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बुधवार, 20 सितंबर 2017

जल संरक्षण की चिंता और बेफिक्री

देश के 233 जिलों में औसत से कम बारिश हुई है। इससे कई हिस्सों में सूखे के हालात बन सकते हैं। जून से सितंबर के मानसून सीजन में करीब 6 फीसद कम बारिश हुई। चूंकि देश में कृषि ज्यादातर हिस्सों में बारिश पर निर्भर है। इसलिए खाद्यान्न उत्पादन प्रभावित होगा और इसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा, लेकिन अगर हम जल संचय के परंपरागत उपायों को बचाकर रखते तो ऐसे संकट की आशंका से निपटने का भरोसा कायम रहता



गणपति के विदा होते ही बादल और बारिश भी विदा हो जाते हैं। अब यदि बरसात हो भी तो वह खेत या किसान के लिए किसी काम का नहीं। यदि बिहार और पूवरेत्तर राज्यों में आई बीते एक दशक की सबसे भयावह बाढ़ को अलग रख दें तो भारतीय मौसम विभाग का यह दावा देश के लिए चेतावनी देने वाला है कि पिछले साल की तुलना में इस साल देश के 59 फीसद हिस्से में कम बारिश हुई है। मौसम विभाग के मुताबिक देश के 630 जिलों में से 233 में औसत से कम बारिश हुई है। इससे देश में सूखे का संकट खड़ा हो गया है। जून से सितंबर के मानसून सीजन में करीब 6 फीसद कम बारिश हुई। देश में कृषि ज्यादातर हिस्सों में मानसून पर निर्भर है। ऐसे में कम बारिश होने से खाद्यान्न उत्पादन प्रभावित होगा और इसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। वित्त वर्ष 2017-18 की पहली तिमाही में जीडीपी 5.7 फीसद रही, जबकि पिछले साल इसी दौरान यह 7.9 फीसद थी। 2014 में राजग के केंद्र की सत्ता में आने के बाद इस वित्त वर्ष में जीडीपी अपने सबसे निचले स्तर है। फसल वर्ष 2017-18 में (जुलाई-जून) में 273 मिलियन टन खाद्यान्न उत्पादन लक्ष्य पूरा होता नहीं दिख रहा। 1मानसून अभी बिदा हो रहा है। यानी देश को अगली बारिश के लिए कम से कम नौ महीने का इंतजार करना होगा। अभी से भारत का बड़ा हिस्सा सूखे, पानी की कमी और पलायन से जूझ जा रहा है। उत्तराखंड, हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा, समूचा पूवरेत्तर, केरल से लेकर अंडमान तक सामान्य से 8-36 प्रतिशत कम बारिश हुई है। बुंदेलखंड में तो सैंकड़ों गांव वीरान होने शुरू हो गए हैं। एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक देश के लगभग सभी हिस्सों में बड़े जल संचयन स्थलों यानी जलाशयों में पिछले साल की तुलना में कम पानी है। सवाल है, हमारा विज्ञान मंगल पर तो पानी खोज रहा है, लेकिन जब कायनात छप्पर फाड़ कर पानी देती है तो उसे पूरे साल तक सहेज कर रखने की हमारे पास कोई तकनीक नहीं है। हम भारतीय अभागे हैं कि हमने अपने पुरखों से मिली ऐसे सभी ज्ञान को खुद ही बिसरा दिया। जरा गौर करें कि यदि पानी की कमी से लोग पलायन करते तो राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके तो कभी के वीरान हो जाने चाहिए थे, लेकिन वहां रंग, लोक, स्वाद और पर्व सभी कुछ है। क्योंकि वहां के पुश्तैनी बाशिंदे कम पानी से बेहतर जीवन जीना जानते थे। पानी संचय के तौर तरीकों को हमने सहेजना जरूरी नहीं समझा और अब बारिश का पानी अक्सर ऐसे इंतजाम के अभाव में बर्बाद हो जाता है। फिर बारिश के दिनों में पानी न बरसे तो लोक व सरकार दोनों ही चिंतित हो जाते हैं।1यह सवाल देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ‘औसत से कम’ पानी बरसा या बरसेगा तो क्या होगा? 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्रहि-त्रहि करती है। हकीकत जानने के लिए देश की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 फीसद क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसद हमारे पास है जबकि जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1,869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1,122 घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना नहीं चाहिए। हां, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य कृषि फसलों ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थोड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान रोता दिखता है।1मौसम विज्ञान के मुताबिक किसी इलाके में बारिश औसत से यदि 19 फीसद से कम हो तो इसे ‘अनावृष्टि’ कहते हैं, लेकिन जब बारिश इतनी कम हो कि उसकी माप औसत बारिश से 19 फीसद से भी नीचे रह जाए तो इसको ‘सूखे’ के हालात कहते हैं। असल में, हमने पानी को लेकर अपनी आदतें खराब कर ली हैं। जब कुएं से रस्सी डाल कर पानी खींचना होता था या चापाकल चलाकर पानी भरना होता था तो जितनी जरूरत होती थी, उतना ही जल उलींचा जाता था। घर में टोंटी वाले नल लगने और उसके बाद बिजली या डीजल पंप से चलने वाले ट्यूबवेल लगने के बाद एक गिलास पानी के लिए बटन दबाते ही दो बाल्टी पानी बर्बाद करने में हमारी आत्मा नहीं कांपती है। हमारी परंपरा पानी की हर बूंद को स्थानीय स्तर पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बांध, रेत निकालने, मलवा डालने, कूड़ा मिलाने जैसी गतिविधियों से बचकर, पारंपरिक जल स्नोतों मसलन तालाब, कुएं, बावड़ी आदि के हालात सुधार कर एक महीने की बारिश के साथ सालभर के पानी की कमी से जूझने की रही है। अब कस्बाई लोग बीस रुपये में एक लीटर पानी खरीद कर पीने में संकोच नहीं करते हैं तो समाज का बड़ा वर्ग पानी के अभाव में कई बार शौच और स्नान से भी वंचित रह जाता है या कुछ देर के लिए टाल देता है।1भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यहां बरसने वाले कुल पानी का हम महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जा कर मिल जाता है और बेकार हो जाता है। गुजरात के जूनागढ, भावनगर, अमेरली और राजकोट के 100 गांवों ने पानी की आत्मनिर्भरता का गुर खुद ही सीखा। विछियावाडा गांव के लोगों ने डेढ लाख व कुछ दिन की मेहनत के साथ 12 रोक बांध बनाएं और एख ही बारिश में 300 एकड़ जमीन सींचने के लिए पर्याप्त पानी जुटा लिया। इतने में एक नल कूप भी नहीं लगता। ऐसे ही प्रयोग मध्य प्रदेश में झाबुआ व देवास में भी हुए। कर्नाटक से लेकर असम तक और बिहार से लेकर बस्तर तक ऐसे हजारों हजार सफल प्रयोग हुए हैं जिनमें स्थानीय स्तर पर लेागो ने सुखाड़ को मात दी है तो ऐसे छोटे प्रयास करने में कहीं कोई दिक्कत तो होना नहीं चाहिए।

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