया में उसकी दादागिरी समाप्त करने के कई वायदे किए थे। वहीं तेल व गैस के लिए अरब देशों पर उसकी निर्भरता  का आधार भी कमजोर होता जा रहा हे। एक तो तेल भ्ंाडार वाले अरब का बड़ा हिस्सा घरेलू हिंसा की चपेट में है, दूसरा घरेलू दवाब के चलते उस क्षेत्र में वह अब लंबे समय तक सेना रख नहीं पाएगा। ऐसे हालात में उसे तेल व गैस के नए भंडार चाहिए। जाहिर है कि इसके लिए वह अपने पुराने दुश्मन वियेतनाम  से भी हाथ मिला सकता है। वहीं ताईवान, फिलीपींस आदि चीन के हाथो ंसे अपनी मुक्ति के लिए अमेरिका की षरण में जा सकते हैं। ऐसे में दक्षिणी समु्रद का इलाका टकरव, युद्ध और नए वैश्विक धु्रवीकरण का केंद भी बन सकता है।

शनिवार, 10 दिसंबर 2016

Political parties making white of black money

बढती उम्मीदवारी से घटता लोकतंत्र
पंकज चतुर्वेदी
नोट बंदी के बाद काले धन पर मुकम्मल चोट की उम्मीद पाले आम लोगों के लिए भारत के निर्वाचन आयोग ने यह जानकारी भी दे दी कि असल में अवैध धन का मूल राजनीतिक दल हैं नाकि गांव- टोलों का वह आम आदमी जो अपने ही पैसे लेने के लिए एक महीने से लाईनों में लगा है। बकौल मुख्य चुनाव आयुक्त इस समय भारतीय निर्वाचन आयोग में 1900 से ज्यादा राजनीतिक दल नामांकित हैं लेकिन इनमें से 400 से अधिक दल आज तक कोई चुनाव नहीं लड़ा।  आयोग ने आशंका जताई है कि ऐसे दलों को बनाने का असली मकसद  कालेधन को सफेद करना होता है। उल्लेखनीय है कि पंजीकृत राजनीतिक दलों को चंदा लेने, आयकर से छूट जैसी कई सुविधांए मिली हुई हैं। यह भी जान लें कि केवल चुनाव ना लड़ने वाले 400 दल ही इस खेल में खलनायक नहीं हैं, कई ऐसे भी दल हैं जो नाम के लिए चुनाव लड़ते हैं व गंभीरता से चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिए तय सीमा से अधिक खर्च में भागीदार होते हैं। यही नहीं बहुत से वोट कटवा दल लोकतंत्र को इतना कमजोर कर रहे हैं कि अब कुल मतदाता के 14-15 फीसदी वोट ले कर भी लेाग मानननीय बन रहे हैं नतजतन उन्हें जनता का व्यापक समर्थन मिलता नहीं है। और ना ही वे जनभवानओं की कदर करते हैं। हालांकि चुनाव आयोग ने ऐसे दलों को छांट कर उन पर कार्रवाई की प्रक्रिया शुरू कर दी है। जैदी ने कहा, “इन दलों का नाम रद्द  किए जाने के बाद उन्हें राजनीतिक दल के तौर पर मिलने वाले दान या आर्थिक मदद पर आयकर से मिलने वाली छूट बंद हो जाएगी। ”

हालांकि चुनाव आयोग अब कुछ दलों से उनकी आय-व्यय का ब्यौरा मांग रहा है ताकि उनकी मान्यता रद्द करने की प्रक्रिया ष्ुारू की जा सके, लेकिन जान लें  कि यह सबकुछ इतना आसान नहीं होगा। चुनाव आयोग ने राज्य चुनाव आयोग से कभी चुनाव न लड़ने वाली पार्टियों को मिले चंदे का भी ब्योरा मांगा है। जैदी के अनुसार चुनाव आयोग अब हर साल सभी पंजीकृत राजनीतिक दलों की जांच की जाएगी और किसी तरह की अनियमितता पाए जाने पर उन पर कार्रवाई की जाएगी। भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी ने देष के राजनीतिक दलों के  काला धन में लबालब होने की जो बात कही, यह पहली बार नहीं है। इससे पहले सन 2011 में भी एस.वाय. कुरेषी के काल में इस पर गंभीर कदम उठाने के सुझाव दिए गए थे, लेकिन किसी की भी इच्छा षक्ति  चुनाव प्रक्रिया में षुचिता की नहीं रही है।
लोकतंत्र में पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिए राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत लाने और उन्हें मिलने वाले चंदे पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं लेकिन इस मसले पर ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां एकमत हैं। इस मसले पर एक आरटीआई पर सुनवाई करते हुए जब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र की वर्तमान सरकार की राय जाननी चाही थी तो सरकार ने राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के तहत लाने का विरोध किया था। सरकार ने कहा था कि “अगर राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के तहत लाया गया तो इससे उनके सुचारू कामकाज में अड़चन आएगी।” एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक (एडीआर) रिफॉर्म्स के साल 2013-14 के आंकड़ों के अनुसार देश की छह राष्ट्रीय पार्टियों की कुल आय का 69.3 प्रतिशत “अज्ञात स्रोत” से आया था। एडीआर के आंकड़ों के अनुसार साल 2013-14 में छह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के पास कुल 1518.50 करोड़ रुपये थे। राजनीतिक दलों में सबसे अधिक पैसा बीजेपी (44ः) के पास था। वहीं कांग्रेस (39.4ः), सीपीआई(एम) (8ः), बीएसपी (4.4ः) और सीपीआई (0.2ः) का स्थान था। सभी राजनीतिक दलों की कुल आय का 69.30 प्रतिशत अज्ञात स्रोतों से आया था। राजनीतिक पार्टियों को अपने आयकर रिटर्न में 20 हजार रुपये से कम चंदे का स्रोत नहीं बताना होता। पार्टी की बैठकों-मोर्चों से हुई आय भी इसी श्रेणी में आती है। साल 2013-14 तक सभी छह राष्ट्रीय पार्टियों की कुल आय में 813.6 करोड़ रुपये अज्ञात लोगों से मिले दान था। वहीं इन पार्टियों को पार्टी के कूपन बेचकर 485.8 करोड़ रुपये की आय हुई थी।  साल 2013-14 में कांग्रेस की कुल आय का 80.6 प्रतिशत और बीजेपी की कुल आय का 67.5 प्रतिशत अज्ञात स्रोतों से आया था।
चुनाव आयोग में इस समय पंजीकृत राजनीतिक दलों की संख्या 1866 है जिसमें 56 मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय दल हैं जबकि शेष गैर मान्यता प्राप्त पंजीकृत दल थे।  पिछले लोकसभा चुनाव 2014 के दौरान464 राजनीतिक दलों ने उम्मीदवार खड़े किये थे। चुनाव आयोग द्वारा एकत्र आंकड़ों को संसद में उपयोग के लिए विधि मंत्रालय के साथ साझा किया गया था। मंत्रालय का विधायी विभाग आयोग की प्रशासनिक इकाई है।  चुनाव आयोग के अनुसार 10 मार्च 2014 तक देश में ऐसे राजनीतिक दलों की संख्या 1593 थी। 11 मार्च से 21 मार्च के बीच 24 और दल पंजीकृत हुए और 26 मार्च तक 10 और दल पंजीकतृ हुए। पिछले वर्ष मार्च के अंत तक चुनाव आयोग में पंजीकृत राजनीतिक दलों की संख्या 1627 दर्ज की गई।  आज यह 1800 से पार हो गई। यह चौंकाने वाली बात आयोग की  छानबीन में उजागर हुई कि कुछ दल चंदे से उगाहे पैेसे को शेयर बाजार में लगा देते हैं व  एवं कुछ गहने खरीद लेते हैं। राजनीतिक दल कों के गठन पर कड़ाई करने या उनको मिलने वाले चंदे पर छूट हटाने जैसे मसलों के विरोध में भी कई बातें  कही जाती हैं। हालांकि सन 2011 में भी आयोग ने कुछ और सिफारिशें की थीं-. मसलन, राजनीतिक दलों को अपने खातों की नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक या आयोग की ओर से अधिकृत लेखाकार से अपने एकाउंट का अंकेक्षण करवाएं ,खातों का सालाना लेखा-जोखा प्रकाशित करें आदि। सिफारिष यह भी थी के इन बातों को ना मानने वाले दल की मान्यता रद्द कर दी जाए।

मामला अकेले काले धन का नहीं है, इसकी बानगी मध्यप्रदेष विधानसभा के पिछले चुनाव के ये आंकड़े हैं - मध्यप्रदेष में 230 सीटों के लिए कोई 57 पार्टियों के 3179 उम्मीदवार मैदान में थे। इनमें 1397 निर्दलीय थे। दलीय उम्मीदवारों की हालत कुछ ऐसी थी- समाजवादी पार्टी , कुल उम्मीदवार 187, जीता-1;बसपा 228 में जीते 7; लोजपा 119 में जीते 0, जनषक्ति 201 में जीते 05। सीट- चंदला, कुल मतदान 56.98, उम्मीदवार 24 और विजेता भाजपा उम्मीदवार को मिले इसके भी महज 20.65 प्रतिषतं । यह है कुल मतदाता का 11.76 प्रतिषत। महाराजपुर- कुल मतदान 65.15 प्रतिषत, उम्मीदवारों की संख्या 20 और विजेता को मिले महज 18.78 प्रतिषत वोट।ये आंकड़े गवाह हैं कि जिसे हम बहुमत की पसंद कह रहे हैं उसे तो कुल मतदाओं के चौथाई तो क्या आठवें हिस्से का भी समर्थन प्राप्त नहीं है। गंभीरता से देखें तो यह कुछ लोगों के लिए यह सत्ता हथियाने का पर्व था, तो कुछ लोगों के लिए किसी को नीचे गिराने का साधन । ऐेसे लोगों की संख्या भी कम नहीं थी जोकि इसे मखौल मान रहे थें, या फिर कतिपय नेताओं के लिए ऐसे औजार बन रहे थे, जो लोकतंत्र की जड़ों पर प्रहार कर उसे कमजोर करने में लगे हैं । कुछ सौ वोट पाने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या, जमानत राषि बढ़ाने से भले ही कम हो गई हो, लेकिन लोकतंत्र का नया खतरा वे पार्टियां बन रही हैं, जो कि महज राश्ट्रीय दल का दर्जा पाने के लिए तयषुदा वोट पाने के लिए अपने उम्मीदवार हर जगह खड़ा कर रही हैं । ऐसे उम्मीदवारों की संख्या में लगातार बढ़ौतरी से मतदाताओं को अपने पसंद का प्र्रत्याषी चुनने  में बाधा तो महसूस होती ही है, प्रषासनिक  दिक्कतें व व्यय भी बढ़ता है । ऐसे प्रत्याषी चुनावों के दौरान कई गड़बड़ियां और अराजकता फैलाने में भी आगे रहते हैं ।
सैद्धांतिक रूप से यह सभी स्वीकार करते हैं कि ‘‘बेवजह- उम्मीदवारों’’ की बढ़ती संख्या स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधक है, इसके बावजूद इन पर पाबंदी के लिए चुनाव सुधारेंा की बात कोई भी राजनैतिक दल नहीं करता है । करे भी क्यों ? आखिर ऐसे अगंभीर उम्मीदवार उनकी ही तो देन होते हैं । जब से चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च पर निगरानी के कुछ कड़े कदम उठाए हैं, तब से लगभग सभी पार्टियां कुछ लोगों को निर्दलीय या किसी छोटे दल के नाम से ‘छद्म’ उम्मीदवार खड़ा करती हैं । ये प्राक्सी प्रत्याषी, गाडियों की संख्या, मतदान केंद्र में अपने प्क्ष के अधिक आदमी भीतर बैठाने जैसे कामों में सहायक होते हैं । किसी जाति-धर्म या क्षेत्रविषेश के मतों को किसी के पक्ष में एकजूट में गिरने से रोकने के लिए उसी जाति-संप्रदाय के किसी गुमनाम उम्मीदवार को खड़ा करना आम कूट नीति बन गया है । विरोधी उम्मीदवार के नाम या चुनाव चिन्ह से मिलते-जुलते चिन्ह पर किसी को खड़ा का मतदाता को भ्रमित करने की योजना के तहत भी मतदान- मषीन का आकार बढ़ जाता है । चुनाव में बड़े राजनैतिक दल भले ही मुद्धों पर आधारित चुनाव का दावा करते हों,, लेकिन जमीनी हकीकत तो यह है कि देष के 200 से अधिक चुनाव क्षेत्रों में जीत का फैसला वोट-काटू उम्मीदवारों के कद पर निर्भर है ।
लोकतंत्र में चुनाव लड़ने का हक सभी को है लेकिन जब यह उम्मीदवारी लोकतंत्र की मूल भावना की ही हत्या करने लगे तो उस पर नियंत्रण करना भी अनिवार्य है। अवैध धन, कर की चोरी, चुनाव प्रक्रिया में धन का बढ़ता महत्व जैसी बीमारियों का इलाज करना है तो कम से कम लोकसभा चुनाव में छोटे दलों पर पाबंदी या नियंत्रण पर विचार जरूर होना चाहिए। साथ ही राजनीतिक दलों के चंदे, उसके व्यय का सालाना जाहिरा किया जाना भी अनिवार्य करना चाहिए।

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

MOBILE BECOMING SEX MARKET


सायबर पर फना होती यौन वर्जनाएं

देश की सर्वोच्च अदालत ने अभी छह दिसंबर 2016 को एक आदेश दिया है कि गूगल, फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट, व्हाट्सएप आदि इलेक्ट्रानिक संचार माध्यम सुनिश्चित करें कि महिलओं के साथ यौनिक अत्याचार के कोई क्लीप उन पर ना हों। सनद रहे कि यूट्यूब, हो या हाथ का मोबाईल में संचार के विभिन्न माध्यम, हर दिन ऐसे सैंकड़ों क्लीप देखने को मिलते हैं जिसमें कुछ वीडियो किसी महिला का शील भंग कर रहे होते हैं व उनका ही एक साथी उसका वीडियो बनाता है। यह दुखद है कि जिस संचार क्रांति के बल पर सरकार देश को गति देना चाहती है, उसी का इस्तेमाल कुछ लोग अपनी मति भ्रष्ट करने में कर रहे हैं। यह भी याद करें कि अगस्त 2015 में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को ऐसे ही एक मामले में कहा था कि वह लोगों के बेड रूम में दखल नहीं कर सकती। लेकिन यह तो सोचना ही होगा कि जब लोगों का बेड रूम या निजी जीवन साईबर-संजाल की मंडी पर बिके और उसे देख कर लोग चस्के लें तो जाहिर है कि सरकार की सामाजिक जिम्मेदारी बनती ही है। इंटरनेट पर कई करोड़ ऐसे वीडियो, फोटो, क्लीप उपलब्ध हैं जिसमें होटल में ठहरे, पार्क में बैठे या किसी के भरोसे को खुफिया कैेमरे में टूटने के अंतरंग पल जाहिरा हो रहे हैं। कई बार लोगों को पता ही नहीं चलता कि वे जिस होटल में ठहरे थे या किसी शो रूम के ट्रायल रूम में कपड़े बदल रहे थे, वहां लगे खुफिया कैेमरे से उतारी गई उनकी जीवंत तस्वीरें नेट पर पूरी दुनिया में खूब देखी जा रही हैं।
बीते साल यह तसल्ली कुछ ही घंटे की रही कि चलो अब इंटरनेट पर कुछ सौ नंगी वेबसाईट नहीं खुलेंगी। एक तरफ कुछ ‘‘अभिव्यक्ति की आजादी’’ का नारा लगा कर नंगी साईटों पर पाबंदी की मुखालफत करते दिखे तो दूसरी ओर ऐसी साईटों से करोड़ों पीटने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश का छिद्रान्वेषण कर अपनी दुकान बचाने पर जुट गए। एक दिन भी नहीं बीता और अश्लीलता परोसने वाली अधिकांश साईट फिर बेपर्दा हो गईं। कुल मिला कर केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने हाथ खड़े कर दिए कि सभी नंगी वेबसाईटों पर रोक लगाना संभव नहीं है। संचार के आधुनिक साधन इस समय जिस स्तर पर अश्लीलता का खुला बाजार बन गए हैं, यह किसी से दबा-छुपा नहीं है। कुछ ही महीने पहले ही देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने भी नेट पर परोसे जा रहे नंगे बाजार पर चिंता जताई थी। यह विश्वव्यापी है और जाहिर है कि इस पर काबू पाना इतना सरल नहीं होगा। लेकिन दुर्भाग्य है कि हमारे देश के संवाद और संचार के सभी लोकप्रिय माध्यम देह-विमर्श में लिप्त हैं, सब कुछ खुला-खेल फर्रूकाबादी हो रहा है। अखबार, मोबाईल फोन, विज्ञापन; सभी जगह तो नारी-देह बिक रही है। अब नए मीडिया यानि वाट्सएप, वी चेट जैसी नई संचार तकनीकों ने वीडियो व चित्र भेजना बेहद आसान कर दिया है और कहना ना होगा कि इस नए संचार ने देह मंडी को और सुलभ कर दिया है। नंगेपन की तरफदारी करने वाले आखिर यह क्यों नहीं समझ रहे कि देह का खुला व्यापार युवा लोगों की कार्य व सृजन-क्षमता को जंग लगा रहा है। जिस वक्त उन्हें देश-समाज के उत्थान पर सोचना चाहिए, वे अंग-मोह में अपना समय, उर्जा व शरीर बर्बाद कर रहे है।
अश्लीलता या कुंठा और निर्लज्जता का यह खुला खेल आज संचार के ऐसे माध्यम पर चल रहा है, जो कि हमारे देश का सबसे तेजी से बढ़ता उद्योग है। सरकारी कंपनी बीएसएनएल के संदेश बॉक्स में हर दिन सैकड़ों संदेश आते हैं कि ‘‘ ठंड शुरू हो गई है, अकेले है। तो मुझसे गरम -गरम बातें करो’’ जो संचार माध्यम लोगों को जागरूक बनाने या फिर संवाद का अवसर देने के लिए है, वे अब धीरे-धीरे देह-मंडी बनते जा रहे हैं । क्या इंटरनेट, क्या फोन, और क्या अखबार ? टीवी चैनल तो यौन कुंठाओं का अड्डा बन चुके हैं।
इस समय देश में कोई 80 करोड़ मोबाईल उपभोक्ता हैं। हर दिन पचास करोड़ एसएमएस मैसेज इधर से उधर होने की बात सरकारी तौर पर स्वीकार की गई है। इसमें से 40 प्रतिशत संदेश ऐसे ही गंदे चुटकुलों के होते हैं। यहां जानना जरूरी है कि इस तरीके से चुटकुलों के माध्यम से सामाजिक प्रदूषण फैलाने में मोबाईल सेवा देने वाला ऑपरेटर कमाता है, तो समाज अपनी नैतिकता गंवाता है। इस खेल के खिलाड़ियों के लिए महिला महज एक उपभोग का शरीर रह जाती है। अब तो व्व्हाट्सएप व ऐसे ही कई उपकरण मौजूद हैं जो दृष्य-श्रव्य व सभी तरह के संदेश पलक झपकते ही दुनिया के किसी भी कोने में विस्तारित कर देते है। इन पर कोई अंकुश तो है नहीं, सो इस पर वह सब सरेआम हो रहा है जो कई बार वेबसाईटों पर भी ना हों।
आज आम परिवार में महसूस किया जाने लगा है कि ‘‘ नान वेज ’’ कहलाने वाले लतीफे अब उम्र-रिश्तों की दीवारें तोड़ कर घर के भीतर तक घुस रहे हैं। यह भी स्पष्ट हो रहा है कि संचार की इस नई तकनीक ने महिला के समाज में सम्मान को घुन लगा दी है। टेलीफोन जैसे माध्यम का इतना विकृत उपयोग भारत जैसे विकासशील देश की समृद्ध संस्कृति, सभ्यता और समाज के लिए शर्मनाक है। इससे एक कदम आगे एमएमएस का कारोबार है। आज मोबाईल फोनों में कई-कई घंटे की रिकार्डिग की सुविधा उपलब्ध है। इन फाईलों को एमएमएस के माध्यम से देशभर में भेजने पर न तो कोई रोक है और न ही किसी का डर। तभी डीपीएस, अक्षरधाम, मल्लिका, मिस जम्मू कुछ ऐसे एमएमएस हैं, जोकि देश के हर कोने तक पहुंच चुके हैं। अपने मित्रों के अंतरंग क्षणों को धोखे से मोबाईल कैमरे में कैद कर उसका एमएमएस हर जान-अंजान व्यक्ति तक पहुंचाना अब आम बात हो गई है। किसी भी सुदूर कस्बे में दो जीबी का माईक्रो एसडी कार्ड तीन सौ रूपए में ‘लोडेड’ मिल जाता है – लोडेड यानी अश्लील वीडियो से लबरेज।
आज मोबाईल हैंड सेट में इंटरनेट कनेक्शन आम बात हो गई है और इसी राह पर इंटरनेट की दुनिया भी अधोपतन की ओर है। नेट के सर्च इंजन पर न्यूड या पेार्न टाईप कर इंटर करें कि हजारों-हजार नंगी औरतों के चित्र सामने होंगे। अलग-अलग रंगों, देश, नस्ल, उम्र व शारीरिक आकार के कैटेलाग में विभाजित ये वेबसाईटें गली-मुहल्लों में धड़ल्ले से बिक रहे इंटरनेट कनेक्शन वाले मोबाईल फोन खूब खरीददार जुटा रहे हैं। साईबर पर मरती संवेदनाओं की पराकाष्ठा ही है कि राजधानी दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्कूल के बच्चे ने अपनी सहपाठी छात्रा का चित्र, टेलीफोन नंबर और अश्लील चित्र एक वेबसाईट पर डाल दिए। लड़की जब गंदे टेलीफोनों से परेशान हो गई तो मामला पुलिस तक गया। ठीक इसी तरह नोएडा के एक पब्लिक स्कूल के बच्चों ने अपनी वाईस प्रिंसिपल को भी नहीं बख्शा। फेसबुक और अन्य सोशल साईट्स सेक्स की मंडी बने हुए हैं वहां भाभी जैसे पवित्र रिश्ते से ले कर लड़कियों के आम नाम तक हजारों हजार नंगे फोटो से युक्त पेज बने हुए हैं। कुछ साईट तो कार्टून -स्केच में वेलम्मा व सविता भाभी के नाम पर हर दिन हजारों की धंधा कर रही हैं।
अब तो वेबसाईट पर भांति-भांति के तरीकों से संभोग करने की कामुक साईट भी खुलेआम है। गंदे चुटकुलों का तो वहां अलग ही खजाना है। चैटिंग के जरिए दोस्ती बनाने और फिर फरेब, यौन शोषण के किस्से तो आए रोज अखबारों में पढ़े जा सकते हैं।
शैक्षिक, वैज्ञानिक, समसामयिक या दैनिक जीवन में उपयोगी सूचनाएं कंप्यूटर की स्क्रीन पर पलक झपकते मुहैया करवाने वाली इस संचार प्रणाली का भस्मासुरी इस्तेमाल बढ़ने में सरकार की लापरवाही उतनी ही दोषी है, जितनी कि समाज की कोताही। चैटिंग से मित्र बनाने और फिर आगे चल कर बात बिगड़ने के किस्से अब आम हो गए हैं। इंटरनेट ने तो संचार व संवाद का सस्ता व सहज रास्ता खोला था। ज्ञान विज्ञान, देश-दुनिया की हर सूचना इसके जरिए पलक झपकते ही प्राप्त की जा सकती है। लेकिन आज इसका उपयोग करने वालों की बड़ी संख्या के लिए यह महज यौन संतुष्टि का माध्यम मात्र है। वैसे इंटरनेट पर नंगई को रोकना कोई कठिन काम नहीं है, चीन इसकी बानगी है, जहां पूरे देश में किसी भी तरह की पोर्न साईट या फेसबुक पर पूरी तरह पाबंदी है। एक तो उन्हें खोला ही नहीं जा सकता, यदि किसी ने हैक कर ऐसा कुछ किया तो पकड़े जाने पर कड़ी सजा का प्रावधान है। बीजिंग जैसे शहर में वाई-फाई और थ्रीजी युक्त मोबाईल आम हैं, लेकिन मजाल है कि कोई ऐसी-वैसी साईट देख ले। यह सब बहुत ही समान्य तकनीकी प्रणाली से किया जा सकता है।
दिल्ली सहित महानगरों से छपने वाले सभी अखबारों में एस्कार्ट, मसाज, दोस्ती करें जैसे विज्ञापनों की भरमार है। ये विज्ञापन बाकायदा विदेशी बालाओं की सेवा देने का ऑफर देते हैं। कई-कई टीवी चैनल स्टींग आपरेशन कर इन सेवाओं की आड़ में देह व्यापार का खुलासा करते रहे है। हालांकि यह भी कहा जाता रहा है कि अखबारी विज्ञापनों की दबी-छिपी भाषा को तेजी से उभर रहे मध्यम वर्ग को सरलता से समझाने के लिए ऐसे स्टींग आपरेशन प्रायोजित किए जाते रहे हैं। ना तो अखबार अपना सामाजिक कर्तव्य समझ रहे हैं और ना ही सरकारी महकमे अपनी जिम्मेदारी। दिल्ली से 200-300 किलोमीटर दायरे के युवा तो अब बाकायदा मौजमस्ती करने दिल्ली में आते हैं और मसाज व एस्कार्ट सर्विस से तृप्त होते हैं।
मजाक, हंसी और मौज मस्ती के लिए स्त्री देह की अनिवार्यता का यह संदेश आधुनिक संचार माध्यमों की सबसे बड़ी त्रासदी बन गया हैं। यह समाज को दूरगामी विपरीत असर देने वाले प्रयोग हैं। चीन, पाकिस्तान के उदाहरण हमारे सामने हैं, जहां किसी भी तरह की अश्लील साईट खोली नहीं जा सकती। यदि हमारा सर्च इंजन हो तो हमें गूगल पर पाबंदी या नियंत्रित करने में कोई दिक्कत नहीं होगी और एक बार गूगल बाबा से मुक्ति हुई, हम वेबसाईटों पर अपने तरीके से निगरानी रख सकेंगें। कहीं किसी को तो पहल करनी ही होगी, सो सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पहल कर चुके हैं। अब आगे का काम नीति-निर्माताओं का है।

गुरुवार, 8 दिसंबर 2016

Pleasure reading can enhance reading ability of pupil

गैर पाठ्य-पुस्तकों से सरल होगी पढ़ने-समझने की प्रक्रिया


पिछले कुछ दिनों से दिल्ली के सभी रेडियो स्टेशन पर दिल्ली सरकार का एक विज्ञापन चल रहा था जिसमें कहा जा रहा था कि एक सर्वेक्षण के अनुसार देश की राजधानी में सरकारी स्कूल में पढने वाले 75 फीसदी बच्चे अपनी पाठ्य पुस्तक को ठीक से पढ नहीं पाते हैं। पढ नहीं पाते हैं तो समझ नहीं पाते और समझ नहीं पाते तो उस पर अमल नहीं कर पाते। भला हो दिल्ली सरकार का कि उसने यह कटु सत्य स्वीकार कर लिया, जब से कक्षा आठ तक फेल करने की नीति शुरू हुई है उसके बाद दिल्ली के पचास किलोमीटर दायरे के स्कूलों के आठवीं तक के बच्चे अपनी भाषा की पुस्तक ठीक से बांच नहीं पा रहे हैं। शायद यही कारण है कि कक्षा 10 के आते-आते इनमें से 40 प्रतिशत शिक्षा छोड़ देते हैं। उनके लिए स्कूल, पुस्तक, परीक्षा, डिग्री महज एक उबाऊ या रटने वाली गैर उत्पादक प्रक्रिया होती है व उसमें वे अपनी रोटी या भविष्य नहीं देखते। मामला यही नहीं रूकता, यही अल्प शिक्षित या अशिक्षित लोग जब सरकार की योजनाओं को ठीक से पढ या समझ नहीं पाते हैं तो योजनाएं भ्रष्टाचार या कागजी आंकड़ों की शिकार हो जाती हैं। जान लें कि सारा दोष बच्चे या शिक्षक या उनके सामाजिक-आर्थिक परिेवेश का नहीं है, बहुत कुछ तो हमारी पुस्तक में छपे शब्द, प्रस्तुति, चित्र और तय किए मानक भी जिम्मेदार हैं।
वास्तव में शिक्षा प्रणाली, जिसमें पाठ्य पुस्तक भी शामिल है, का मौजूदा स्वरूप आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है। इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए। एमए पास बच्चे जब बैंक में पैसा जमा करने की स्लीप नहीं भर पाते या बारहवीं पास बच्चा होल्डर में बल्ब लगाना या साईकिल की चैन चढ़ाने में असमर्थ रहता है तो पता चलता है कि हम जो कुछ पढ़ा रहे हैं वह कितना चलताऊ है। कुल मिला कर स्कूल में पढे हुए के मूल्यांकन के तौर पर होने वाली परीक्षा व उसके परिणामों ने एक भयावह सपने, अनिश्चितता की जननी व बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप ले लिया है। लिखना, पढना, बोलना, सुनना – ये चारों क्रियाएं वैसे तो अलग-अलग हैं लेकिन वे एक दूसरे से जुड़ी हैं। एक दूसरे पर निर्भर हें, एक दूसरे को उभारती हैं। एक अकेले शब्द का अर्थ अलग होता है, कुछ शब्द जुड़ कर जब एक वाक्य बनते हैं तो उनका अर्थ व्यापक हो जाता है। सरल भाषा वही है जो उपरोक्त चारों क्रियाओं में सहज हो। अब बच्चा घर में अपनी देशज भाषा- बुंदेली, मालवी, ब्रज या राजस्थानी इस्तेमाल कर रहा है और स्कूल में उसे खड़ी बोली में पढाया जा रहा है। उसके बालने, समझने, सीखने व पढने की भाषा में जैसे ही भेद होता है, वह गड़बड़ा जाता है व पुसतकों में अपनी ऊब को खड़ा पाता है। उदाहरण के तौर पर बच्चों को ई से ईख व ए से ऐनक पढ़ाया जा रहा है जबकि वे ईख शब्द का इस्तेमाल करते नहीं, वे तो गन्ना कहते हैं या ऐनक नहीं चश्मा। अब बेहद गरीब परिवेश के ग्रामीण बच्चे, जिन्होंने कभी अनार देखा नहीं, उन्हें रटवाया जाता है कि अ अनार का। यह तो प्रारंभिक पुस्तक के स्वर वाले हिस्सों का हाल है, जब व्यजंन में जाएंगे तो ठठेरे, क्षत्रिय जैसे अनगिनत शब्द मिलेंगे।
स्कूल में भाषा-शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण व पढ़ाई का आधार होती है। प्रतिदिन के कार्य बगैर भाषा के सुचारू रूप से कर पाना संभव ही नहीं होता। व्यक्तित्व के विकास में भाषा एक कुंजी है, अपनी बात दूसरों तक पहुंचाना हो या फिर दूसरों की बात ग्रहण करना, भाषा के ज्ञान के बगैर संभव नहीं है। भाषा का सीधा संबंध जीवन से है और मात्र भाषा ही बच्चे को परिवार, समाज से जोड़ती है। भाषा शिक्षण का मुख्य उद्देश्य बालक को सोचने-विचारने की क्षमता प्रदान करना, उस सोच को निरंतर आगे बढ़ाए रखना, सोच को सरल रूप में अभिव्यक्त करने का मार्ग तलाशना होता है। अब जरा देखें कि मालवी व राजस्थानी की कई बोलियो में ‘स’ का उच्चारण ‘ह’ होता है और बच्चा अपने घर में वही सुनता है, लेकिन जब वह स्कूल में शिक्षक या अपनी पाठ्य पुस्तक पढ़ता है तो उससे संदेश मिलता है कि उसके माता-पिता ‘गलत‘ उच्चारण करते हैं। बस्तर की ही नहीं, सभी जनजातिया बोलियों में हिंदी के स्वर-व्यंजन में से एक चौाथाई होते ही नहीं है। असल में आदिवासी कम में काम चलाना तथा संचयय ना करने के नैसर्गिक गुणों के साथ जीवनयापन करते हैं और यही उनकी बोली में भी होता है। लेकिन बच्चा जब स्कूल आता है तो उसके पास बेइंतिहा शब्दों का अंबार होता है जो उसे दो नाव पर एकसाथ सवारी करने की मानिंद अहसास करवाता है।
बच्चा ठीक से पढ सके, उसका आनंद उठाए और उसे समझ सके, इसके लिए सबसे पहले तो नीरस पुस्तकों को बदलना होगा, 12 या 16 पेज की रंगबिरंगी छोटी कहानी वाली, जिसमें साठ फीसदी चित्र हों, ऐसी पुसतकें बच्चों के बीच डाली जाएं, इस उम्मीद के सथ कि इसकी कोई परीक्षा नहीं होगी। उसके बाद पाठ्य पुस्तक हो, जिसमें स्थानीय परिवेश, पाठक बच्चों की पृष्ठभूमि आदि को ध्यान रख कर सकारात्मक सामग्री हो। चित्र की अपनी भाषा होती है और रंग का अपना आकर्षण, मनोरंजक कहानियों व चित्रों की मदद से बच्चे बहुत से शब्द चिन्हने लगते हैं और वे उनक इस्तेमाल सहजता से अपनी पाठय पुस्तक में भी करने लगते हैं। इससे सीखने व समझने की प्रक्रिया साथ-साथ चलती है। जैसे ही बच्चा सीखने, पहचानने और उसे डीकोड करने की पूरी प्रक्रिया को एक साथ अपना कर उसमें चुनौती व आनंद ढूंढने लगता है, शिक्षा उसके लिए एक रोमांच व कौतुहल बन जाती है। हो सकता है कि यह मौजूदा पाठ्यक्रम को समाप्त करने की अवधि में एमएसएल यानि मिनिमम लेबल ऑफ लर्निंग या सीखने का न्सूनतम स्तर पाने की गति से कुछ धीमी प्रक्रिया हो, लेकिन यदि गाड़ी एक बार गति पकड़ लेती है तो फिर फर्राटे से दौड़ती है। बुजुर्ग निरक्षरों को पढ़ाने की पद्धति ‘आईपीसीएल’(इम्प्रूव्ड पेस आफ कन्टेंट एंड लर्निंग )इसकी सफलता की बानगी है।
विभिन्न ध्वनियों के बीच भेद व उसे लिखने में अंतर सीखने के लिए सुनने की बेहतर दक्षता विकसित करना अनिवार्य है और इस राह की बाधाओं को दूर करने में कहानी कहना या गैरपाठ्य पुस्तकों सचित्र, या कठपुतली या अन्य माध्यम के साथ कहानी कहना बेहद कारगर हथियार है। ‘स’ या ‘ष’ का भेद, तीन तरह की ‘र’ की मात्रा का अनुप्रयोग व लेखन जैसी जटिलताएं सीखने में इस तरह की पुस्तकें व कहानियां रामबाण रही हैं। काश प्राथमिक स्तर पर पाठ्य पुस्तकों का वजन कम कर, रटने की पारंपरिक प्रक्रिया से परे खुब चित्र व शब्द का सम्मिलन कर अपनी कहानी गढने व समझने जैसी प्रक्रियाओं को अपनाया जाए तो पढने-समझने और सीखने की प्रक्रिया ना केवल आसान हो जाएगी, वरना बच्चों के लिए भी खेल -खल में सीखने जैसी होगी।

रविवार, 4 दिसंबर 2016

Save the Elephant

ऐसे कैसे बचेगा गजराज ?

                                                                                                                            पंकज चतुर्वेदी,

पिछले दिनों असम में एक व्यस्क मादा हाथी की पतंजलि हर्बल और फूड पार्क के निर्माण स्थल में गहरे गड्ढे में गिरकर मौत हो गई। सनद रहे यह इलाका हाथी के लिए संरक्षित है और यहां व्यावसायिक इकाई की अनुमति से वैसे ही लोग गुस्से में थे। असम के उत्तरी इलाके सोणितपुर जिले के घोरामारी में स्थित इस पार्क में हुई घटना पर कार्यवाही करते हुए पश्चिमी सोणितपुर वन संभाग के अतिरिक्त वन संरक्षक जसीम अहमद ने कहा है कि प्राथमिकी तेजपुर थाने के अंतर्गत सलानीबाड़ी थाना में दर्ज की गई। पार्क के निर्माणकर्ता उदय गोस्वामी के खिलाफ मामला दर्ज किया गया। वह घोड़ामारी असम औद्योगिक विकास निगम परिसर में पतंजलि पार्क के समन्वयक भी हैं।उन्होंने बताया कि जब वन मंत्री प्रमिला रानी ब्रह्मा ने मादा हाथी की मौत के बाद स्थल का दौरा किया तब पार्क में 14 से अधिक गड्ढों में मिट्टी डालकर भर दिया गया है। हथिनी के गिरने व उसके बच्चे द्वार अपनी मां को ना छोड़ने का एक मार्मक वीडियो भी सामने आया है। हालांकि सख्त निर्देश थे कि 200 एकड़ की जगह का आधे हिस्से पर उसे कोई निर्माण कार्य नहीं हो ताकि वहां पर हाथी आराम से रह सके। लेकिन बात को अनसुना कर दिया गया। बता दें कि इस माह की शुरुआत में मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल, योगगुरु बाबा रामदेव, आचार्य बालकृष्ण और अन्य वरिष्ठ नेताओं की मौजूदगी में पूर्वोत्तर भारत में अब तक के सबसे बड़े पतंजलि फूडपार्क की आधारशिला रखी गयी थी।
उधर इन दिनों झारखंड-उड़ीसा-छत्तीसगढ की सीमा के आसपास एक हाथी-समूह का आतंक है। जंगल महकमे के लोग उस झूंड को भगाते घूम रहे हैं जबकि जिन दर्जनों लोगों को वह हाथी-दल घायल या नुकसान कर चुका है; उसे मारने की वकालत कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि हाथी बस्ती में आ गया है, लेकिन यदि तीस साल पहले के जमीन के रिकार्ड को उठा कर देखें तो साफ हो जाएगा कि इंसान ने हाथी के जंगल में घुसपैठ की है। दुनियाभर में हाथियों को संरक्षित करने के लिए गठित आठ देशों के समूह में भारत शामिल हो गया है। भारत में इसे ‘राष्ट्रीय धरोहर पशु’ घोषित किया गया है। इसके बावजूद भारत में बीते दो दशकों के दौरान हाथियों की संख्या स्थिर हो गई है। जिस देश में हाथी के सिर वाले गणेश को प्रत्येक शुभ कार्य से पहले पूजने की परंपरा है, वहां की बड़ी आबादी हाथियों से छुटकारा चाहती है।
कभी हाथियों का सुरक्षित क्षेत्र कहलाने वाले असम में पिछले सात सालों में हाथी व इंसान के टकराव में 467 लोग मारे जा चुके हैं। अकेले पिछले साल 43 लोगों की मौत हाथों के हाथों हुई। उससे पिछले साल 92 लोग मारे गए थे। झारखंड की ही तरह बंगाल व अन्य राज्यों में आए रोज हाथी को गुस्सा आ जाता है और वह खड़े खेत, घर, इंसान; जो भी रास्ते में आए कुचल कर रख देता है। देशभर से हाथियों के गुस्साने की खबरें आती ही रहती हैं। पिछले दिनों भुवनेश्वर में दो लोग हाथी के पैरों तले कुचल कर मारे गए।ऋषिकेश के कई इलाकों में हाथियों के डर से लोग खेतों में नहीं जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में हाथी गांव में घुस कर खाने-पीने का सामान लूट रहे हैं। इंसान को भी जब जैसा मौका मिल रहा है, वह हाथियों की जान ले रहा है। दक्षिणी राज्यों के जंगलों में गर्मी के मौसम में हर साल 20 से 30 हाथियों के निर्जीव शरीर संदिग्ध हालात में मिल रहे हैं। प्रकृति के साथ लगातार हो रही छेड़छाड़ को अपना हक समझने वाला इंसान हाथी के दर्द को समझ नहीं रहा है और धरती पर पाए जाने वाले सबसे भारी भरकम प्राणी का अस्तित्व संकट में है।
19 वीं सदी की शुरूआत में एशिया में हाथियों की संख्या दो लाख से अधिक आंकी गई है। आज यह बामुश्किल 35 हजार है। सन 1980 में भारत में 26 से 28 हजार हाथी थे। अगले दशक में यह घट कर 18 से 21 हजार रह गई। भले ही सरकारी दावे कुछ हों, लेकिन आज यह आंकड़ा 15 हजार के आसपास सिमट कर रह गया है। भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में सबसे अधिक हाथी हैं। उसके बाद दक्षिण का स्थान आता है। हिमालय की तराई भी गजराज का पसंदीदा क्षेत्रा रहा है।
1959 में एशियाई हाथी को संकटग्रस्त वन्यजाति में शामिल किया गया था। इसी के मद्देनजर आठवीं पंचवर्षीय योजना में हाथी परियोजना के लिए अलग से वित्तीय प्रावधान रखे गए थे। सरकारी फाईलों के मुताबिक 1991-92 से देश में यह विशेष परियोजना लागू है। लेकिन दुर्भाग्य है कि इसी के बाद गजराज के सिर पर मौत का साया अधिक गहराता जा रहा है।
उत्तर-पूर्वी राज्यों में, विशेषकर नगा लोग हाथियों को ‘बवाल’ समझते हैं। उनका डर है कि हाथी उनके लहलहाते धान के खेतों को तबाह कर डालता है और मौका मिलने पर उनके गांवों को भी नहीं छोड़ता है। इसलिए वे इसके शिकार की फिराक में रहते है। इस शिकार में एक तरफ तो वे ‘शत्रु विजय’ का गर्व अनुभव करते हैं और दूसरी ओर उन्हें दावत के लिए प्रचुर मांस मिलता है। इन क्षेत्रों में हाथी की हड्डी, मद, दांत व अन्य अंगों को ले कर कई चिकित्सीय व अंधविश्वासीय मान्यताएं हैं, जिनके कारण जनजाति के लोग हाथी को मार देते हैं। वैसे इन दिनों कतिपय बाहरी लोग इन आदिवासियों को छोट-मोटे लालच में फंसा कर ऐसे शिकार करवा रहे हैं।
कर्नाटक के कोडगू और मैसूर जिले में 643 वर्ग किमी में फैला नागरहोल पार्क हाथियों का पसंदीदा आवास है। इसके दक्षिण-पश्चिम में केरल की व्यानाद सेंचूरी है। पास में ही बांदीपुर (कर्नाटक) और मधुमलाई (तमिलनाडु) के घने जंगल हैं। भारत में पाए जाने वाले हाथियों का 40 फीसदी यहां रहता है। पिछले कुछ सालों में यहां जंगल की कटाई बढ़ी है। हर साल बारिश से पहले इन जंगलों में हाथियों की मौत हो रही है। वन विभाग के अफसर लू या दूषित पानी को इसका कारण बता कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। हकीकतन यहां हाथियों को 100 लीटर पानी और 200 किलो पत्ते, पेड़ की छाल आदि की खुराक जुटाने के लिए हर रोज 18 घंटों तक भटकना पड़ता है। गौरतलब है कि हाथी दिखने में भले ही भारी भरकम हैं, लेकिन उसका मिजाज नाजुक और संवेदनशील होता है। थेाड़ी थकान या भूख उसे तोड़ कर रख देती है। ऐसे में थके जानवर के प्राकृतिक घर यानि जंगल को जब नुकसान पहुंचाया जाता है तो मनुष्य से उसकी भिड़ंत होती है।
असल संकट हाथी की भूख है। कई-कई सदियों से यह हाथी अपनी जरूरत के अनुरूप अपना स्थान बदला करता था। गजराज के आवागमन के इन रास्तों को ‘‘एलीफेंट कॉरीडार’’ कहा गया। सन 1999 में भारत सरकार के वन तथा पर्यावरण मंत्रालय ने इन कॉरिडोरों पर सर्वे भी करवाया था। उसमें पता चला था कि गजराज के प्राकृतिक कॉरिडोर से छेड़छाड़ के कारण वह व्याकुल है। हरिद्वार और ऋषिकेश के आसपास हाथियों के आवास हुआ करते थे। आधुनिकता की आंधी में जगल उजाड़ कर ऐसे होटल बने कि अब हाथी गंगा के पूर्व से पश्चिम नहीं जा पाते हैं। रामगंगा को पार करना उनके लिए असंभव हो गया है। अब वह बेबस हो कर सड़क या रेलवे ट्रैक पर चला जाता है और मारा जाता है। ओडिसा के हालात तो बहुत ही खराब हैं। हाथियों का पसंदीदा ‘‘सिंपलीपल कॉरिडार’’ बोउला की क्रोमियम खदान की चपेट में आ गया। सतसोकिया कॉरिडोर को राष्ट्रीय राजमार्ग हड़प गया।
ठीक ऐसे ही हालात उत्तर-पूर्वी राज्यों के भी हैं। यहां विकास के नाम पर हाथी के पारंपरिक भोजन-स्थलों का जम कर उजाड़ा गया और बेहाल हाथी जब आबादी में घुस आया तो लोगों के गुस्से का शिकार बना। हाथियों के एक अन्य प्रमुख आश्रय-स्थल असम में हाथी बेरोजगार हो गए है और उनके सामने पेट भरने का संकट खड़ा हो गया है। सन 2005 में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद हाथियों से वजन ढुलाई का काम गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। इसके बाद असम के कोई 1200 पालतू हाथी एक झटके में बेरोजगार हो गए। हाथी उत्तर-पूर्वी राज्यों के समाज का अभिन्न हिस्सा रहा है सदियों से ये हाथी जंगलों से लकड़ी के लठ्ठे ढोने का काम करते रहे हैं। अदालती आदेश के बाद ये हाथी और उनके महावत लगभग भुखमरी की कगार पर हैं। असम में कहीं भी जाईए, सड़कों पर ये हाथी अब भीख मांगते दिखते हैं। सनद रहे कि एक हाथी की खुराक के लिए महीने भर में कम से कम दस हजार रूपए खर्च करना ही होते हैं। ऐसे में ‘‘हाथी पालना’’ अब रईसों के बस से भी बाहर है। असम के कुछ महावत अब अपने जानवरों को दिल पर पत्थर रख कर राजस्थान, दिल्ली जैसे राज्यों में बेच रहे हैं।
दक्षिणी राज्यों में जंगल से सटे गांवों मे रहने वाले लोग वैसे तो हाथी की मौत को अपशकुन मानते हैं, लेकिन बिगड़ैल गजराज से अपने खेत या घर को बचाने के लिए वे बिजली के करंट या गहरी खाई खोदने को वे मजबूरी का नाम देते हैं। यहां किसानों का दर्द है कि ‘हाथी प्रोजेक्ट’ का इलाका होना उनके लिए त्रासदी बन गया है। यदि हाथी फसल को खराब कर दे तो उसका मुआवजा इतना कम होता है कि उसे पाने की भागदौड़ में इससे कहीं अधिक खर्चा हो जाता है। हाथी के पैरों के नीचे यदि इंसान कुचल कर मर जाए तो मुआवजा राशि 25 हजार मात्र होती है। वैसे यहां दुखी ग्रामीणों की आड़ में कई ‘वीरप्पन’ हाथी दांत के लिए हाथियों के दुश्मन बने हुए है।
उत्तरांचल के जिम कार्बेट पार्क में कुछ साल पहले तक 1300 से अधिक हाथी रहते थे। रामगंगा परियोजना के लिए रिजर्व जलाशय और फिर कुनाई चीला शक्ति नहर के लिए उस जंगल के बड़े हिस्से को उजाड़ा गया। फिर बांध से विस्थापितों ने अपने नए घर-खेतों के लिए 1,65,000 एकड़ वन क्षेत्रों को काट डाला। यहां हरियाली के नाम पर यूक्लिप्टस जैसे गैर-चारा पेड़ लगाए गए। जंगल कटने से हाथियों के लिए चारे-पानी का संकट खड़ा हुआ। भूख से बेहाल गजराज कई बार फसल और संपत्ति को नुकसान कर बैठते हैं।
ऐसे ही भूखे हाथी बिहार के पलामू जिले से भाग कर छत्तीसगढ़ के सरगुजा व सटे हुए आंध्रप्रदेश के गांवों तक में उपद्रव करते रहते हैं। कई बार ऐसे बेकाबू हाथियों को जंगल में खदेड़ने के दौरान उन्हें मारना वन विभाग के कर्मचारियों की मजबूरी हो जाता है। उत्तरांचल में पिछले 25 सालों के दौरान कई हाथी ट्रेन से टकरा कर मारे गए हैं। कोई एक दर्जन हाथियों की मौत जंगल से गुजरती बिजली की लाईनों में टूटफूट के कारण होना सरकारी रिकार्ड में दर्ज है। ये वाकिये अनियोजित विकास के कारण प्राकृतिक संपदा को हो रहे नुकसान की बानगी हैं।
नदी-तालाबों में शुद्ध पानी के लिए यदि मछलियों की मौजूदगी जरूरी है तो वनों के पर्यांवरण को बचाने के लिए वहां हाथी अत्यावश्यक हैं। मानव आबादी के विस्तार, हाथियों के प्राकृतिक वास में कमी, जंगलों की कटाई और बेशकीमती दांतों का लालच; कुछ ऐसे कारण हैं जिनके कारण हाथी को निर्ममता से मारा जा रहा है। यदि इस दिशा में गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो जंगलों का सर्वोच्च गौरव कहलाने वाले गजराज को सर्कस, चिड़ियाघर या जुलूसों में भी देखना दुर्लभ हो जाएगा।

Clod waves and shelter less peoples

                         बेघरों को कौन देगा आसरा

दिल्ली में रात का तापमान धीरे-धीरे गिर रहा है। फुटपाथों और फ्लाई ओवरों की ओट में रात काटते हजारों लोग दिल्ली की खुशहाली के दावों की पोल खोलते दिखेंगे। शायद यह बात बहुत कम लोग जानते होंगे कि देश की राजधानी दिल्ली में हर साल भूख, लाचारी, बीमारी से कोई तीन हजार ऐसे लोग गुमनामी की मौत मर जाते हैं, जिनके सिर पर कोई छत नहीं होती है। दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने सभी राय सरकारों को तत्काल बेघरों को आसरा मुहैया करवाने के लिए कदम उठाने के आदेश दिए थे। इससे तीन साल पहले 30 नवंबर 2011 को दिल्ली हाईकोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीष ए.के. सीकरी और राजीव सहाय एडला की पीठ ने दिल्ली सरकार को निर्देश दिया था कि बेघर लोगों के लिए ‘नाइट-शेल्टर’ की कोई ठोस योजना तैयार कर अदालत में पेश की जाए। पीठ ने यह भी कहा कि एक तरफ तो राय सरकार कहती है कि सरकारी रैनबसेरों में रहने को लोग नहीं आ रहे हैं, दूसरी ओर वे आए दिन देखते हैं कि लोग ठंड में रात बिताते रहे है। आज भी हालात जस के तस हैं। यह तस्वीर देश की राजधानी की है। जरा कल्पना करें सुदूर इलाकों में ये बेघर किस तरह ठंड के तीन महीने काटते होंगे?
लोकतंत्र की प्राथमिकता में प्रत्येक नागरिक को ‘रोटी-कपड़ा-मकान’ मुहैया करवाने की बात होती रही है। जाहिर है कि मकान को इंसान की मूलभूत जरूरत में शुमार किया जाता है। लेकिन सरकार की नीतियां तो मूलभूत जरूरत ‘सिर पर छत’ से कहीे दूर निकल चुकी हैं। आज मकान आवश्यकता से अधिक ‘रियल एस्टेट’ का बाजार बन गया है और घर-जमीन जल्दी-जल्दी पैसा कमाने का जरिया। जमीन व उस पर मकान बनाने के खर्च किस तरह बढ़ रहे हैं, यह अलग जांच का मुद्दा है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से दिल्ली एवं कई अन्य नगरों में सौंदर्यीकरण के नाम पर लोगों को बेघरबार करने की जो मुहिम शुरू हुई हैं, वे भारतीय लोकतंत्र की मूल आत्मा के विरूद्ध है। एक तरफ जमीन की कमी और आवास का टोटा है तो दूसरी ओर सुंदर पांच सितारा होटल बनाने के लिए सरकार व निजी क्षेत्र सभी तत्पर हैं। कुल मिला कर बेघरों की बढ़ती संख्या आने वाले दिनों में कहीं बड़ी समस्या का रूप ले सकती हैं। एक तरफ झुग्गी बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है, दूसरी ओर उन्हें शहर से दूर खदेड़ा जा रहा है। जबकि उनकी रोजी-रोटी इस महानगर में है। इसी का परिणाम है कि हर रोज हजारों लोग कई किलोमीटर दूर अपने आशियाने तक जाने के बनिस्पत फुटपाथ पर सोना बेहतर समझते हैं। ना तो वे भिखारी हैं और ना ही चोर-उचक्के। उनमें से कई अपनी हुनर के उस्ताद हैं। फिर भी समाज की निगाह में वे अविश्वसनीय और संदिग्ध हैं। कारण उनके सिर पर छत नहीं है। सरकारी कोठियों में चाकचौबंद सुरक्षा के बीच रहने वाले हमारे खद्दरधारियों को शायद ही जानकारी हो कि दिल्ली में हजारों ऐसे लोग हैं, जिनके सिर पर कोई छत नहीं है। यहां याद करें कि दिल्ली की एक -तिहाई से अधिक यानी 40 लाख के लगभग आबादी झुग्गी बस्तियों में रहती है। इसके बावजूद ऐसे लोग भी बकाया रह गए हैं, जिन्हें झुग्गी भी मयस्सर नहीं है। ऐसे लोगों की सही-सही संख्या की जानकारी किसी भी सरकारी विभाग को नहीं है। जनसंख्या गणना के समय भी इन निराश्रितों को अलग से नहीं गिना गया या यों कहें कि उन्हें कहीं भी गिना ही नहीं गया। एक्षन एड आश्रय अधिकार अभियान नामक एक गैरसरकारी संगठन के मुताबिक दिल्ली की लगभग एक फीसदी यानी डेढ़ लाख आबादी खुले आसमान तले ठंड, गरमी, बरसात ङोलती है। इनमें से 40 हजार ऐसे हैं जिन्हें तत्काल मकान की आवश्यकता है। इसके विपरीत सरकार द्वारा चलाए जा रहे 198 रैन बसेरों की बात करें तो उनकी क्षमता लगभग 16 हजार है। दिल्ली शहरी आश्रय बोर्ड द्वारा संचालित इन रैन बसेरों में 84 स्थाई हैं तो 111 पोर्टा केबिन में और एक टेंट में संचालित है।
जब लाखों लोगों के लिए झुग्गियों में जगह है तो ये क्यों आसमान तले सोते हैं? यह सवाल करने वाले पुलिस वाले भी होते हैं। इस क्यों का जवाब होता है, पुरानी दिल्ली की पतली-संकरी गलियों में पुश्तों से थोक का व्यापार करने वाले कुशल व्यापारियों के पास। झुग्गी लेंगे तो कहीं दूर से आना होगा। फिर आने-जाने का खर्च बढ़ेगा, समय लगेगा और झुग्गी का किराया देना होगा सो अलग। राजधानी की सड़कों पर कई तरह के भारी ट्रैफिक पर पाबंदी के बाद लाल किले के सामने फैले चांदनी चौक से पहाड़गंज तक के सीताराम बाजार और उससे आगे मुल्तानी ढ़ांडा व चूना मंडी तक के थोक बाजार में सामान के आवागमन का जरिया मजदूरों के कंधे व रेहड़ी ही रह गए हैं। यह काम कभी देर रात होता है तो कभी अल्लसुबह। ऐसे में उन्हीं मजदूरों को काम मिलता है जो वहां तत्काल मिल जाएं। फिर यदि काम करने वाला दुकान का शटर बंद होने के बाद वहीं चबूतरे या फुटपाथ पर सोता हो तो बात ही क्या है? मुफ्त का चौकीदार। अब सोने वाले को पैसा रखने की कोई सुरक्षित जगह तो है नहीं, यानी अपनी बचत भी सेठजी के पास ही रखेगा। एक तो पूंजी जुट गई, साथ में मजदूर की जमानत भी हो गई। वेरानीक ड्यूपोंट के एक अन्य सर्वे से स्पष्ट होता है कि इन बेघरों में से 23.9 प्रतिशत लोग ठेला खींचते हैं व 19.8 की जीविका का साधन रिक्शा है। इसके अलावा ये रंगाई-पुताई, कैटरिंग, सामान की ढुलाई, कूड़ा बीनने, निर्माण कार्य में मजदूरी जैसे काम करते हैं। कुछ बेहतरीन सुनार, बढ़ई भी है। इनमें भिखारियों की संख्या 0.25 भी नहीं थी। ये सभी सुदूर रायों से काम की तलाश में यहां आए हुए हैं।
दिल्ली में ऐसे लोगों के लिए 64 स्थाई रैन बसेरे बना रखे हैं, जबकि 46 प्रस्तावित हैं। इनमें से 10 को दिल्ली नगर निगम और शेष 15 को गैरसरकारी संस्थाएं संचालित कर रही हैं। पिछले साल भी कड़ाके की ठंड के दौरान अस्थाई रैनबसेरों को उजाड़ने का मामला हाईकोर्ट में गया था और ऐसे 84 केंद्रों को बंद करने पर अदालत ने रोक लगा दी थी। इसके बावजूद सरकार ने इनको संचालित करने वाले एनजीओ का अनुदान बदं कर दिया, यानी उन्हें बंद कर दिया। अब अदालत इस मसले पर भी सुनवाई कर रही है। इनमें से अधिकांश पुरानी दिल्ली इलाके में ही हैं। ठंड के दिनों में कुछ अस्थाई टेंट भी लगाए जाते हैं। सब कुछ मिला कर इनमें बामुश्किल दो हजार लोग आसरा पाते हैं। बाकी लोग पेट में घुटने मोड़ कर रात बिताने को मजबूर हैं।

After all, why should there not be talks with Naxalites?

  आखिर क्यों ना हो नक्सलियों से बातचीत ? पंकज चतुर्वेदी गर्मी और चुनाव की तपन शुरू हुई   और   नक्सलियों ने धुंआधार हमले शुरू कर दिए , हा...