My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 26 फ़रवरी 2017

Kashmir needs peace trcks not hape speeches

कश्मीर को बयान नहीं राहत की जरूरत है

                                                                 पंकज चतुर्वेदी
 

सुलगते कश्मीर पर जब मरहम की जरूरत है, तब पूर्व मुख्यमंत्री,पूर्व केंद्रीय मंत्री और नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला के एक बयान ने सियासी भूचाल ला दिया और जिन्हे कश्मीर का ‘क’ नहीं पता उनकी देशभक्ति उबाल मारने लगी। जो लेाग दस मिनट अपने मोबाईल फोन के बगैर रह नहीं सकते, जो रातभर पार्टियां किए बगैर अपने जीने पर श्क करते हैं, वे कल्पना भी नहीं कर सकते उन इलाकों की जहां महीनों से कफर्यू लगा है, जहां अंधेरा होने से पहले यदि कोई घर ना पुहंचे तो लेागों के घर मातम का माहौल हो जाता है। यह तो भारत सरकार भी मान रही है कि कश्मीर एक विवादास्पद क्षेत्र है व पाकिस्तान उसमें एक पक्ष है। फारूख अब्दुल्ला को देशद्रोही व गद्दार कह रहे लेाग इस बात पर आंखें झुका लेंगे कि सन 1953 में कश्मीर के मसले पर गिरफ्तार हुए डा. श्यामा प्रसा द मुखर्जी की संदिग्ध मौत उस शेख अब्दुल्ला की राज्य सरकार के शासन में हुई थी जिसके बेटे और पोते दोनों को डा. मुखर्जी के आदर्श पर चलने वाले दल की सरकार ने अपने मंत्रीमंडल में शामिल किया था।
बीते शुक्रवार को डा अब्दुल्ला कहा था कि कश्मीर में आतंकी बन रहे युवक विधायक या सांसद बनने के लिए नहीं बल्कि इस कौम और वतन की आजादी के लिए अपनी जान कुर्बान कर रहे हैं। वे आजादी और अपने हक के लिए लड़ रहे हैं। हालांकि, कुछ देर बाद ही वे अपने बयान से बदल गए और उन्होंने कहा कि हम हिंसा और आतंकवाद का समर्थन नहीं करते। हम चाहते हैं कि नई दिल्ली यहां रियासत के युवाओं के साथ बातचीत  बहाल करे। उनमें बहुत गुस्सा है। हम चाहते हैं कि हाईकोर्ट के किसी जज के नेतृत्व में एक आयोग बने जो युवाओं के बंदूक उठाने के कारणों की जांच करे। उससे पहले नवाए सुब परिसर में स्थित नेशनल कांफ्रेंस के कार्यालय में पार्टी कार्यकर्ताओं के सम्मेलन को संबोधित करते हुए डॉ. फारूक ने बिल्कुल दूसरा बयान दिया था। उन्होंने कश्मीरी में अपने कार्यकर्ताओं को कहा था कि वे कश्मीर की आजादी के लिए अपनी जान दे रहे लड़कों की कुर्बानियों को हमेशा याद रखें। उन्होंने कहा कि सब जानते हैं कि ये लड़के बंदूक क्यों उठा रहे हैं। यह हमारी जमीन है और हम ही इसके असली वारिस हैं। यह लड़ाई सन 1931 से ही जारी है। डॉ. अब्दुल्ला ने कश्मीर समस्या के लिए भारत और पाकिस्तानद दोनों को कोसा। दोनों 1948 में किए गए वादों को भूल गए हैं। उन्होंने कहा कि नई दिल्ली अपनी दमनकारी नीतियों से कश्मीरियों की सियासी उमंगों को नहीं दबा सकती। नई दिल्ली ने हमारी पीढ़ी को धोखा दिया है, लेकिन युवा वर्ग उसके झांसे में नहीं आने वाला। गोली की नीति से अमन नहीं होगा रू कश्मीर समस्या पर फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि गोली के बदले गोली की नीति से अमन नहीं होगा, सिर्फ रियासत के हालात और यादा बिगड़ेंगे। गोली के बजाय बोली की जरूरत है।
इससे पहले 25 नवंबर 2016 को डा अब्दुल्ला बोल चुके थे कि पीओके पर भारत अपना कब्जा कैसे बता सकता है। वह क्या उनकी बपौती है। कश्मीर केवल कश्मीरियों का है। इसके एक साल पहले 27 नवंबर 2015 को उन्होंने दावा किया था कि उन्हें प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि वे कश्मीर मसला सुलझाने के लिए एलओसी से अंतरराश्ट्रीय सीमा मानने को तैयार हो गए थे।
कश्मीर मसला बेहद दिलचस्प है, जो विपक्ष में रहता है, उसे सशस्त्रा आंदोलन या आतंकवाद के प्रति सहानुभति रहती है। यदि पीडीपी के पुराने बयान देखें तो वे फारूख अब्दुल्ला के बयानों से कतई अलग नहीं रहे हैं।  कश्मीर से आए किसी भी बयान पर देश प्रेम के बयान व कश्मीरियों को गाली देने वालों को पहले तो कश्मीर के हालात , उसके अतीत और वहां के लोगों की मानसिक स्थिति को समझना जरूरी होगा। देश को आजादी के साथ ही विरासत में मिली समस्याओं में कश्मीर सबसे दुखी रग है। समय के साथ मर्ज बढ़ता जा रहा है, कई लोग ‘अतीत-विलाप’ कर समस्या के लिए नेहरू या कांग्रेस को दोषी बताते हैं, तो देश में ‘एक ही धर्म, एक ही भाषा या एक ही संस्कृति’ के समर्थक कश्मीर को मुसलमानों द्वारा उपजाई समस्या व इसका मूल कारण धारा 370 को निरूपित करते हैं। जनसंघ के जमाने से कश्मीर में धारा 370 को समाप्त करने का एजेंडा संघ परिवार का ब्रह्मास्त्र रहा है। हालांकि यह बात दीगर है कि जब आडवाणीजी जैसे लोग उप प्रधानमंत्री बने तब कश्मीर और विशेश राज्य के दर्जे जैसे मसले ठंडे बस्ते में डाल दिए गए। ऐसा नहीं है कि सन नब्बे के बाद पाकिस्तान-परस्त संगठनों ने कश्मीर के बाहर देश की राजधानी दिल्ली, मुंबई व कई अन्य स्थानों पर निर्दोश लोगों की हत्या नहीं की हों, लेकिन पांच-सात साल पहले तक इस देशद्रोही काम में केवल पाकिस्तानी ही षांमिल होते थे। जब दुनिया में अलकायदा नेटवर्क तैयार हो रहा था तभी कर्नाटक, महाराश्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश में ‘‘इंडियन मुजाहिदीन’ और उससे पहले सिमी के नाम पर स्थानीय मुसलमानों को गुमराह किया जा रहा था।  जब सरकार चेती तब तक कश्मीर के नाम पर बनारस, जयपुर, हैदराबाद  तक में बम फट चुके थे।
    हिमालय के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रा में कोई दो लाख बाईस हजार किलोमीटर में फैले जम्मू-कश्मीर राज्य की कश्मीर घाटी में चिनार जंगलों से अलगाववाद के सुर्ख फूल पनपते रहे हैं। चौदहवीं शताब्दी तक यहां बौद्ध और हिंदू शासक रहे। सन 632 में पैगंबर मुहम्मद के देहावसान के बाद मध्य एशिया में इस्लाम फैला, तभी से मुस्लिम व्यापारी कश्मीर में आने लगे थे। तेरहवीं सदी में लोहार वंश के अंतिम शासक सुहदेव ने मुस्लिम सूफी-संतों को अपने राज्य कश्मीर में प्रश्रय दिया। बुलबुलशाह ने पहली मस्जिद बनवाई। फकीरों, सूफीवाद से प्रभावित होकर कश्मीर में बड़ी आबादी ने इस्लाम अपनाया, लेकिन वह कट्टरपंथी कतई नहीं थे। इलाके के सभी प्रमुख मंदिरों (अमरनाथ सहित) में पुजारी व संरक्षक मुसलमान ही रहे हैं। चौदहवीं शताब्दी में हिंदू राजाओं के पतन के बाद मुस्लिम शासकों ने सत्ता संभाली, परंतु आपसी झगड़ों के कारण वे ज्यादा नहीं चल पाए। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में यहां सिखों का शासन रहा और फिर आजादी तक डोगरा शासक मुस्लिम बाहुल्य वाले कश्मीर में लोकप्रिय शासक रहे। कश्मीर में कट्टरपंथी तत्व सन् 1942 में उभरे, जब पीर सईउद्दीन ने जम्मू-कश्मीर में जमात-ए-इस्लाम का गठन किया। इस पार्टी की धारा 3 में स्पष्ट था कि वह पारंपरिक मिश्रित संस्कृति को नष्ट कर शुद्ध (?) इस्लामी संस्कृति की नींव डालना चाहता था)
सन 1947 में अनमने मन से द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत को स्वीकारते हुए भारत आजाद हुआ। उस समय देश की 562 देशी रियासतें थीं। हैदराबाद और कश्मीर को छोड़कर अधिकांश रियासतों का भारत में विलय सहजता से हो गया। यह प्रामाणिक तथ्य है कि लार्ड माउंटबैटन ने कश्मीर के राजा हरीसिंह को पाकिस्तान में मिलने के लिए दवाब दिया था। राजा हरिसिंह इसके लिए तैयार नहीं थे और वे कश्मीर को स्विट्जरलैंड की तरह एक छोटा सा स्वतंत्र राज्य बनाए रखना चाहते थे। उधर शेख अब्दुल्ला जनता के नुमांइदे थे और राजशाही के विरोध में आंदोलन करने के कारण जेल में थे। 22 अक्टूबर, 1949 को अफगान और बलूच कबाइलियों ने (पाकिस्तान के सहयोग से) कश्मीर पर हमला कर दिया। भारत ने विलय की शर्त पर कश्मीर के राजा को सहयोग दिया। भारतीय फौजों ने कबाइलियों को बाहर खदेड़ दिया। इस प्रकार 1948 में कश्मीर का भारत में विलय हुआ। इससे पहले कबाइली कश्मीर केे बड़े हिस्से पर कब्जा कर चुके थे। जो आज भी है। भारत और पाकिस्तान का निर्माण ही एक दूसरे के प्रति नफरत से हुआ है। अतः तभी से दोनों देशों की अंतरराष्ट्रीय सीमा के निर्धारण के नाम पर कश्मीर को सुलगाया जाता रहा है। इसमें अंतरराष्ट्रीय हथियार व्यापारी भारत की प्रगति से जलने वाले कुछ देश और हमारे कुछ कम-अक्ल नेता समय-समय पर समस्या की खाई को चौड़ा करते रहे हैं।
उसी समय कश्मीर को बाहरी पूंजीपतियों से बचाने के लिए कश्मीर को विशेष दर्जा धारा 370 के अंतर्गत दिया गया। तब से धारा 370 (केवल कश्मीर में) का विरोध एक सियासती पार्टी के लिए ईंधन का काम करता रहा है। सन 1987 तक यह एक कमाऊ पर्यटन स्थल रहा। आतंकवाद एक अंतरराष्ट्रीय त्रासदी है। कश्मीर में सक्रिय कतिपय अलगाववादी ऐसी ही अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के सदस्य हैं। उनका कश्मीर में इस्लाम से उतना ही सरोकार है, जितना धारा 370 की सियासत करने वालों का हिंदुत्व से। संघ परिवार समझता है कि कश्मीर में गोली और लाठी के भय से राष्ट्रद्रोही तत्वों को कुचलना ही मौजूदा समस्या का निदान है। उसका ध्यान उन हालात और तत्व की ओर कतई नहीं हैं जो कश्मीर में आज के संकट की रचना के लिए कारणीभूत हैं। वह यह कुप्रचार करता है कि केवल धार्मिक कट्टरता ही वहां भारत विरोधी जन-उन्मेष का मुख्य कारण है। याद करें, केंद्र की भाजपा समर्पित एक सरकार ने जब कश्मीर की निर्वाचित फारूख सरकार को बर्खास्त कर दूसरी बार जगमोहन को बतौर राज्यपाल भेज दिया था, और उसी के बाद वहां के हालात बद से बदतर होते चले गए है।
हालात चाहे जितने भी बदतर रहे हों  लेकिन कश्मीर समस्या को भारत के लोग एक राजनीतिक या पाकिस्तान-प्रोत्साहित समस्या ही समझते रहे हैं। संसद पर हमले के दोशी अफजल गुरू की फंासी पर जब सुप्रीम कोर्ट ने अपनी मुहर लगाई थी तभी से एक बड़ा वर्ग, जिसमें कुछ कानून के जानकार भी षामिल हैं, दो बात के लिए माहौल बना रहे थे - एक  अफजल को फंासी जरूर हो, दूसरा उसके बाद कभी कानून  का पालन ना करने तो कभी कश्मीर की अशंाति की दुहाई दे कर मामले को देश-व्यापी बनाया जाए। याद करें कुछ साल पहले ही अमेरिका की अदालत ने एक ऐसे पाकिस्तान मूल के अमेरिकी नागरिक को सजा सुनाई थी जो अमेरिका में कश्मीर के नाम पर लॉबिग करने के लिए फंडिंग करता था और उसके नेटवर्क में कई भारतीय भी षामिल थे। जान कर आश्चर्य होगा कि उनमें कई एक हिंदू हैं। प्रशांत भूशण का बयान लोग भूले नहीं है जिसमें उन्हें कश्मीर में रायशुमारी के आधार पर भारत से अलग होने का समर्थन किया था। जब अफजल गुरू को कानूनी मदद की जरूरत थी, तब उसके लिए सहानुभूति दिखाने वाले किताब खि रहे थे, अखबारों में प्रचार कर रहे थे और जिन एनजीओं से संबद्ध हैं , उसके लिए फंड जमा कर रहे थे। जबकि उन्हें मालूम था कि अफजल की कानूनी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक लड़ी जा सकती थी।
यह जान लें कि केवल इस लिए फारूख अब्दुल्ला के बयान को देश द्रोह बता दिया जाए कि वह एक मुसलमान हैं या उसे सहजता से लिया जाए क्योंकि वे कश्मीर के इतिहास से जुड़े हैं, दोनों ही हालात ना तो कश्मीर के साथ अैार ना ही वहां संभावित षांति प्रक्रिया के लिए हितकर हैं। कश्मीर में षंाति के लिए आतंकियों के साथ कड़ाई के साथ-साथ आम नागरिकों में विश्वास बहाली भी अनिवार्य है। ऐसे में चाहे डा अब्दुल्ला हों या महबबूबा मुफ्ती या प्रो भीम सिंह या हुरियत के लोग; सभी के बयान व मंशाओं को तत्काल नकार देना उचित नहीं होगा।
 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...