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शनिवार, 5 अगस्त 2017

why packed water become essantial for mass


बोतलबंद पानी की मजबूरी

                                                             पंकज चतुर्वेदी
दिल्ली से सटे गाजियाबाद जिले के शालीमार गार्डन में पिछले दिनों जिला प्रशासन की टीम जब भूजल को षोधित कर मई-2016 में केंद्र सरकार ने आदेश दिया है कि अब सरकारी आयोजनों में टेबल पर बोतलंबद पानी की बोतलें नहीं सजाई जाएंगी, इसके स्थान पर साफ पानी को पारंपरिक तरीके से गिलास में परोसा जाएगा। सरकार का यह षानदार कदम असल में केवल प्लास्टिक बोतलों के बढ़ते कचरे पर नियंत्रण मात्र नहीं है, बल्कि साफ पीने का पानी को आम लोगों तक पहुंचाने की एक पहल भी है। कुछ दिनों पहले ही सिक्किम राज्य के लाचेन गांव ने किसी भी तरह की बोतलबंद पानी को अपने क्षेत्र में बिकने पर सख्ती से पाबंदी लगा दी। पिछले साल अमेरिका के सेनफ्रांसिस्को नगर ऐसी पाबंदी के बाद यह दुनिया का दूसरा ऐसी निकाय है जहां बोतलबंद पानी पर पाबंदी लगी हो। लाचेन की स्थानीय सरकार ‘डीजुमा’  व नागरिकों ने मिलकर तय किया कि अब उनके यहां किसी भी किस्म का बोतलबंद पानी  नहीं बिकेगा। एक तो जो पानी बाजार में बिक रहा था उसकी शुद्धता संदिग्ध थी,फिर बोतलबंद पानी के चलते खाली बोतलों का अंबार व कचरा आफत बनता जा रहा था। यह सर्वविविदत है कि प्लास्टिक नष्ट नहीं होती है व उससे जमीन, पानी, हवा सबकुछ बुरी तरह प्रभावित होते हैं। ऐसे ही संकट को सेनफ्रांसिस्को शहर ने समझा। वहां कई महीनों सार्वजनिक बहस चलीं। इसके बाद निर्णय लिया गया कि शहर में कोई भी बोतलबंद पानी नहीं बिकेगा। प्रशासन ही थोड़ी-थेाड़ी दूरी पर स्वच्छ  परिशोधित  पानी के नलके लगवाएगा तथा हर जरूरतमंद वहां से पानी भर सकता है।  लोगों का विचार था कि जो जल प्रकृति ने उन्हें दिया है उस पर मुनाफााखोरी नहीं होना चाहिए।  भारत की परंपरा तो प्याऊ, कुएं, बावड़ी और तालाब खुदवाने की रही है। हम पानी को स्त्रोत से शुद्ध करने के उपाय करने की जगह उससे कई लाख गुणा महंगा बोतलबंद पानी को बढ़ावा दे रहे है।ं पानी की तिजारत करने वालों की आंख का पानी मर गया है तो प्यासे लेागों से पानी की दूरी बढ़ती जा रही हे। पानी के व्यापार को एक सामाजिक समस्या और अधार्मिक कृत्य के तौर पर उठाना जरूरी है वरना हालात हमारे संविधान में निहित मूल भावना के विपरीत बनते जा रहे हैं जिसमें प्रत्येक को स्वस्थय तरीके से रहने का अधिकार है व पानी के बगैर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।
दिल्ली में घर पर नलों से आने वाले एक हजार लीटर पानी के दाम बामुश्किल चार रूपए होता है। जो पानी बोतल में पैक कर बेचा जाता है वह कम सेकम पंद्रह रूपए लीटर होता है यानि सरकारी सप्लाई के पानी से शायद चार हजार गुणा ज्यादा। इसबे बावजूद स्वच्छ, नियमित पानी की मांग करने के बनिस्पत दाम कम या मुफ्त करने के लिए हल्ला-गुल्ला करने वाले असल में बोतल बंद पानी की उस विपणन व्यवस्था के सहयात्री हैं जो जल जैसे प्राकृतिक संसाधन की बर्बादी, परिवेश में प्लास्टिक घेालने जैसे अपराध और जल के नाम पर जहर बांटने का काम धड़ल्ले से वैध तरीके से कर रहे हैं। क्या कभी सोचा है कि जिस बोतलबंद पानी का हम इस्तेमाल कर रहे हैं उसका एक लीटर तैयार करने के लिए कम से कम चार लीटर पानी बर्बाद किया जाता है।  आरओ से निकले बेकार पानी का इस्तेमाल कई अन्य काम में हो सकता है लेकिन जमीन की छाती छेद कर उलीचे गए पानी से पेयजल बना कर बाकी हजारों हजार लीटर पानी नाली में बहा दिया जाता है। प्लास्टिक बोतलों का जो अंबार जमा हो रहा है उसका महज बीस फीसदी ही पुनर्चक्रित होता है, कीमतें तो ज्यादा हैं ही; इसके बावजूद जो जल परोसा जा रहा है, वह उतना सुरक्षित नहीं है, जिसकी अपेक्षा उपभोक्ता करता है। कहने को पानी कायनात की सबसे निर्मल देन है और इसके संपर्क में आ कर सबकुछ पवित्र हो जाता हे। विडंबना है कि आधुनिक विकास की कीमत चुका रहे नैसर्गिक परिवेश में पानी पर सबसे ज्यादा विपरीत असर पड़ा है। जलजनित बीमारियों से भयभीत समाज पानी को निर्मल रखने के प्रयासों की जगह बाजार के फेर में फंस कर खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है।
चीन की राजधानी पेईचिंग भी एक बानगी  हैं हमारे लिए, उसकी आबादी दिल्ली से डेढ गुणा है। वहां हर घर में तीन तरह का पानी आता है व सभी के दाम अलग-अलग हैं। पीने का पानी सबसे महंगा, फिर रसोई के काम का पानी उससे कुछ कम महंगा और फिर टायलेट व अन्य निस्तार का पानी सबसे कम दाम का। सस्ता पानी असल में स्थानीय स्तर पर फ्लश व सीवर के पानी का षेधन कर सप्लाई होता है। जबकि पीने का पानी बोतलबंद पानी से बेहतरीन क्वालिटी का होता है। बीच का पानी आरओ से निकलने वाले पानी का षोधित रूप होता है। यह बात दीगर है कि वहां मीटरों में ‘‘जुगाड़’’ या वर्ग विशेश के लिए सबसिडी जैसी कोई गुंजाईश होती नहीं है। अनाधिकृत आवासीय बस्तियां हैं ही नहीं। प्रत्येक आवासीय इलाके में पानी , सफाई पूरी तरह स्थानीय प्रशासन की जिम्मेदारी है।
देश की राजधानी दिल्ली से बिल्कुल सटा हुआ इलाका है शालीमार गार्डन, यह गाजियाबाद जिले में आता है, बीते एक दशक के दौरान यहां जम कर बहुमंजिला  मकान बने, देखते ही देखते आबादी दो लाख के करीब पहुंच गई। यहां नगर निगम के पानी की सप्लाई लगभग ना के बराबर है। हर अपार्टमेंट के अपने नलकूप हैं और पूरे इलाके का पानी बेहद खारा है। यदि पानी को कुछ घंटे बाल्टी में छोड़ दें तो उसके ऊपर सफेद परत और तली पर काला-लाल पदार्थ जम जाएगा। यह पूरी आबादी पीने के पानी के लिए या तो अपने घरों में आर ओ का इस्तेमालक रती है या फिर बीस लीटर की केन की सप्लाई लेती है। यह हाल महज शालीमार गार्डन का ही नहीं हैं, वसुंधरा, वैशाली, इंदिरापुरम, राजेन्द्र नगर तक की दस लाख से अधिक आबादी के यही हाल है।। फिर नोएडा, गुड़गावं व अन्य एनसीआर के शहरों की कहानी भी कुछ अलग नहीं है। यह भी ना भूलें कि दिल्ली की एक चौथाई आबादी पीने के पानी के लिए पूरी तरह बोतलबंद  कैन पर निर्भर है।  यह  बात सरकारी रिकार्ड का हिस्सा है कि राष्ट्रीय राजधानी और उससे सटे शहरों में 10 हजार से अधिक बोतलबंद पानी की इकाइयां सक्रिय हैं और इनमें से अधिकांश 64 लाइसेंसयुक्त निर्माताओं के नाम का अवैध उपयोग कर रही हैं। यह चिंता की बात है कि सक्रिय इकाइयां ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड (बीआईएस) की अनुमति के बगैर यह काम कर रही हैं। इस तरह की अवैध इकाइयां झुग्गियों और दिल्ली, हरियाणा व उत्तर प्रदेश के शहरों की तंग गलियों से चलाई जा रही हैं । वहां पानी की गुणवत्ता के मानकों का पालन शायद ही होता है। यही नहीं पानी की गुणवत्ता का परीक्षण करने वाले सरकारी अधिकारी भी वहां तक नहीं पहुंच पाते है। कुछ दिनों पहले ईस्ट दिल्ली म्यूनिसिपल कारपोरेशन के दफ्तर में जो बोतलबंद पानी सप्लाई किया जाता है, उसमें से एक बोतल में काक्रोच मिले थे। जांच के बाद पता चला कि पानी की सप्लाई करने वाला अवैध धंधा कर रहा हैै। उस इकाई का तो पता भी नहीं चल सका क्योंकि किसी के पास उसका कोई रिकार्ड ही नहीं है।
इस समय देश में बोतलबंद पानी का व्यापार करने वाली करीब 200 कम्पनियां और 1200 बॉटलिंग प्लांट वैध हैं । इस आंकड़े में पानी का पाउच बेचने वाली और दूसरी छोटी कम्पनियां शामिल नहीं है। इस समय भारत में बोतलबंद पानी का कुल व्यापार 14 अरब 85 करोड़ रुपये का है। यह देश में बिकने वाले कुल बोतलबंद पेय का 15 प्रतिशत है। बोतलबंद पानी का इस्तेमाल करने वाले देशों की सूची में भारत 10वें स्थान पर है। भारत में 1999 में बोतलबंद पानी की खपत एक अरब 50 करोड़ लीटर थी, 2004 में यह आंकड़ा 500 करोड़ लीटर का पहुंच गया। आज यह दो अरब लीटर के पार है।
पर्यावरण को  नुकसान कर, अपनी जेब में बड़ा सा छेद कर हम जो पानी खरीद कर पीते हैं, यदि उसे पूरी तरह निरापद माना जाए तो यह गलतफहमी होगी।  कुछ महीनों पहले  भाभा एटामिक रिसर्च सेंटर के एनवायर्नमेंटल मानिटरिंग एंड एसेसमेंट अनुभाग की ओर से किए गए शोध में बोतलबंद पानी में नुकसानदेह मिले थे।  हैरानी की बात यह है कि यह केमिकल्स कंपनियों के लीनिंग प्रोसेस के दौरान पानी में पहुंचे हैं।  यह बात सही है कि बोतलबंद पानी में बीमारियां फैलाने वाला पैथोजेनस नामक बैक्टीरिया नहीं होता है, लेकिन पानी से अशुद्धियां निकालने की प्रक्रिया के दौरान पानी में ब्रोमेट क्लोराइट और क्लोरेट नामक रसायन खुद ब खुद मिल जाते हैं। ये रसायन प्रकृतिक पानी में हाते ही नहीं है । भारत में ऐसा कोई नियमक नहीं है जो बोतलबंद पानी में ऐसे केमिकल्स की अधिकतम सीमा को तय करे। उल्ल्ेखनीय है कि  वैज्ञाानिकों ने 18 अलग-अलग ब्रांड के बोतलबंद पानी की जांच की थी। । एक नए अध्ययन में कहा गया कि पानी भले ही बहुत ही स्वच्छ हो लेकिन उसकी बोतल के प्रदूषित  होने की संभावनाएं बहुत ज्यादा होती है और इस कारण उसमें रखा पानी भी प्रदूषित हो सकता है। बोतलबंद पानी की कीमत भी सादे पानी की तुलना में अधिक होती है, इसके बावजूद इसके संक्रमण का एक स्त्रोत बनने का खतरा बरकरार रहता है । बोतलबंद पानी की जांच बहुत चलताऊ तरीके से होती है । महीने में महज एक बार इसके स्त्रोत का निरीक्षण किया जाता है, रोज नहीं होता है । एक बार पानी बोतल में जाने और सील होने के बाद यह बिकने से पहले महीनों स्टोर रूम में पड़ा रह सकता है । फिर जिस प्लास्टिक की बोतल में पानी है, वह धूप व गरमी के दौरान कई जहरीले पदार्थ उगलती है और जाहिर है कि उसका असर पानी पर ही होता है। घर में बोतलबंद पानी पीने वाले एक चौथाई मानते हैं कि वे बोतलबंद पानी इसलिए पीते हैं क्योंकि यह सादे पानी से यादा अच्छा होता है लेकिन वे इस बात को स्वीकार नहीं कर पाते हैं कि नगर निगम द्वारा सप्लाई पानी को भी कठोर निरीक्षण प्रणाली के तहत रोज ही चेक किया जाता है । सादे पानी में क्लोरीन की मात्रा भी होती है जो बैक्टीरिया के खतरे से बचाव में कारगर है। जबकि बोतल में क्लोरीन की तरह कोई पदार्थ होता नहीं है। उल्टे रिवर ऑस्मोसिस के दौरान प्राकृतिक जल के कई महत्वपूर्ण लवण व तत्व नष्ट हो जाते हैं।
अब पानी की छोटी बोतलों पर सरकारी पाबंदी तो कल्याणकारी है ही साथ ही प्लास्टिक के डिस्पोजेबल गिलास व प्लेट्स के इस्तेमाल पर पांबदी की भी पहल जरूरी है क्योंकि कांच के गिलास टूटें ना या फिर उन्हें कौन साफ करेगा, इन कारणों से बोतल की जगह कहीं प्लास्टिक के गिलास ना ले लें।

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